बुधवार, 21 दिसंबर 2016
👉 सतयुग की वापसी (भाग 17) 22 Dec
🌹 समस्याओं की गहराई में उतरें
🔴 इन दिनों की सबसे बड़ी तात्कालिक समस्या यह है कि समाज परिकर में छाई विपन्नताओं से किस प्रकार छुटकारा पाया जाए और उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए क्या किया जाए, जिससे निरापद और सुविकसित जीवन जी सकना सम्भव हो सके?
🔵 समाज विज्ञानियों द्वारा प्रस्तुत कठिनाइयों का कारण अभावग्रस्तता को मान लिया गया है। इसी मान्यता के आधार पर यह सोचा जा रहा है कि साधन-सुविधाओं वाली सम्पन्नता की अधिकाधिक वृद्धि की जाए, जिससे अभीष्ट सुख-साधन उपलब्ध होने पर प्रसन्नतापूर्वक रहा जा सके। मोटे तौर पर अशिक्षा, दरिद्रता एवं अस्वस्थता को प्रमुख कारणों में गिना जाता है और इनके निवारण के लिए कुछ नए नीति निर्धारण का औचित्य भी है, पर देखना यह है कि वस्तुस्थिति समझे बिना और वास्तविक व्यवधानों की तह तक पहुँचे बिना जो प्रबल प्रयत्न किए जा रहे हैं या किए जाने वाले हैं वे कारगर हो भी सकेंगे या नहीं?
🔴 दरिद्रता को ही लें। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक समर्थता इतनी अधिक है कि उसके सहारे अपना ही नहीं, परिकर के अनेकों का भली प्रकार गुजारा किया जा सके और बचत को सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने वाले पुण्य परमार्थ में भी लगाया जा सके। प्रगतिशील जनों में से असंख्यों ऐसे हैं, जिनके पास न तो कोई पैतृक संपदा थी और न बाहर वालों की ही कोई कहने लायक सहायता मिली, फिर भी वे अपने मनोबल और पुरुषार्थ के आधार पर आगे बढ़ते और ऊँचे उठते चले गए, सफलता के उस उच्च शिखर पर जा पहुँचे जो जादुई जैसा लगता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 इन दिनों की सबसे बड़ी तात्कालिक समस्या यह है कि समाज परिकर में छाई विपन्नताओं से किस प्रकार छुटकारा पाया जाए और उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए क्या किया जाए, जिससे निरापद और सुविकसित जीवन जी सकना सम्भव हो सके?
🔵 समाज विज्ञानियों द्वारा प्रस्तुत कठिनाइयों का कारण अभावग्रस्तता को मान लिया गया है। इसी मान्यता के आधार पर यह सोचा जा रहा है कि साधन-सुविधाओं वाली सम्पन्नता की अधिकाधिक वृद्धि की जाए, जिससे अभीष्ट सुख-साधन उपलब्ध होने पर प्रसन्नतापूर्वक रहा जा सके। मोटे तौर पर अशिक्षा, दरिद्रता एवं अस्वस्थता को प्रमुख कारणों में गिना जाता है और इनके निवारण के लिए कुछ नए नीति निर्धारण का औचित्य भी है, पर देखना यह है कि वस्तुस्थिति समझे बिना और वास्तविक व्यवधानों की तह तक पहुँचे बिना जो प्रबल प्रयत्न किए जा रहे हैं या किए जाने वाले हैं वे कारगर हो भी सकेंगे या नहीं?
🔴 दरिद्रता को ही लें। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक समर्थता इतनी अधिक है कि उसके सहारे अपना ही नहीं, परिकर के अनेकों का भली प्रकार गुजारा किया जा सके और बचत को सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने वाले पुण्य परमार्थ में भी लगाया जा सके। प्रगतिशील जनों में से असंख्यों ऐसे हैं, जिनके पास न तो कोई पैतृक संपदा थी और न बाहर वालों की ही कोई कहने लायक सहायता मिली, फिर भी वे अपने मनोबल और पुरुषार्थ के आधार पर आगे बढ़ते और ऊँचे उठते चले गए, सफलता के उस उच्च शिखर पर जा पहुँचे जो जादुई जैसा लगता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (अन्तिम भाग) 22 Dec
🌹 गम्भीर न रहें, प्रसन्न रहना सीखें
🔵 एक शाम पंडित मोतीलाल नेहरू अपने पुत्र जवाहर लाल के साथ गांधीजी से मिलने साबरमती आश्रम पहुंचे। झोंपड़ी में मिट्टी का दीप जल रहा था और दरवाजे के बाहर लाठी रखी हुई थी। हवा जवाहरलाल से कुछ मजाक करने पर तुली थी, उसने झोंके से दीपक बुझा दिया। अंधेरे में जवाहरलाल लाठी से जा टकराये, उनके घुटने को चोट लगी—वैसे ही जवाहरलाल गर्म मिजाज थे, इस चोट ने उनमें झल्लाहट भर दी। वे गांधी जी से पूछ बैठे—‘बापू आप मुंह से अहिंसा की दुहाई देते हैं और लाठी हाथ में लेकर चलते हैं, आप ऐसा क्यों करते हैं?’ गांधीजी ने हंसकर कहा—‘तुम जैसे शैतान लड़कों को ठीक करने के लिये।’
🔴 गांधीजी दूसरे गोल मेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए इंग्लैंड गये। वहां के लोग नहीं माने, उन्हें बालरूम डांस दिखने ले गये। वहां सब अपने-अपने जोड़ों के साथ नाचने लगे। एक अंग्रेज ने उनसे कहा—‘आप भी अपना पार्टनर चुन लीजिए।’
🔵 गांधीजी ने अपनी लाठी दिखाकर कहा—‘मेरे साथ मेरा पार्टनर है।’ यह सुनकर सबको हंसी आ गई।
🔴 एक दिन की बात है। सेठ जमनालाल बजाज ने गांधीजी से कहा—‘बापू! यह तो मुझे ज्ञात है कि आपका मुझ पर अपार स्नेह है किन्तु मैं चाहता हूं कि आप मुझे देवीदास की तरह ही अपना पुत्र बना लें।’
🔵 उनका अभिप्राय गोद लेने से था। यह जानकर गांधीजी ने लम्बे-चौड़े बजाज जी की ओर देखकर कहा—‘कहते हो सो तो ठीक है। बाप बेटे को गोद लेता है, पर यहां तो स्थिति उल्टी है। बेटा बाप को गोद लेने जैसा दीखता है।’
🔴 विनोद प्रियता की प्रवृत्ति को जरा हम भी अपना स्वभाव का अंग बनाकर देखें, विषाद कभी हमारे निकट आ ही नहीं सकता।
🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 एक शाम पंडित मोतीलाल नेहरू अपने पुत्र जवाहर लाल के साथ गांधीजी से मिलने साबरमती आश्रम पहुंचे। झोंपड़ी में मिट्टी का दीप जल रहा था और दरवाजे के बाहर लाठी रखी हुई थी। हवा जवाहरलाल से कुछ मजाक करने पर तुली थी, उसने झोंके से दीपक बुझा दिया। अंधेरे में जवाहरलाल लाठी से जा टकराये, उनके घुटने को चोट लगी—वैसे ही जवाहरलाल गर्म मिजाज थे, इस चोट ने उनमें झल्लाहट भर दी। वे गांधी जी से पूछ बैठे—‘बापू आप मुंह से अहिंसा की दुहाई देते हैं और लाठी हाथ में लेकर चलते हैं, आप ऐसा क्यों करते हैं?’ गांधीजी ने हंसकर कहा—‘तुम जैसे शैतान लड़कों को ठीक करने के लिये।’
🔴 गांधीजी दूसरे गोल मेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए इंग्लैंड गये। वहां के लोग नहीं माने, उन्हें बालरूम डांस दिखने ले गये। वहां सब अपने-अपने जोड़ों के साथ नाचने लगे। एक अंग्रेज ने उनसे कहा—‘आप भी अपना पार्टनर चुन लीजिए।’
🔵 गांधीजी ने अपनी लाठी दिखाकर कहा—‘मेरे साथ मेरा पार्टनर है।’ यह सुनकर सबको हंसी आ गई।
🔴 एक दिन की बात है। सेठ जमनालाल बजाज ने गांधीजी से कहा—‘बापू! यह तो मुझे ज्ञात है कि आपका मुझ पर अपार स्नेह है किन्तु मैं चाहता हूं कि आप मुझे देवीदास की तरह ही अपना पुत्र बना लें।’
🔵 उनका अभिप्राय गोद लेने से था। यह जानकर गांधीजी ने लम्बे-चौड़े बजाज जी की ओर देखकर कहा—‘कहते हो सो तो ठीक है। बाप बेटे को गोद लेता है, पर यहां तो स्थिति उल्टी है। बेटा बाप को गोद लेने जैसा दीखता है।’
🔴 विनोद प्रियता की प्रवृत्ति को जरा हम भी अपना स्वभाव का अंग बनाकर देखें, विषाद कभी हमारे निकट आ ही नहीं सकता।
🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गृहस्थ-योग (भाग 41) 22 Dec
🌹 परिवार की चतुर्विधि पूजा
🔵 पौधे को विकसित होने के लिए अच्छी जमीन और पानी की जरूरत है, पर साथ ही हवा भी चाहिए। इसी प्रकार जीवन विकास के लिए भोजन, शिक्षा तथा मनोरंजन से वंचित रहते हैं वे एक बड़ा अन्याय करते हैं। नीतिकारों का वचन है कि ‘जो संगीत, साहित्य तथा कला से विहीन है वह बिना सींग पूंछ का पशु है, इस कथन का तात्पर्य मनोरंजन रहित, शुष्क, नीरस जीवन की भर्त्सना करना है। निश्चय ही मनोरंजन एक आवश्यक भोजन है जिसके बिना जीवन मुरझाने लगता है। कुरुचि पूर्ण, दूषित, अश्लील, मनोरंजन से बचना ठीक है। सादा और सात्विक मनोरंजनों को तलाश करना चाहिए।
🔴 संगीत, गायन, वाद्य, भ्रमण, सम्मिलन, सहभोज, उत्सव, मेला, प्रतियोगिता, चित्र कला, व्याख्यान, देशाटन, प्रदर्शनी सजावट, अद्भुत और ऐतिहासिक वस्तुओं का निरीक्षण, खेल, यात्रा, आदि अनेक मार्गों से यथा अवसर मनोरंजन के छोटे मोटे साधन प्राप्त किये जा सकते हैं। घर के पुरुषों को तो ऐसे अवसर मिलते रहते हैं पर स्त्रियों और बालकों को इससे वंचित रहना पड़ता है। यह उचित नहीं, उन्हें भी यथाशक्त ऐसे अवसर देने चाहिए। छोटे बालकों के लिए खिलौने जुटाते रहना चाहिए। मनोविनोद के कार्य में यदि थोड़ा पैसा खर्च होता हो तो उसमें कंजूसी न करनी चाहिए क्योंकि इस मार्ग में जो उचित खर्च होता है वह फिजूल खर्ची नहीं वरन् जीवन की एक वास्तविक आवश्यकता की पूर्ति है।
🔵 चौथी बात भविष्य निर्माण की है। आज की जरूरत किसी प्रकार पूरी हो जाय, केवल मात्रा इतने से सन्तुष्ट न हो जाना चाहिए वरन् यह देखना चाहिये कि हर व्यक्ति का भविष्य उन्नत, सुखमय, समृद्ध, प्रकाशवान एवं उज्ज्वल कैसे हो सकता है? प्राणी के जन्म धारण का उद्देश्य किसी प्रकार दिन काटते रहना नहीं वरन् यह है कि वह अपनी स्थिति को ऊंचा उठावे, आगे बढ़े और अधिक साधन सम्पन्न होता हुआ नीर-विकसित हो। ऊंचा, ऊंचा और अधिक ऊंचा जीवन बने, इसके लिए सदैव सोचते और प्रयत्न करते रहने की आवश्यकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 पौधे को विकसित होने के लिए अच्छी जमीन और पानी की जरूरत है, पर साथ ही हवा भी चाहिए। इसी प्रकार जीवन विकास के लिए भोजन, शिक्षा तथा मनोरंजन से वंचित रहते हैं वे एक बड़ा अन्याय करते हैं। नीतिकारों का वचन है कि ‘जो संगीत, साहित्य तथा कला से विहीन है वह बिना सींग पूंछ का पशु है, इस कथन का तात्पर्य मनोरंजन रहित, शुष्क, नीरस जीवन की भर्त्सना करना है। निश्चय ही मनोरंजन एक आवश्यक भोजन है जिसके बिना जीवन मुरझाने लगता है। कुरुचि पूर्ण, दूषित, अश्लील, मनोरंजन से बचना ठीक है। सादा और सात्विक मनोरंजनों को तलाश करना चाहिए।
🔴 संगीत, गायन, वाद्य, भ्रमण, सम्मिलन, सहभोज, उत्सव, मेला, प्रतियोगिता, चित्र कला, व्याख्यान, देशाटन, प्रदर्शनी सजावट, अद्भुत और ऐतिहासिक वस्तुओं का निरीक्षण, खेल, यात्रा, आदि अनेक मार्गों से यथा अवसर मनोरंजन के छोटे मोटे साधन प्राप्त किये जा सकते हैं। घर के पुरुषों को तो ऐसे अवसर मिलते रहते हैं पर स्त्रियों और बालकों को इससे वंचित रहना पड़ता है। यह उचित नहीं, उन्हें भी यथाशक्त ऐसे अवसर देने चाहिए। छोटे बालकों के लिए खिलौने जुटाते रहना चाहिए। मनोविनोद के कार्य में यदि थोड़ा पैसा खर्च होता हो तो उसमें कंजूसी न करनी चाहिए क्योंकि इस मार्ग में जो उचित खर्च होता है वह फिजूल खर्ची नहीं वरन् जीवन की एक वास्तविक आवश्यकता की पूर्ति है।
🔵 चौथी बात भविष्य निर्माण की है। आज की जरूरत किसी प्रकार पूरी हो जाय, केवल मात्रा इतने से सन्तुष्ट न हो जाना चाहिए वरन् यह देखना चाहिये कि हर व्यक्ति का भविष्य उन्नत, सुखमय, समृद्ध, प्रकाशवान एवं उज्ज्वल कैसे हो सकता है? प्राणी के जन्म धारण का उद्देश्य किसी प्रकार दिन काटते रहना नहीं वरन् यह है कि वह अपनी स्थिति को ऊंचा उठावे, आगे बढ़े और अधिक साधन सम्पन्न होता हुआ नीर-विकसित हो। ऊंचा, ऊंचा और अधिक ऊंचा जीवन बने, इसके लिए सदैव सोचते और प्रयत्न करते रहने की आवश्यकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 54)
🌹 कला और उसका सदुपयोग
🔴 78. सार्वजनिक उपयोग के उपकरण— अपनी समिति के पास कुछ ऐसे उपकरण रखे रहें जिन्हें लोग अक्सर दूसरों से मांग कर काम चलाया करते हैं। विवाह शादियों में काम आने वाले बड़े बर्तन, जलपात्र, फर्श, बिछौने, नसैनी, लालटेनें, सजावट का सामान, कुएं में गिरे हुए डोल रस्सी निकालने के कांटे, आटे की सेंमई बनाने की मशीनें जैसी छोटी-मोटी चीजें एकत्रित रखी जांय और उन्हें मरम्मत खर्च लेकर लोगों को देते रहा जाय तो उससे भी सहानुभूति एवं सद्भावना बढ़ती है।
🔵 79. जीव-दया के सत्कर्म— पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं के प्रति करुणा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। पशु-पक्षी भी अपने ही भाई-भतीजे हैं, उनका मांस खाने-खून पीने की आदत छुड़ानी चाहिए। उससे आध्यात्मिक सद्गुण नष्ट होते हैं, नृशंसता पनपती है। चमड़ा भी आजकल जीवित काटे हुए पशुओं का ही आ रहा है। उसका उपयोग करने से भी पशु-वध में वृद्धि होती है। हमें चमड़े के स्थान पर कपड़ा या रबड़ के जूते पहन कर काम चलाना चाहिए और दूसरी चमड़े की बनी वस्तुएं भी प्रयोग नहीं करनी चाहिए। मृगछालाएं भी आजकल हत्या किये हुए पशुओं की ही मिलती हैं, इसलिए पूजा में उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। जो रेशम कीड़ों को जिन्दा उबाल कर निकाला जाता है वह भी प्रयोग न किया जाय।
🔴 सामर्थ्य से अधिक काम लिया जाना, अधिक भार लादा जाना, बुरी तरह पीटना, घायल बीमारों से काम लेना, फूंका प्रथा के अनुसार दूध निकालना आदि अनेक प्रकार से पशुओं के साथ बरती जाने वाली नृशंसता का त्याग करना चाहिए।
🔵 गौ पालन, गौदुग्ध को प्राथमिकता देना जैसे धर्म कृत्यों की तरफ ध्यान देना चाहिए, जिससे स्वास्थ्य, समृद्धि और सद्भावना की अभिवृद्धि का मार्ग प्रशस्त हो सके।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 78. सार्वजनिक उपयोग के उपकरण— अपनी समिति के पास कुछ ऐसे उपकरण रखे रहें जिन्हें लोग अक्सर दूसरों से मांग कर काम चलाया करते हैं। विवाह शादियों में काम आने वाले बड़े बर्तन, जलपात्र, फर्श, बिछौने, नसैनी, लालटेनें, सजावट का सामान, कुएं में गिरे हुए डोल रस्सी निकालने के कांटे, आटे की सेंमई बनाने की मशीनें जैसी छोटी-मोटी चीजें एकत्रित रखी जांय और उन्हें मरम्मत खर्च लेकर लोगों को देते रहा जाय तो उससे भी सहानुभूति एवं सद्भावना बढ़ती है।
🔵 79. जीव-दया के सत्कर्म— पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं के प्रति करुणा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। पशु-पक्षी भी अपने ही भाई-भतीजे हैं, उनका मांस खाने-खून पीने की आदत छुड़ानी चाहिए। उससे आध्यात्मिक सद्गुण नष्ट होते हैं, नृशंसता पनपती है। चमड़ा भी आजकल जीवित काटे हुए पशुओं का ही आ रहा है। उसका उपयोग करने से भी पशु-वध में वृद्धि होती है। हमें चमड़े के स्थान पर कपड़ा या रबड़ के जूते पहन कर काम चलाना चाहिए और दूसरी चमड़े की बनी वस्तुएं भी प्रयोग नहीं करनी चाहिए। मृगछालाएं भी आजकल हत्या किये हुए पशुओं की ही मिलती हैं, इसलिए पूजा में उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। जो रेशम कीड़ों को जिन्दा उबाल कर निकाला जाता है वह भी प्रयोग न किया जाय।
🔴 सामर्थ्य से अधिक काम लिया जाना, अधिक भार लादा जाना, बुरी तरह पीटना, घायल बीमारों से काम लेना, फूंका प्रथा के अनुसार दूध निकालना आदि अनेक प्रकार से पशुओं के साथ बरती जाने वाली नृशंसता का त्याग करना चाहिए।
🔵 गौ पालन, गौदुग्ध को प्राथमिकता देना जैसे धर्म कृत्यों की तरफ ध्यान देना चाहिए, जिससे स्वास्थ्य, समृद्धि और सद्भावना की अभिवृद्धि का मार्ग प्रशस्त हो सके।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 22)
🌹 अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता
🔵 दुनियाँ वाले बहुत खराब हैं, पर उसमें खराबी से कहीं ज्यादा अच्छाई मौजूद है। हमें उस अच्छाई पर ही अपनी दृष्टि रखनी चाहिए, अच्छाई से ही आनन्द लेना चाहिए और अच्छाई को ही आगे बढ़ाना चाहिए। दिन में हम जगते हैं, प्रकाश में काम करते हैं, उजाले में रहना पसंद करते हैं। जब रात का अंधेरा सामने आता है, तो आँखें बंद करके सो जाते हैं, जिन्हें रात में भी काम करना है, वे दीपक जला लेते हैं। हमारी यह उजाले में काम करने, अंधेरे में सो जाने की प्रवृत्ति यह सिखाती है कि संसार के साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिए। किसी आदमी में क्या सद्गुण है, उसे खोज निकालिए और उन्हीं से सम्पर्क रखिए, उन्हीं में आनंद लीजिए, उन्हें ही प्रोसाहित कीजिए, जो दोष हों उन्हें भी देखिए तो सही, पर उनमें उलझिए मत। रात की तरह आँख बंद कर लीजिए।
🔴 महर्षि दत्तात्रेय की कथा जानने वालों को विदित होगा कि जब तक वे दुनियाँ के काले और सफेद दोनों पहलुओं का समन्वय करते रहे, तब तक बड़े चिंतित और दुःखी रहे। जब उन्होंने कालेपन से दृष्टि हटा ली और सफेदी पर ध्यान दिया, तो उन्हें सभी जीव आदनीय, उपदेश देने वाले और पवित्र दिखाई पड़े, उन्होंने चौबीस गुरु बनाए, जिनमें कुत्ता, बिल्ली, सियार, मकड़ी, मक्खी, चील, कौए जैसे जीव भी थे। उन्हें प्रतीत हुआ कि कोई भी प्राणी घृणित नहीं। सबके अंदर महान् आत्मा है और वे महानता के लिए आगे बढ़ रहे हैं, जब हम अपनी दृष्टि को गुण ग्राहक बना लेते हैं तो दुनियाँ का सारा तख्ता पलट जाता है, दोष के स्थान पर गुण, बुराई के स्थान पर भलाई, दुःख के स्थान पर सुख आ बैठता है। बहुत बुरी दुनियाँ, बहुत अच्छी बन जाती है।
🔵 तिल की ओट ताड़ छिपा हुआ है। भूल-भुलैया के खेल में चोर दरवाजा जरा सी गलती के कारण छू जाता है। बाजीगर एक पोली लकड़ी रखता है, उसमें एक तरफ डोरा पीला होता है दूसरी तरफ नीला। इस छेद में से डोरा खींचता है, तो पीला निकलता है और उधर से खींचने पर वह नीला हो जाता है। लोग अचंभा करते हैं कि डोरा किस तरह रंग बदलता है, पर उस लकड़ी के पोले भाग में डोरे का एक भाग उलझा रहने के कारण यह अदल-बदल होती रहती है। संसार किसी को बुरा दीखता है, किसी को भला, इसका कारण हमारी दृष्टि की भीतरी उलझन है। इस उलझन का रहस्य भरा सुलझाव यह है कि आप अपना दृष्टिकोण बदल डालिए। अपने पुराने कल्पना जंजालों को तोड़-फोड़ कर फेंक दीजिए। तरह-तरह के उलझनों भरे जाल जो मस्तिष्क में बुन गए हैं, उन्हें उखाड़ कर एक कोने में मत डाल दीजिए। अपना तीसरा नेत्र, ज्ञान नेत्र खोलकर पुरानी दुनियाँ को नष्ट कर डालिए। वर्तमान कलियुग को प्रलय के गर्त में गिर पड़ने दीजिए और अपना सतयुग अपने मानस लोक में स्वयं रच डालिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/aapni.2
🔵 दुनियाँ वाले बहुत खराब हैं, पर उसमें खराबी से कहीं ज्यादा अच्छाई मौजूद है। हमें उस अच्छाई पर ही अपनी दृष्टि रखनी चाहिए, अच्छाई से ही आनन्द लेना चाहिए और अच्छाई को ही आगे बढ़ाना चाहिए। दिन में हम जगते हैं, प्रकाश में काम करते हैं, उजाले में रहना पसंद करते हैं। जब रात का अंधेरा सामने आता है, तो आँखें बंद करके सो जाते हैं, जिन्हें रात में भी काम करना है, वे दीपक जला लेते हैं। हमारी यह उजाले में काम करने, अंधेरे में सो जाने की प्रवृत्ति यह सिखाती है कि संसार के साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिए। किसी आदमी में क्या सद्गुण है, उसे खोज निकालिए और उन्हीं से सम्पर्क रखिए, उन्हीं में आनंद लीजिए, उन्हें ही प्रोसाहित कीजिए, जो दोष हों उन्हें भी देखिए तो सही, पर उनमें उलझिए मत। रात की तरह आँख बंद कर लीजिए।
🔴 महर्षि दत्तात्रेय की कथा जानने वालों को विदित होगा कि जब तक वे दुनियाँ के काले और सफेद दोनों पहलुओं का समन्वय करते रहे, तब तक बड़े चिंतित और दुःखी रहे। जब उन्होंने कालेपन से दृष्टि हटा ली और सफेदी पर ध्यान दिया, तो उन्हें सभी जीव आदनीय, उपदेश देने वाले और पवित्र दिखाई पड़े, उन्होंने चौबीस गुरु बनाए, जिनमें कुत्ता, बिल्ली, सियार, मकड़ी, मक्खी, चील, कौए जैसे जीव भी थे। उन्हें प्रतीत हुआ कि कोई भी प्राणी घृणित नहीं। सबके अंदर महान् आत्मा है और वे महानता के लिए आगे बढ़ रहे हैं, जब हम अपनी दृष्टि को गुण ग्राहक बना लेते हैं तो दुनियाँ का सारा तख्ता पलट जाता है, दोष के स्थान पर गुण, बुराई के स्थान पर भलाई, दुःख के स्थान पर सुख आ बैठता है। बहुत बुरी दुनियाँ, बहुत अच्छी बन जाती है।
🔵 तिल की ओट ताड़ छिपा हुआ है। भूल-भुलैया के खेल में चोर दरवाजा जरा सी गलती के कारण छू जाता है। बाजीगर एक पोली लकड़ी रखता है, उसमें एक तरफ डोरा पीला होता है दूसरी तरफ नीला। इस छेद में से डोरा खींचता है, तो पीला निकलता है और उधर से खींचने पर वह नीला हो जाता है। लोग अचंभा करते हैं कि डोरा किस तरह रंग बदलता है, पर उस लकड़ी के पोले भाग में डोरे का एक भाग उलझा रहने के कारण यह अदल-बदल होती रहती है। संसार किसी को बुरा दीखता है, किसी को भला, इसका कारण हमारी दृष्टि की भीतरी उलझन है। इस उलझन का रहस्य भरा सुलझाव यह है कि आप अपना दृष्टिकोण बदल डालिए। अपने पुराने कल्पना जंजालों को तोड़-फोड़ कर फेंक दीजिए। तरह-तरह के उलझनों भरे जाल जो मस्तिष्क में बुन गए हैं, उन्हें उखाड़ कर एक कोने में मत डाल दीजिए। अपना तीसरा नेत्र, ज्ञान नेत्र खोलकर पुरानी दुनियाँ को नष्ट कर डालिए। वर्तमान कलियुग को प्रलय के गर्त में गिर पड़ने दीजिए और अपना सतयुग अपने मानस लोक में स्वयं रच डालिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "हमारी वसीयत और विरासत" (भाग 3)
🌞 इस जीवन यात्रा के गम्भीरता पूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
🔴 प्रत्यक्ष घटनाओं की दृष्टि से कुछ प्रकाशित किये जा रहे प्रसंगों को छोड़कर हमारे जीवन क्रम में बहुत विचित्रताएँ एवं विविधताएँ नहीं हैं। कौतुक-कौतूहल व्यक्त करने वाली उछल-कूद एवं जादू चमत्कारों की भी उसमें गुंजायश नहीं है। एक सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढर्रे पर निष्ठापूर्वक समय कटता रहा है। इसलिए विचित्रताएँ ढूँढ़ने वालों को उसमें निराशा भी लग सकती है, पर जो घटनाओं के पीछे काम करने वाले तथ्यों और रहस्यों में रुचि लेंगे, उन्हें इतने से भी अध्यात्म सनातन, के परम्परागत प्रवाह का परिचय मिल जाएगा और वे समझ सकेंगे कि सफलता, असफलता का कारण क्या है? क्रियाकाण्ड को सब कुछ मान बैठना और व्यक्तित्व के परिष्कार की, पात्रता की प्राप्ति पर ध्यान न देना यही एक कारण है जिसके चलते उपासना क्षेत्र में निराशा छाई और अध्यात्म को उपहासास्पद बनने, बदनाम होने का लाँछन लगा। हमारे क्रिया-कृत्य सामान्य हैं, पर उसके पीछे पृष्ठभूमि का समावेश है, जो ब्रह्म-तेजस् को उभारती और उसे कुछ महत्त्वपूर्ण कर सकने की समर्थता तक ले जाती है।
🔵 जीवनचर्या के घटना परक विस्तार से कौतूहल बढ़ने के अतिरिक्त कुछ लाभ है नहीं। काम की बात है इन क्रियाओं के साथ जुड़ी हुई अन्तर्दृष्टि और उस आन्तरिक तत्परता का समावेश, जो छोटे से बीज खाद-पानी की आवश्यकता पूरी करते हुए विशाल वृक्ष बनाने में समर्थ होती रही। वस्तुतः साधक का व्यक्तित्व ही साधना क्रम में प्राण फूँकता है, अन्यथा मात्र क्रियाकृत्य खिलवाड़ बनकर रह जाते हैं।
🔴 तुलसी का राम, सूर का हरे कृष्ण, चैतन्य का संकीर्तन, मीरा का गायन, रामकृष्ण का पूजन मात्र क्रिया-कृत्यों के कारण सफल नहीं हुआ था। ऐसा औड़म-बौड़म तो दूसरे असंख्य करते रहते हैं, पर उनके पल्ले विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता, वाल्मीकि ने जीवन बदला तो, उल्टा नाम जपते ही मूर्धन्य हो गए। अजामिल, अंगुलिमाल, गणिका, आम्रपाली मात्र कुछ अक्षर दुहराना ही नहीं सीखे थे, उनने अपनी जीवनचर्या को भी अध्यात्म आदर्शों के अनुरूप ढाला।
🔵 आज कुछ ऐसी विडम्बना चल पड़ी है कि लोग कुछ अक्षर दुहराने और क्रिया-कृत्य करने, स्तवन, उपहार प्रस्तुत करने भर से अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। चिंतन, चरित्र और व्यवहार को उस आदर्शवादिता के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं करते, जो आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य रूप में आवश्यक है। अपनी साधना पद्धति में इस भूल का समावेश न होने देने का आरम्भ से ही ध्यान रखा गया। अस्तु, वह यथार्थवादी भी है और सर्व साधारण के लिए उपयोगी भी। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही जीवन चर्या को पढ़ा जाए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/is
🔴 प्रत्यक्ष घटनाओं की दृष्टि से कुछ प्रकाशित किये जा रहे प्रसंगों को छोड़कर हमारे जीवन क्रम में बहुत विचित्रताएँ एवं विविधताएँ नहीं हैं। कौतुक-कौतूहल व्यक्त करने वाली उछल-कूद एवं जादू चमत्कारों की भी उसमें गुंजायश नहीं है। एक सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढर्रे पर निष्ठापूर्वक समय कटता रहा है। इसलिए विचित्रताएँ ढूँढ़ने वालों को उसमें निराशा भी लग सकती है, पर जो घटनाओं के पीछे काम करने वाले तथ्यों और रहस्यों में रुचि लेंगे, उन्हें इतने से भी अध्यात्म सनातन, के परम्परागत प्रवाह का परिचय मिल जाएगा और वे समझ सकेंगे कि सफलता, असफलता का कारण क्या है? क्रियाकाण्ड को सब कुछ मान बैठना और व्यक्तित्व के परिष्कार की, पात्रता की प्राप्ति पर ध्यान न देना यही एक कारण है जिसके चलते उपासना क्षेत्र में निराशा छाई और अध्यात्म को उपहासास्पद बनने, बदनाम होने का लाँछन लगा। हमारे क्रिया-कृत्य सामान्य हैं, पर उसके पीछे पृष्ठभूमि का समावेश है, जो ब्रह्म-तेजस् को उभारती और उसे कुछ महत्त्वपूर्ण कर सकने की समर्थता तक ले जाती है।
🔵 जीवनचर्या के घटना परक विस्तार से कौतूहल बढ़ने के अतिरिक्त कुछ लाभ है नहीं। काम की बात है इन क्रियाओं के साथ जुड़ी हुई अन्तर्दृष्टि और उस आन्तरिक तत्परता का समावेश, जो छोटे से बीज खाद-पानी की आवश्यकता पूरी करते हुए विशाल वृक्ष बनाने में समर्थ होती रही। वस्तुतः साधक का व्यक्तित्व ही साधना क्रम में प्राण फूँकता है, अन्यथा मात्र क्रियाकृत्य खिलवाड़ बनकर रह जाते हैं।
🔴 तुलसी का राम, सूर का हरे कृष्ण, चैतन्य का संकीर्तन, मीरा का गायन, रामकृष्ण का पूजन मात्र क्रिया-कृत्यों के कारण सफल नहीं हुआ था। ऐसा औड़म-बौड़म तो दूसरे असंख्य करते रहते हैं, पर उनके पल्ले विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता, वाल्मीकि ने जीवन बदला तो, उल्टा नाम जपते ही मूर्धन्य हो गए। अजामिल, अंगुलिमाल, गणिका, आम्रपाली मात्र कुछ अक्षर दुहराना ही नहीं सीखे थे, उनने अपनी जीवनचर्या को भी अध्यात्म आदर्शों के अनुरूप ढाला।
🔵 आज कुछ ऐसी विडम्बना चल पड़ी है कि लोग कुछ अक्षर दुहराने और क्रिया-कृत्य करने, स्तवन, उपहार प्रस्तुत करने भर से अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। चिंतन, चरित्र और व्यवहार को उस आदर्शवादिता के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं करते, जो आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य रूप में आवश्यक है। अपनी साधना पद्धति में इस भूल का समावेश न होने देने का आरम्भ से ही ध्यान रखा गया। अस्तु, वह यथार्थवादी भी है और सर्व साधारण के लिए उपयोगी भी। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही जीवन चर्या को पढ़ा जाए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 3)
🌞 हमारा अज्ञातवास और तप-साधना का उद्देश्य
🔴 तप की शक्ति अपार है। जो कुछ अधिक से अधिक शक्ति सम्पन्न तत्व इस विश्व में है, उसका मूल ‘तप’ में ही सन्निहित है। सूर्य तपता है इसलिये ही वह समस्त विश्व को जीवन प्रदान करने लायक प्राण भण्डार का अधिपति है। ग्रीष्म की ऊष्मा से जब वायु मण्डल भली प्रकार तप लेता है तो मंगलमयी वर्षा होती है। सोना तपता है तो खरा, तेजस्वी और मूल्यवान बनता है। जितनी भी धातुएं हैं वे सभी खान से निकलते समय दूषित, मिश्रित व दुर्बल होती हैं पर जब उन्हें कई बार भट्टियों में तपाया, पिघलाया और गलाया जाता है तो वे शुद्ध एवं मूल्यवान बन जाती हैं। कच्ची मिट्टी के बने हुए कमजोर खिलौने और बर्तन जरा से आघात में टूट सकते हैं। तपाये और पकाये जाने पर मजबूत एवं रक्त वर्ण हो जाते हैं। कच्ची ईंटें भट्टे में पकने पर पत्थर जैसी कड़ी हो जाती है। मामूली से कच्चे कंकड़ पकने पर चूना बनते हैं और उनके द्वारा बने हुये विशाल प्रासाद दीर्घ काल तक बने खड़े रहते हैं।
🔵 मामूली सा अभ्रक जब सौ, बार अग्नि में तपाया जाता है तो चन्द्रोदय रस बन जाता है। अनेकों बार अग्नि संस्कार होने से ही धातुओं की मूल्यवान भस्म रसायनें बन जाती हैं और उनसे अशक्ति एवं कष्ट साध्य रोगों में ग्रस्त रोगी पुनर्जीवन प्राप्त करते हैं। साधारण अन्न और दाल-शाक जो कच्चे रूप में न तो सुपाच्य होते हैं और न स्वादिष्ट। वे ही अग्नि संस्कार से पकाये जाने पर सुरुचि पूर्ण व्यंजनों का रूप धारण कर लेते हैं। धोबी की भट्टी में चढ़ने पर मैले-कुचैले कपड़े निर्मल एवं स्वच्छ बन जाते हैं। पेट की जठराग्नि द्वारा पचाया हुआ अन्न ही रक्त अस्थि का रूप धारण कर हमारे शरीर का भाग बनता है। यदि यह अग्नि संस्कार की, तप की प्रक्रिया बन्द हो जाय तो निश्चित रूप से विकास का सारा क्रम ही बन्द हो जायगा।
🔴 प्रकृति तपती है इसीलिए सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चल रही है। जीव तपता है उसी से उसके अन्तराल में छिपे हुए पुरुषार्थ, पराक्रम, साहस, उत्साह, उल्लास, ज्ञान, विज्ञान प्रकृति रत्नों की श्रृंखला प्रस्फुटित होती है। माता अपने अण्ड एवं गर्भ को अपनी उदरस्थ ऊष्मा से पका कर शिशु को प्रसव करती है। जिन जीवों ने मूर्च्छित स्थिति से ऊंचे उठने की खाने सोने से कुछ अधिक करने की आकांक्षा की है; उन्हें तप करना पड़ा है। संसार में अनेकों पुरुषार्थ, पराक्रमी एवं इतिहास के पृष्ठों पर अपनी छाप छोड़ने वाले महापुरुष जो हैं, उन्हें किसी न किसी रूप में अपने-अपने ढंग का तप करना पड़ा है। कृषक, विद्यार्थी, श्रमिक, वैज्ञानिक, शासक, विद्वान, उद्योगी, कारीगर आदि सभी महत्वपूर्ण कार्य भूमिकाओं का सम्पादन करने वाले व्यक्ति वे ही बन सके हैं जिन्होंने कठोर श्रम, अध्यवसाय एवं तपश्चर्या की नीति को अपनाया है। यदि इन लोगों ने आलस्य, प्रमाद अकर्मण्यता, शिथिलता एवं विलासिता की नीति अपनाई होती तो वे कदापि उस स्थान पर न पहुंच पाते जो उन्होंने कष्ट सहिष्णु एवं पुरुषार्थी बनकर उपलब्ध किया है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamara_aagyatvaas
🔴 तप की शक्ति अपार है। जो कुछ अधिक से अधिक शक्ति सम्पन्न तत्व इस विश्व में है, उसका मूल ‘तप’ में ही सन्निहित है। सूर्य तपता है इसलिये ही वह समस्त विश्व को जीवन प्रदान करने लायक प्राण भण्डार का अधिपति है। ग्रीष्म की ऊष्मा से जब वायु मण्डल भली प्रकार तप लेता है तो मंगलमयी वर्षा होती है। सोना तपता है तो खरा, तेजस्वी और मूल्यवान बनता है। जितनी भी धातुएं हैं वे सभी खान से निकलते समय दूषित, मिश्रित व दुर्बल होती हैं पर जब उन्हें कई बार भट्टियों में तपाया, पिघलाया और गलाया जाता है तो वे शुद्ध एवं मूल्यवान बन जाती हैं। कच्ची मिट्टी के बने हुए कमजोर खिलौने और बर्तन जरा से आघात में टूट सकते हैं। तपाये और पकाये जाने पर मजबूत एवं रक्त वर्ण हो जाते हैं। कच्ची ईंटें भट्टे में पकने पर पत्थर जैसी कड़ी हो जाती है। मामूली से कच्चे कंकड़ पकने पर चूना बनते हैं और उनके द्वारा बने हुये विशाल प्रासाद दीर्घ काल तक बने खड़े रहते हैं।
🔵 मामूली सा अभ्रक जब सौ, बार अग्नि में तपाया जाता है तो चन्द्रोदय रस बन जाता है। अनेकों बार अग्नि संस्कार होने से ही धातुओं की मूल्यवान भस्म रसायनें बन जाती हैं और उनसे अशक्ति एवं कष्ट साध्य रोगों में ग्रस्त रोगी पुनर्जीवन प्राप्त करते हैं। साधारण अन्न और दाल-शाक जो कच्चे रूप में न तो सुपाच्य होते हैं और न स्वादिष्ट। वे ही अग्नि संस्कार से पकाये जाने पर सुरुचि पूर्ण व्यंजनों का रूप धारण कर लेते हैं। धोबी की भट्टी में चढ़ने पर मैले-कुचैले कपड़े निर्मल एवं स्वच्छ बन जाते हैं। पेट की जठराग्नि द्वारा पचाया हुआ अन्न ही रक्त अस्थि का रूप धारण कर हमारे शरीर का भाग बनता है। यदि यह अग्नि संस्कार की, तप की प्रक्रिया बन्द हो जाय तो निश्चित रूप से विकास का सारा क्रम ही बन्द हो जायगा।
🔴 प्रकृति तपती है इसीलिए सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चल रही है। जीव तपता है उसी से उसके अन्तराल में छिपे हुए पुरुषार्थ, पराक्रम, साहस, उत्साह, उल्लास, ज्ञान, विज्ञान प्रकृति रत्नों की श्रृंखला प्रस्फुटित होती है। माता अपने अण्ड एवं गर्भ को अपनी उदरस्थ ऊष्मा से पका कर शिशु को प्रसव करती है। जिन जीवों ने मूर्च्छित स्थिति से ऊंचे उठने की खाने सोने से कुछ अधिक करने की आकांक्षा की है; उन्हें तप करना पड़ा है। संसार में अनेकों पुरुषार्थ, पराक्रमी एवं इतिहास के पृष्ठों पर अपनी छाप छोड़ने वाले महापुरुष जो हैं, उन्हें किसी न किसी रूप में अपने-अपने ढंग का तप करना पड़ा है। कृषक, विद्यार्थी, श्रमिक, वैज्ञानिक, शासक, विद्वान, उद्योगी, कारीगर आदि सभी महत्वपूर्ण कार्य भूमिकाओं का सम्पादन करने वाले व्यक्ति वे ही बन सके हैं जिन्होंने कठोर श्रम, अध्यवसाय एवं तपश्चर्या की नीति को अपनाया है। यदि इन लोगों ने आलस्य, प्रमाद अकर्मण्यता, शिथिलता एवं विलासिता की नीति अपनाई होती तो वे कदापि उस स्थान पर न पहुंच पाते जो उन्होंने कष्ट सहिष्णु एवं पुरुषार्थी बनकर उपलब्ध किया है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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