शनिवार, 31 अगस्त 2019
👉 संगठन में ताकत Strength in Organization 💪💪💪
एक वन में बहुत बडा अजगर रहता था। वह बहुत अभिमानी और अत्यंत क्रूर था। जब वह अपने बिल से निकलता तो सब जीव उससे डर कर भाग खडे होते। उसका मुंह इतना विकराल था कि खरगोश तक को निगल जाता था।
एक बार अजगर शिकार की तलाश में घूम रहा था। सारे जीव तो उसे बिल से निकलते देख कर ही भाग चुके थे। उसे कुछ न मिला तो वह क्रोधित होकर फुफकारने लगा और इधर-उधर खाक छानने लगा। वहीं निकट में एक हिरणी अपने नवजात शिशु को पत्तियों के ढेर के नीचे छिपा कर स्वयं भोजन की तलाश में दूर निकल गई थी। अजगर की फुफकार से सूखी पत्तियां उडने लगी और हिरणी का बच्चा नजर आने लगा। अजगर की नजर उस पर पडी हिरणी का बच्चा उस भयानक जीव को देख कर इतना डर गया कि उसके मुंह से चीख तक न निकल पाई। अजगर ने देखते-ही-देखते नवजात हिरण के बच्चे को निगल लिया।
तब तक हिरणी भी लौट आई थी, पर वह क्या करती? आंखों में आंसू भर जड होकर दूर से अपने बच्चे को काल का ग्रास बनते देखती रही। हिरणी के शोक का ठिकाना न रहा। उसने किसी-न-किसी तरह अजगर से बदला लेने की ठान ली। हिरणी की एक नेवले से दोस्ती थी। शोक में डूबी हिरणी अपने मित्र नेवले के पास गई और रो-रोकर उसे अपनी दुख-भरी कथा सुनाई। नेवले को भी बहुत दुख हुआ। वह दुख-भरे स्वर में बोला 'मित्र, मेरे बस में होता तो मैं उस नीच अजगर के सौ टुकडे कर डालता। पर क्या करें, वह छोटा-मोटा सांप नहीं है, जिसे मैं मार सकूं वह तो एक अजगर है। अपनी पूंछ की फटकार से ही मुझे अधमरा कर देगा। लेकिन यहां पास में ही चीटिंयों की एक बांबी हैं। वहां की रानी मेरी मित्र हैं। उससे सहायता मांगनी चाहिए।'
हिरणी ने निराश स्वर में विलाप किया “पर जब तुम्हारे जितना बडा जीव उस अजगर का कुछ बिगाडने में समर्थ नहीं हैं तो वह छोटी-सी चींटी क्या कर लेगी?” नेवले ने कहा 'ऐसा मत सोचो। उसके पास चींटियों की बहुत बडी सेना है | संगठन में बडी शक्ति होती है |'
हिरणी को कुछ आशा की किरण नजर आई। नेवला हिरणी को लेकर चींटी रानी के पास गया और उसे सारी कहानी सुनाई। चींटी रानी ने सोच-विचार कर कहा 'हम तुम्हारी सहायता करेंगे। हमारी बांबी के पास एक संकरीला नुकीले पत्थरों भरा रास्ता है। तुम किसी तरह उस अजगर को उस रास्ते से आने पर मजबूर करो। बाकी काम मेरी सेना पर छोड दो।'
नेवले को अपनी मित्र चींटी रानी पर पूरा विश्वास था। इस लिए वह अपनी जान जोखिम में डालने पर तैयार हो गया। दूसरे दिन नेवला जाकर सांप के बिल के पास अपनी बोली बोलने लगा। अपने शत्रु की बोली सुनते ही अजगर क्रोध में भर कर अपने बिल से बाहर आया। नेवला उसी संकरे रास्ते वाली दिशा में दौडा। अजगर ने पीछा किया। अजगर रुकता तो नेवला मुड कर फुफकारता और अजगर को गुस्सा दिला कर फिर पीछा करने पर मजबूर करता। इसी प्रकार नेवले ने उसे संकरीले रास्ते से गुजरने पर मजबूर कर दिया। नुकीले पत्थरों से उसका शरीर छिलने लगा। जब तक अजगर उस रास्ते से बाहर आया तब तक उसका काफ़ी शरीर छिल गया था और जगह-जगह से ख़ून टपक रहा था।
उसी समय चींटियों की सेना ने उस पर हमला कर दिया। चींटियां उसके शरीर पर चढकर छिले स्थानों के नंगे मांस को काटने लगीं। अजगर तडप उठा। अपना शरीर पटकने लगा जिससे और मांस छिलने लगा और चींटियों को आक्रमण के लिए नए-नए स्थान मिलने लगे। अजगर चींटियों का क्या बिगाडता? वे हजारों की गिनती में उस पर टूट पड रही थीं। कुछ ही देर में क्रूर अजगर ने तडप-तडप कर दम तोड दिया।
सीख -- संगठन शक्ति बड़े-बड़ों को धूल चटा देती है।
एक बार अजगर शिकार की तलाश में घूम रहा था। सारे जीव तो उसे बिल से निकलते देख कर ही भाग चुके थे। उसे कुछ न मिला तो वह क्रोधित होकर फुफकारने लगा और इधर-उधर खाक छानने लगा। वहीं निकट में एक हिरणी अपने नवजात शिशु को पत्तियों के ढेर के नीचे छिपा कर स्वयं भोजन की तलाश में दूर निकल गई थी। अजगर की फुफकार से सूखी पत्तियां उडने लगी और हिरणी का बच्चा नजर आने लगा। अजगर की नजर उस पर पडी हिरणी का बच्चा उस भयानक जीव को देख कर इतना डर गया कि उसके मुंह से चीख तक न निकल पाई। अजगर ने देखते-ही-देखते नवजात हिरण के बच्चे को निगल लिया।
तब तक हिरणी भी लौट आई थी, पर वह क्या करती? आंखों में आंसू भर जड होकर दूर से अपने बच्चे को काल का ग्रास बनते देखती रही। हिरणी के शोक का ठिकाना न रहा। उसने किसी-न-किसी तरह अजगर से बदला लेने की ठान ली। हिरणी की एक नेवले से दोस्ती थी। शोक में डूबी हिरणी अपने मित्र नेवले के पास गई और रो-रोकर उसे अपनी दुख-भरी कथा सुनाई। नेवले को भी बहुत दुख हुआ। वह दुख-भरे स्वर में बोला 'मित्र, मेरे बस में होता तो मैं उस नीच अजगर के सौ टुकडे कर डालता। पर क्या करें, वह छोटा-मोटा सांप नहीं है, जिसे मैं मार सकूं वह तो एक अजगर है। अपनी पूंछ की फटकार से ही मुझे अधमरा कर देगा। लेकिन यहां पास में ही चीटिंयों की एक बांबी हैं। वहां की रानी मेरी मित्र हैं। उससे सहायता मांगनी चाहिए।'
हिरणी ने निराश स्वर में विलाप किया “पर जब तुम्हारे जितना बडा जीव उस अजगर का कुछ बिगाडने में समर्थ नहीं हैं तो वह छोटी-सी चींटी क्या कर लेगी?” नेवले ने कहा 'ऐसा मत सोचो। उसके पास चींटियों की बहुत बडी सेना है | संगठन में बडी शक्ति होती है |'
हिरणी को कुछ आशा की किरण नजर आई। नेवला हिरणी को लेकर चींटी रानी के पास गया और उसे सारी कहानी सुनाई। चींटी रानी ने सोच-विचार कर कहा 'हम तुम्हारी सहायता करेंगे। हमारी बांबी के पास एक संकरीला नुकीले पत्थरों भरा रास्ता है। तुम किसी तरह उस अजगर को उस रास्ते से आने पर मजबूर करो। बाकी काम मेरी सेना पर छोड दो।'
नेवले को अपनी मित्र चींटी रानी पर पूरा विश्वास था। इस लिए वह अपनी जान जोखिम में डालने पर तैयार हो गया। दूसरे दिन नेवला जाकर सांप के बिल के पास अपनी बोली बोलने लगा। अपने शत्रु की बोली सुनते ही अजगर क्रोध में भर कर अपने बिल से बाहर आया। नेवला उसी संकरे रास्ते वाली दिशा में दौडा। अजगर ने पीछा किया। अजगर रुकता तो नेवला मुड कर फुफकारता और अजगर को गुस्सा दिला कर फिर पीछा करने पर मजबूर करता। इसी प्रकार नेवले ने उसे संकरीले रास्ते से गुजरने पर मजबूर कर दिया। नुकीले पत्थरों से उसका शरीर छिलने लगा। जब तक अजगर उस रास्ते से बाहर आया तब तक उसका काफ़ी शरीर छिल गया था और जगह-जगह से ख़ून टपक रहा था।
उसी समय चींटियों की सेना ने उस पर हमला कर दिया। चींटियां उसके शरीर पर चढकर छिले स्थानों के नंगे मांस को काटने लगीं। अजगर तडप उठा। अपना शरीर पटकने लगा जिससे और मांस छिलने लगा और चींटियों को आक्रमण के लिए नए-नए स्थान मिलने लगे। अजगर चींटियों का क्या बिगाडता? वे हजारों की गिनती में उस पर टूट पड रही थीं। कुछ ही देर में क्रूर अजगर ने तडप-तडप कर दम तोड दिया।
सीख -- संगठन शक्ति बड़े-बड़ों को धूल चटा देती है।
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५९)
👉 अंतर्मन की धुलाई एवं ब्राह्मीचेतना से विलय का नाम है- ध्यान
ध्यान जिसका भी हम करते हैं, वह हमारे ईष्ट, आराध्य हो अथवा सद्गरु या फिर कोई पवित्र विचार या भाव। उसके प्रति प्यार भरे अपनेपन से सोचें- याद करें। नियमित उसके लिए अपनी याद को प्रगाढ़ करें। यहाँ तक कि यह प्रगाढ़ता हमारी आस्था, श्रद्धा व प्रेम का रूप ले ले। फिर इस प्रेम से परिपूर्ण छवि को अपने शरीर के उच्चस्तरीय केन्द्रों यथा अनाहत चक्र, हृदय स्थान अथवा आज्ञा चक्र- मस्तक पर दोनों भौहों के बीच स्थापित करें। अब देखिए हमारी भावनाएँ एवं विचार स्वतः ही उस ओर मुड़ चलेंगे। प्रेम से पुलकित मन स्वतः ही उस ध्यान में डूबने लगेगा। और अपने आप ही व्यक्तित्व में सकारात्मक विचारों व भावनाओं की सघनता सधने लगेगी। सकारात्मक भावों व विचारों का यह सघन रूप औषधि की भाँति है, जिसका नियमित निरन्तर सेवन व्यक्तित्व को सब भाँति विकारों व विषादों से मुक्त कर देगा।
ध्यान की यह चिकित्सा प्रणाली सब भाँति अद्भुत है। इसके पहले चरण में अन्तर्चेतना एकाग्र होती है। इस एकाग्रता के सधने पर हमारी मानसिक क्षमताओं का विकास होता है। दूसरे चरण में यह एकाग्र अन्तर्चेतना- अन्तर्मुखी हो स्वयं ही गहराई में प्रवेश होती है। ऐसा होते ही अन्तर्मन, अचेतन मन धुलने लगता है। यहीं पर हमें अनुभूतियों के प्रथम दर्शन होते हैं। सबसे पहले इन अनुभूतियों में विकार व विषाद के स्रोत के रूप में हमारी दमित वासनाएँ, भावनाएँ व मनोग्रन्थियाँ तरह- तरह के रूप धारणकर प्रकट होती हैं। ध्यान के साधक को न इसमें आकर्षित होना चाहिए और न इससे परेशान होना चाहिए। बस तटस्थ होकर निहारते रहना चाहिए। व्यक्तित्व की आन्तरिक सफाई का यह दौर सालों- साल चलता रहता है। इसके साथ ही रोग- शोक के कारणों से छुटकारा मिल जाता है।
इस परिष्कार के बाद क्रम आता है ब्राह्मी चेतना से लय स्थापित होने का। ज्यों- ज्यों अन्तर्चेतना परिष्कृत होती जाती है, अपने आप ही यह सामञ्जस्य स्थापित होने लगता है। दिव्य अनुभवों के द्वार खुलने लगते हैं। ब्राह्मी चेतना का प्रभाव अन्तर्चेना में घुलने से सभी कुछ दिव्यता में रूपान्तरित हो जाता है। इस स्थिति में जो कुछ अनुभव होता है उसे कहकर अथवा लिखकर नहीं बताया जा सकता। यहाँ तो जो पहुँच सकेंगे वे स्वयं इसके भेद को जान सकेंगे। इसके बारे में बस इतना कहना ही पर्याप्त है कि ध्यान के प्रभाव से साधक में सकारात्मक विचारों व भावों का चुम्बकत्व सघन होने से समूचा व्यक्तित्व स्वयं ही सद्गुणों का स्रोत हो जाता है। युगऋषि गुरुदेव का इस बारे में कहना था कि ध्यान से प्रेम प्रकट होता है। और प्रेम सच्चा हो तो अपने आप ही ध्यान होने लगता है। हालांकि ये रहस्य इतने गहरे हैं कि इन्हें समझने के लिए पहले व्यक्तित्व को स्वाध्याय चिकित्सा से गुजरना आवश्यक है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८१
ध्यान जिसका भी हम करते हैं, वह हमारे ईष्ट, आराध्य हो अथवा सद्गरु या फिर कोई पवित्र विचार या भाव। उसके प्रति प्यार भरे अपनेपन से सोचें- याद करें। नियमित उसके लिए अपनी याद को प्रगाढ़ करें। यहाँ तक कि यह प्रगाढ़ता हमारी आस्था, श्रद्धा व प्रेम का रूप ले ले। फिर इस प्रेम से परिपूर्ण छवि को अपने शरीर के उच्चस्तरीय केन्द्रों यथा अनाहत चक्र, हृदय स्थान अथवा आज्ञा चक्र- मस्तक पर दोनों भौहों के बीच स्थापित करें। अब देखिए हमारी भावनाएँ एवं विचार स्वतः ही उस ओर मुड़ चलेंगे। प्रेम से पुलकित मन स्वतः ही उस ध्यान में डूबने लगेगा। और अपने आप ही व्यक्तित्व में सकारात्मक विचारों व भावनाओं की सघनता सधने लगेगी। सकारात्मक भावों व विचारों का यह सघन रूप औषधि की भाँति है, जिसका नियमित निरन्तर सेवन व्यक्तित्व को सब भाँति विकारों व विषादों से मुक्त कर देगा।
ध्यान की यह चिकित्सा प्रणाली सब भाँति अद्भुत है। इसके पहले चरण में अन्तर्चेतना एकाग्र होती है। इस एकाग्रता के सधने पर हमारी मानसिक क्षमताओं का विकास होता है। दूसरे चरण में यह एकाग्र अन्तर्चेतना- अन्तर्मुखी हो स्वयं ही गहराई में प्रवेश होती है। ऐसा होते ही अन्तर्मन, अचेतन मन धुलने लगता है। यहीं पर हमें अनुभूतियों के प्रथम दर्शन होते हैं। सबसे पहले इन अनुभूतियों में विकार व विषाद के स्रोत के रूप में हमारी दमित वासनाएँ, भावनाएँ व मनोग्रन्थियाँ तरह- तरह के रूप धारणकर प्रकट होती हैं। ध्यान के साधक को न इसमें आकर्षित होना चाहिए और न इससे परेशान होना चाहिए। बस तटस्थ होकर निहारते रहना चाहिए। व्यक्तित्व की आन्तरिक सफाई का यह दौर सालों- साल चलता रहता है। इसके साथ ही रोग- शोक के कारणों से छुटकारा मिल जाता है।
इस परिष्कार के बाद क्रम आता है ब्राह्मी चेतना से लय स्थापित होने का। ज्यों- ज्यों अन्तर्चेतना परिष्कृत होती जाती है, अपने आप ही यह सामञ्जस्य स्थापित होने लगता है। दिव्य अनुभवों के द्वार खुलने लगते हैं। ब्राह्मी चेतना का प्रभाव अन्तर्चेना में घुलने से सभी कुछ दिव्यता में रूपान्तरित हो जाता है। इस स्थिति में जो कुछ अनुभव होता है उसे कहकर अथवा लिखकर नहीं बताया जा सकता। यहाँ तो जो पहुँच सकेंगे वे स्वयं इसके भेद को जान सकेंगे। इसके बारे में बस इतना कहना ही पर्याप्त है कि ध्यान के प्रभाव से साधक में सकारात्मक विचारों व भावों का चुम्बकत्व सघन होने से समूचा व्यक्तित्व स्वयं ही सद्गुणों का स्रोत हो जाता है। युगऋषि गुरुदेव का इस बारे में कहना था कि ध्यान से प्रेम प्रकट होता है। और प्रेम सच्चा हो तो अपने आप ही ध्यान होने लगता है। हालांकि ये रहस्य इतने गहरे हैं कि इन्हें समझने के लिए पहले व्यक्तित्व को स्वाध्याय चिकित्सा से गुजरना आवश्यक है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८१
👉 कर सकते थे, किया नहीं
रावण तथा विभीषण एक ही कुल में उत्पन्न हुए सगे भाई थे, दोनों विद्वान-पराक्रमी थे। एक ने अपनी दिशा अलग चुनी व दूसरे ने प्रवाह के विपरीत चलकर अनीति से टकराने का साहस किया। धारा को मोड़ सकने तक की क्षमता भगवान ने मनुष्य को दी ही इसलिए है ताकि वह उसका सहयोगी बन सके।
भगवान ने मनुष्य को इच्छानुसार वरदान माँगने का अधिकार भी दिया है। रावण शिव का भक्त था। उसने अपने इष्ट से वरदान सामर्थ्यवान होने का माँगा पर साथ ही यह भी कि मरूँ तो मनुष्य के हाथों। उसकी अनीति को मिटाने, उसका संहार करने के लिए स्वयं भगवान को राम के रूप में जन्म लेना पड़ा। राम शिव के इष्ट थे। यदि असाधारण अधिकार प्राप्त रावण प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी अपने इष्ट भगवान शिव से सत्परामर्श लेना नहीं चाहता तो अन्त तो उसका सुनिशित होगा ही। यह भगवान का सहज रूप है जो मनुष्य को स्वतन्त्र इच्छा देकर छोड़ देता है।
जीव विशुद्ध रूप में जल की बूँद के समान इस धरती पर आता है। एक ओर जल की बूँद धरती पर गिरकर कीचड बन जाती हैं व दूसरी ओर जीव माया में लिप्त हो जाता है। यह तो जीव के ऊपर है जो स्वयं को माया से दूर रख समुद्र में पडी बूंद के आत्म विस्तरण की तरह सर्वव्यापी हो मेघ बनकर समाज पर परमार्थ की वर्षा करे अथवा कीचड़ में पड़ा रहे।
मनुष्य को इस विशिष्ट उपलब्धि को देने के बाद विधाता ने यह सोचा भी नहीं होगा कि वह ऊर्ध्वगामी नहीं उर्ध्वगामी मार्ग चुन लेगा। अन्य जीवों, प्राणियों का जहाँ तक सवाल है वे तो बस ईश्वरीय अनुशासन-व्यवस्था के अन्तर्गत अपना प्राकृतिक जीवनक्रम भर पूरा कर पाते हैं। आहार ग्रहण, विसर्जन-प्रजनन यही तक उनका जीवनोद्देश्य सीमित रहता है। परन्तु बहुसंख्य मानव ऐसे होते हैं जो इन्हीं की तरह जीवन बिताते और अदूरदर्शिता का परिचय देते सिर धुन- धुनकर पछताते देखे जाते हैं। इनकी तुलना चासनी में कूद पड़ने वाली मक्खी से की जा सकती है।
चासनी के कढाव को एक बारगी चट कर जाने के लिए आतुर मक्खी बेतरह उसमें कूदती है और अपने पर-पैर उस जंजाल में लपेट कर बेमौत मरती है। जबकि समझदार मक्खी किनारे पर बैठ कर धीरे-धीरे स्वाद लेती, पेट भरती और उन्मूक्त आकाश में बेखटके बिचरती है। अधीर आतुरता ही मनुष्य को तत्काल कुछ पाने के लिए उत्तेजित करती है और उतने समय तक ठहरने नहीं देती जिसमें कि नीतिपूर्वक उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति सरलतापूर्वक सम्भव हो सके।
मछली वंशी में लिपटी आटे की गोली भर को देखती है। उसे उतना अवकाश या धीरज नहीं होता कि यह ढूँढ़-समझ सके कि इसके पीछे कहीं कोई खतरा तो नहीं है। घर बैठे हाथ लगा प्रलोभन उसे इतना सुहाता है कि गोली को निगलते ही बनता है। परिणाम सामने आने में देर नहीं लगती। काँटा आँतों में उलझता है और प्राण लेने के उपरान्त ही निकलता है।
📖 प्रज्ञा पुराण से
भगवान ने मनुष्य को इच्छानुसार वरदान माँगने का अधिकार भी दिया है। रावण शिव का भक्त था। उसने अपने इष्ट से वरदान सामर्थ्यवान होने का माँगा पर साथ ही यह भी कि मरूँ तो मनुष्य के हाथों। उसकी अनीति को मिटाने, उसका संहार करने के लिए स्वयं भगवान को राम के रूप में जन्म लेना पड़ा। राम शिव के इष्ट थे। यदि असाधारण अधिकार प्राप्त रावण प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी अपने इष्ट भगवान शिव से सत्परामर्श लेना नहीं चाहता तो अन्त तो उसका सुनिशित होगा ही। यह भगवान का सहज रूप है जो मनुष्य को स्वतन्त्र इच्छा देकर छोड़ देता है।
जीव विशुद्ध रूप में जल की बूँद के समान इस धरती पर आता है। एक ओर जल की बूँद धरती पर गिरकर कीचड बन जाती हैं व दूसरी ओर जीव माया में लिप्त हो जाता है। यह तो जीव के ऊपर है जो स्वयं को माया से दूर रख समुद्र में पडी बूंद के आत्म विस्तरण की तरह सर्वव्यापी हो मेघ बनकर समाज पर परमार्थ की वर्षा करे अथवा कीचड़ में पड़ा रहे।
मनुष्य को इस विशिष्ट उपलब्धि को देने के बाद विधाता ने यह सोचा भी नहीं होगा कि वह ऊर्ध्वगामी नहीं उर्ध्वगामी मार्ग चुन लेगा। अन्य जीवों, प्राणियों का जहाँ तक सवाल है वे तो बस ईश्वरीय अनुशासन-व्यवस्था के अन्तर्गत अपना प्राकृतिक जीवनक्रम भर पूरा कर पाते हैं। आहार ग्रहण, विसर्जन-प्रजनन यही तक उनका जीवनोद्देश्य सीमित रहता है। परन्तु बहुसंख्य मानव ऐसे होते हैं जो इन्हीं की तरह जीवन बिताते और अदूरदर्शिता का परिचय देते सिर धुन- धुनकर पछताते देखे जाते हैं। इनकी तुलना चासनी में कूद पड़ने वाली मक्खी से की जा सकती है।
चासनी के कढाव को एक बारगी चट कर जाने के लिए आतुर मक्खी बेतरह उसमें कूदती है और अपने पर-पैर उस जंजाल में लपेट कर बेमौत मरती है। जबकि समझदार मक्खी किनारे पर बैठ कर धीरे-धीरे स्वाद लेती, पेट भरती और उन्मूक्त आकाश में बेखटके बिचरती है। अधीर आतुरता ही मनुष्य को तत्काल कुछ पाने के लिए उत्तेजित करती है और उतने समय तक ठहरने नहीं देती जिसमें कि नीतिपूर्वक उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति सरलतापूर्वक सम्भव हो सके।
मछली वंशी में लिपटी आटे की गोली भर को देखती है। उसे उतना अवकाश या धीरज नहीं होता कि यह ढूँढ़-समझ सके कि इसके पीछे कहीं कोई खतरा तो नहीं है। घर बैठे हाथ लगा प्रलोभन उसे इतना सुहाता है कि गोली को निगलते ही बनता है। परिणाम सामने आने में देर नहीं लगती। काँटा आँतों में उलझता है और प्राण लेने के उपरान्त ही निकलता है।
📖 प्रज्ञा पुराण से
👉 स्वाध्याय, जीवन विकास की एक अनिवार्य आवश्यकता (भाग १)
बहुत बार हम से अनेक लोग किसी की धारा-प्रवाह बोलते एवं भाषण देते देखकर मंत्र कीलित जैसे हो जाते हैं और वक्ता के ज्ञान एवं उसकी प्रतिभा की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगते हैं और कभी-कभी यह भी मान लेते हैं कि इस व्यक्ति पर माता सरस्वती भी प्रत्यक्ष कृपा है। इसके अंतर्पट खुल गये हैं, तभी तो ज्ञान का अविरल स्रोत इसके शब्दों में मुख के द्वारा बाहर बहता चला रहा है।
बात भी सही है, श्रोताओं का इस प्रकार आश्चर्य विभोर हो जाना अस्वाभाविक भी नहीं है। सफल वक्ता अथवा समर्थ प्राध्यापक जिस विषय को ले लेते हैं, उस पर घण्टों एक बार बोलते चले जाते हैं, और यह प्रमाणित कर देते हैं कि उनकी उस विषय का साँगोपाँग ज्ञान है और उनकी सारी विद्या जिह्वा के अग्रभाग पर रखी हुई है। जबकि वह कोई मांत्रिक सिद्धि नहीं होती है। वह सारा चमत्कार उनके उस स्वाध्याय का सुफल होता है, जिसे वे किसी दिन भी, जिसे वे किसी दिन भी, किसी अवस्था में नहीं छोड़ते। उनके जीवन का कदाचित ही कोई ऐसा अभागा दिन जाता हो, जिसमें वे मनोयोगपूर्वक घण्टे दो घण्टे स्वाध्याय न करते हों। स्वाध्याय उनके जीवन का एक अंग और प्रतिदिन की अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। जिस दिन वे अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते, उस दिन वे अपने तन-मन और आत्मा में एक भूख, एक रिक्तता का कष्ट अनुभव किया करते हैं। उस दिन का वे जीवन का एक मनहूस दिन मानते और उस मनहूस दिन को कभी भी अपने जीवन में आने का अवसर नहीं देते।
यही तो वह अबाध तप है जिसका फल ज्ञान एवं मुखरता के रूप में वक्ताओं एवं विद्वानों की जिह्वा पर सरस्वती के वास का विश्वास उत्पन्न करा देता है। चौबीसों घण्टों सरस्वती की उपासना में लगे रहिये, जीवन भर ब्राह्मी मंत्र एवं ब्राह्मी बूटी का सेवन करते रहिये, किन्तु स्वाध्याय किसी दिन भी न करिये और देखिये कि सरस्वती सिद्धि तो दूर पास की पढ़ी हुई विद्या भी विलुप्त हो जायेगी। सरस्वती स्वाध्याय का अनुगमन करती है, इस सत्य का सम्मान करता हुआ जो साधक उसकी उपासना किया करता है, वह अवश्य उसकी कृपा का भागी बन जाता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९ पृष्ठ २४
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/March/v1.24
बात भी सही है, श्रोताओं का इस प्रकार आश्चर्य विभोर हो जाना अस्वाभाविक भी नहीं है। सफल वक्ता अथवा समर्थ प्राध्यापक जिस विषय को ले लेते हैं, उस पर घण्टों एक बार बोलते चले जाते हैं, और यह प्रमाणित कर देते हैं कि उनकी उस विषय का साँगोपाँग ज्ञान है और उनकी सारी विद्या जिह्वा के अग्रभाग पर रखी हुई है। जबकि वह कोई मांत्रिक सिद्धि नहीं होती है। वह सारा चमत्कार उनके उस स्वाध्याय का सुफल होता है, जिसे वे किसी दिन भी, जिसे वे किसी दिन भी, किसी अवस्था में नहीं छोड़ते। उनके जीवन का कदाचित ही कोई ऐसा अभागा दिन जाता हो, जिसमें वे मनोयोगपूर्वक घण्टे दो घण्टे स्वाध्याय न करते हों। स्वाध्याय उनके जीवन का एक अंग और प्रतिदिन की अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। जिस दिन वे अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते, उस दिन वे अपने तन-मन और आत्मा में एक भूख, एक रिक्तता का कष्ट अनुभव किया करते हैं। उस दिन का वे जीवन का एक मनहूस दिन मानते और उस मनहूस दिन को कभी भी अपने जीवन में आने का अवसर नहीं देते।
यही तो वह अबाध तप है जिसका फल ज्ञान एवं मुखरता के रूप में वक्ताओं एवं विद्वानों की जिह्वा पर सरस्वती के वास का विश्वास उत्पन्न करा देता है। चौबीसों घण्टों सरस्वती की उपासना में लगे रहिये, जीवन भर ब्राह्मी मंत्र एवं ब्राह्मी बूटी का सेवन करते रहिये, किन्तु स्वाध्याय किसी दिन भी न करिये और देखिये कि सरस्वती सिद्धि तो दूर पास की पढ़ी हुई विद्या भी विलुप्त हो जायेगी। सरस्वती स्वाध्याय का अनुगमन करती है, इस सत्य का सम्मान करता हुआ जो साधक उसकी उपासना किया करता है, वह अवश्य उसकी कृपा का भागी बन जाता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९ पृष्ठ २४
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/March/v1.24
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