शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

👉 संदेह के बीज

🔷 एक सहेली ने दूसरी सहेली से पूछा:- बच्चा पैदा होने की खुशी में तुम्हारे पति ने तुम्हें क्या तोहफा दिया? सहेली ने कहा - कुछ भी नहीं! उसने सवाल करते हुए पूछा कि क्या ये अच्छी बात है? क्या उस की नज़र में तुम्हारी कोई कीमत नहीं ?

🔶 लफ्ज़ों का ये ज़हरीला बम गिरा कर वह सहेली दूसरी सहेली को अपनी फिक्र में छोड़कर चलती बनी। थोड़ी देर बाद शाम के वक्त उसका पति घर आया और पत्नी का मुंह लटका हुआ पाया। फिर दोनों में झगड़ा हुआ। एक दूसरे को लानतें भेजी। मारपीट हुई, और आखिर पति पत्नी में तलाक हो गया।

🔷 जानते हैं प्रॉब्लम की शुरुआत कहां से हुई? उस फिजूल जुमले से जो उसका हालचाल जानने आई सहेली ने कहा था।

🔶 रवि ने अपने जिगरी दोस्त आकाश से पूछा:- तुम कहां काम करते हो? आकाश- फला दुकान में।। रवि- कितनी तनख्वाह देता है मालिक? आकाश-18 हजार। रवि-18000 रुपये बस, तुम्हारी जिंदगी कैसे कटती है इतने पैसों में? आकाश- (गहरी सांस खींचते हुए)- बस यार क्या बताऊं।।

🔷 मीटिंग खत्म हुई, कुछ दिनों के बाद आकाश अब अपने काम से बेरूखा हो गया। और तनख्वाह बढ़ाने की डिमांड कर दी। जिसे मालिक ने रद्द कर दिया। आकाश ने जॉब छोड़ दी और बेरोजगार हो गया। पहले उसके पास काम था अब काम नहीं रहा।

🔶 एक साहब ने एक शख्स से कहा जो अपने बेटे से अलग रहता था। तुम्हारा बेटा तुमसे बहुत कम मिलने आता है। क्या उसे तुमसे मोहब्बत नहीं रही? बाप ने कहा बेटा ज्यादा व्यस्त रहता है, उसका काम का शेड्यूल बहुत सख्त है। उसके बीवी बच्चे हैं, उसे बहुत कम वक्त मिलता है।

🔷 पहला आदमी बोला- वाह! यह क्या बात हुई, तुमने उसे पाला-पोसा उसकी हर ख्वाहिश पूरी की, अब उसको बुढ़ापे में व्यस्तता की वजह से मिलने का वक्त नहीं मिलता है। तो यह ना मिलने का बहाना है।

🔶 इस बातचीत के बाद बाप के दिल में बेटे के प्रति शंका पैदा हो गई। बेटा जब भी मिलने आता वो ये ही सोचता रहता कि उसके पास सबके लिए वक्त है सिवाय मेरे।

🔷 याद रखिए जुबान से निकले शब्द दूसरे पर बड़ा गहरा असर डाल देते हैं।। बेशक कुछ लोगों की जुबानों से शैतानी बोल निकलते हैं। हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बहुत से सवाल हमें बहुत मासूम लगते हैं।

🔶 जैसे-
तुमने यह क्यों नहीं खरीदा।
तुम्हारे पास यह क्यों नहीं है।
तुम इस शख्स के साथ पूरी जिंदगी कैसे चल सकती हो।
तुम उसे कैसे मान सकते हो।
वगैरा वगैरा।

🔷 इस तरह के बेमतलबी फिजूल के सवाल नादानी में या बिना मकसद के हम पूछ बैठते हैं।
जबकि हम यह भूल जाते हैं कि हमारे ये सवाल सुनने वाले के दिल में
नफरत या मोहब्बत का कौन सा बीज बो रहे हैं।।

🔶 आज के दौर में हमारे इर्द-गिर्द, समाज या घरों में जो टेंशन टाइट होती जा रही है, उनकी जड़ तक जाया जाए तो अक्सर उसके पीछे किसी और का हाथ होता है।
वो ये नहीं जानते कि नादानी में या जानबूझकर बोले जाने वाले जुमले किसी की ज़िंदगी को तबाह कर सकते हैं।

🔷 ऐसी हवा फैलाने वाले हम ना बनें।

🔶 लोगों के घरों में अंधे बनकर जाओ और वहां से गूंगे बनकर निकलो।।

👉 संस्कार क्या है.....""*

🔷 एक राजा के पास सुन्दर घोड़ी थी। कई बार युद्व में इस घोड़ी ने राजा के प्राण बचाये और घोड़ी राजा के लिए पूरी वफादार थीI कुछ दिनों के बाद इस घोड़ी ने एक बच्चे को जन्म दिया, बच्चा काना पैदा हुआ, पर शरीर हष्ट पुष्ट व सुडौल था।

🔶 बच्चा बड़ा हुआ, बच्चे ने मां से पूछा: मां मैं बहुत बलवान हूँ, पर काना हूँ.... यह कैसे हो गया, इस पर घोड़ी बोली: बेटा जब में गर्भवती थी, तू पेट में था तब राजा ने मेरे ऊपर सवारी करते समय मुझे एक कोड़ा मार दिया, जिसके कारण तू काना हो गया।

🔷 यह बात सुनकर बच्चे को राजा पर गुस्सा आया और मां से बोला: मां मैं इसका बदला लूंगा।

🔶 मां ने कहा राजा ने हमारा पालन-पोषण किया है, तू जो स्वस्थ है....सुन्दर है, उसी के पोषण से तो है, यदि राजा को एक बार गुस्सा आ गया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उसे क्षति पहुचाये, पर उस बच्चे के समझ में कुछ नहीं आया, उसने मन ही मन राजा से बदला लेने की सोच ली।

🔷 एक दिन यह मौका घोड़े को मिल गया राजा उसे युद्व पर ले गया । युद्व लड़ते-लड़ते राजा एक जगह घायल हो गया, घोड़ा उसे तुरन्त उठाकर वापस महल ले आया।

🔶 इस पर घोड़े को ताज्जुब हुआ और मां से पूछा: मां आज राजा से बदला लेने का अच्छा मौका था, पर युद्व के मैदान में बदला लेने का ख्याल ही नहीं आया और न ही ले पाया, मन ने गवारा नहीं किया....इस पर घोडी हंस कर बोली: बेटा तेरे खून में और तेरे संस्कार में धोखा है ही नहीं, तू जानकर तो धोखा दे ही नहीं सकता है।

🔷 तुझ से नमक हरामी हो नहीं सकती, क्योंकि तेरी नस्ल में तेरी मां का ही तो अंश है।

🔶 यह सत्य है कि जैसे हमारे संस्कार होते है, वैसा ही हमारे मन का व्यवहार होता है, हमारे पारिवारिक-संस्कार अवचेतन मस्तिष्क में गहरे बैठ जाते हैं, माता-पिता जिस संस्कार के होते हैं, उनके बच्चे भी उसी संस्कारों को लेकर पैदा होते हैं।

🔷 हमारे कर्म ही 'संस्‍कार' बनते हैं और संस्कार ही प्रारब्धों का रूप लेते हैं! यदि हम कर्मों को सही व बेहतर दिशा दे दें तो संस्कार अच्छे बनेगें और संस्कार अच्छे बनेंगे तो जो प्रारब्ध का फल बनेगा, वह मीठा व स्वादिष्ट होगा।

👉 आज का सद्चिंतन 16 Nov 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 16 November 2018




👉 Boredom in serving humanity!?

🔷 “I have done this much, I have gone this far. Why is it only me who should be doing the work of serving people? Others too ought to do their part.” This is the common scenario witnessed among the workers engaged in serving humanity, however, it is utterly erroneous thinking and one should never resort to it. Serving humanity is the need of our soul and it nourishes our soul.

🔶 The core purpose of taking part in the tasks of serving people or helping them is not to make them feel grateful to us or to prove our greatness or to earn fame but, as a matter of fact, to uphold the glory of our soul and to keep nurturing it. Love is the inherent nature of the soul and that love can be expressed through serving humanity. Hence, how can we ever cut ourselves off from serving humanity? Why should we ever get bored of it? How can we ever abandon it?

🔷 Anyone who understands the necessity and importance of serving humanity would never ever get bored of it. And if someone does become bored, he haven’t actually understood the essence of serving humanity.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Dharma tattwa kā darśana aura marma Vangmay 53 Page 6.58

👉 सेवा साधना से ऊब क्यों?

🔷 मैंने इतना तो कर लिया, क्या अब सदा मैं ही करता रहूँगा। दूसरों को सेवा कार्य करना चाहिए। ऐसा सोचना उचित नहीं। सेवा कार्य आत्मा की आवश्यकता का पोषण है।.....

🔶 किसी पर एहसान करने के लिए दूसरों के सहायक और उपकारी बनने के लिए, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भी नहीं, यश के लिए भी नहीं, सेवा का प्रयोजन आत्मा की गरिमा को अक्षुण्ण रखने और उसका जीवन साधन जुटाये रखने के लिए है .....आत्मा का स्वभाव है - प्रेम और प्रेम की परिणति है सेवा। उससे छुट्टी कैसी? उससे ऊब क्यों? उसे छोड़ा कैसे जा सकता हैं?

🔷 जो सेवा की आवश्यकता और महत्ता को समझता है। उसे उससे कभी भी ऊब नहीं आती। जो ऊबता हो समझना चाहिए, अभी उसे सेवा का रस नहीं आया।...

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म वांग्मय 532 पृष्ठ-6.58

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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