सोमवार, 23 अक्टूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 23 Oct 2023

ईश्वरीय सत्ता में विश्वास कर लेना तथा “ईश्वर” है, इस बात को मान लेना मात्र बौद्धिक आस्था भर है। इसी के आधार पर व्यक्ति को आस्तिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि आस्तिकता विश्वास नहीं वरन् एक अनुभूति है। जिस किसी में भी आस्तिकता के भाव आते हैं, जो सच्चा आस्तिक बन जाता है, उसको अपने हृदय पटल पर ईश्वर के दिव्य प्रकाश की अनुभूति होने लगती है। वह विराट् सत्ता को सम्पूर्ण सचराचर जगत में देखता है तथा उस अनुभूति से रोमाँचित हो उठता है। ऐसा व्यक्ति ईश्वर के सतत् सामीप्य की सहज ही अनुभूति करता है तथा प्राणिमात्र में उसे अपनी ही आत्मा के दर्शन होते हैं। उसकी विवेक दृष्टि इतनी अधिक परिष्कृत परिपक्व हो जाती हैं कि जड़ चेतनमय सारे संसार में परमात्म सत्ता ही समाविष्ट दीखती है।

ईश्वर की सत्ता और महत्ता पर विश्वास करने का अर्थ है- उत्कृष्टता के साथ जुड़ने और सत्परिणामों पर - सद्गति पा -सर्वतोमुखी प्रगति पर विश्वास करना। आदर्शवादिता अपनाने पर इस प्रकार की परिणति सुनिश्चित रहती हैं। किन्तु कभी कभी उसकी उपलब्धि में देर सबेर होती देखी जाती है। ऐसे अवसरों पर ईश्वर विश्वासी विचलित नहीं होते। अपने सन्तुलन और सन्तोष को नष्ट नहीं होने देते। धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। और हर स्थिति में अपने आन्तरिक आनन्द एवं विश्वास को बनाये रखते हैं। दिव्य सत्ता के साथ मनुष्य जितनी सघनता के साथ जुड़ेगा उसके अनुशासन अनुबंधों का जितनी ईमानदारी, गहराई के साथ पालन करेगा उतना ही उसका कल्याण होगा।

आस्तिक न तो याचना करता है और न अपनी पात्रता से अधिक पाने की अपेक्षा करता हैं। उसकी कामना भावना के रूप में विकसित होती है। भाव संवेदना फलित होती है तो आदर्शों के प्रति आस्थावान बनाती है। तनिक-सा दबाव या प्रलोभन आने पर फिसल जाने से रोकती है। पवित्र अन्तःकरण ईश्वर के अवतरण के मार्ग में आये अवरोध समाप्त कर देता है। दुष्प्रवृत्तियों को हटा देने पर उनका स्थान सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय ले लेता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जप में ध्यान द्वारा प्राणप्रतिष्ठा (भाग 3)

अपने आपको एक साल के छोटे बच्चे की स्थिति में अनुभव करना चाहिए। छोटे बालक का हृदय सर्वथा शुद्ध, निर्मल और निश्चिंत होता है, जैसा ही अपने बारे में भी सोचना चाहिए। कामना-वासना, भय, लोभ, चिंता, शोक, द्वेष, आदि से अपने को सर्वथा मुक्त और संतोष, उल्लास एवं आनंद से ओत-प्रोत स्थिति में अनुभव करना चाहिए। साधक का अंतःकरण साधना काल में बालक के समान शुद्ध एवं निश्छल रहने लगे तो प्रगति तीव्र गति से होती है। भजन में तन मन लगता है और वह निर्मल स्थिति व्यावहारिक जीवन में भी बढ़ती जाती है।

माता और बालक परस्पर जैसे अत्यंत आत्मीयता और अभिन्न ममता के साथ सुसंबद्ध रहते हैं। हिल-मिलकर प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं वैसा ही साधक का भी ध्यान होना चाहिए। “हम एक वर्ष के अबोध बालक के रूप में माता की गोदी में पड़े हैं और उसका अमृत सदृश दूध पी रहे हैं। माता बड़े प्यार से अपनी छाती खोलकर उल्लासपूर्वक अपना दूध हमें पिला रही है। वह दूध, रक्त बनकर हमारी नस-नाड़ियों से घूम रहा है और अपने सात्विक तत्वों से हमारे अंग-प्रत्यंगों को परिपूर्ण कर रहा है।” यह ध्यान बहुत ही सुखद है। छोटा बच्चा अपने नन्हें-नन्हें हाथ पसारकर कभी माता के बाल पकड़ता है, कभी अन्य प्रकार अटपटी क्रियाएँ माता के साथ करता है, वैसे ही कुछ अपने द्वारा किया जा रहा है, ऐसी भावना करनी चाहिए।

माता भी जब वात्सल्य प्रेम से ओत-प्रोत होती है तब बच्चे को छाती से लगाती है। उसके सिर पर हाथ फिराती है, पीठ खुजलाती है, थपकी देती है, पुचकारती है, उछालती तथा गुदगुदाती है, हँसती और हँसाती है। वैसी ही क्रियाएँ गायत्री माता के द्वारा अपने साथ हो रही है, यह ध्यान करना चाहिए। “इस समस्त विश्व में माता और पुत्र केवल मात्र दो ही हैं। और कहीं कुछ नहीं है। कोई समस्या, चिंता, भय, लोभ आदि उत्पन्न करने वाला कोई कारण और पदार्थ इस संसार में नहीं है, केवल माता और पुत्र दो ही इस शून्य नीले आकाश में अवस्थित होकर अनंत प्रेम का आदान-प्रदान करते हुए कृतकृत्य हो रहे हैं।”

जप के समय आरंभिक साधक के लिए यही ध्यान सर्वोत्तम है। इससे मन को एक सुन्दर भावना में लगे रहने का अवसर मिलता है और उसकी भाग दौड़ बंद हो जाती है। प्रेमभावना की अभिवृद्धि में भी यह ध्यान बहुत सहायक होता है। मीरा, शबरी, चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, रामकृष्ण परमहंस आदि सभी भक्तों  ने अपनी प्रेमभावना के बल पर भगवान को प्राप्त किया था। प्रेम ही वह अमृत है, जिसके द्वारा सींचे जाने पर आत्मा की सच्चे अर्थों में परिपुष्टि होती है और वह भगवान को अपने में और अपने को भगवान में प्रतिष्ठित कर सकने में समर्थ बनती है। यह ध्यान इस आवश्यकता की पूर्ति करता है।

📖 अखण्ड ज्योति – मई 2005 पृष्ठ 20

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