बुधवार, 12 जनवरी 2022

👉 हित-साधना के दो प्रयाग

लुहार अपनी दुकान पर लोहे के टुकड़ों से तरह तरह की चीजें बनाता रहता है। उन टुकड़ों को वह कभी गरम करने के लिए भट्टी में तपाता है कभी पानी में डालकर ठण्डा कर लेता है। इन विसंगतियों को देखकर कोई भोला मनुष्य असमंजस में पड़ सकता है कि लुहार ने इस दुमुँही प्रक्रिया को क्यों अपना रखा है। पर वह कारीगर जानता है कि किसी लोहे के टुकड़े को बढ़िया उपकरण की शक्ल में परिणत करने के लिये दोनों ही प्रकार की ठण्डी-गरम प्रणालियों का प्रयुक्त होना आवश्यक है।

मनुष्य के जीवन में भी सुख-दुख का, धूप-छाँह का अपना महत्व है। रात-दिन की अँधेरी, उजेली, विसंगतियाँ ही तो कालक्षेप का एक सर्वांगपूर्ण विधान प्रस्तुत करती हैं। यदि मनुष्य सदा सुखी और सम्पन्न ही रहे तो निश्चय ही उसकी आन्तरिक प्रगति रूप जाएगी। जो झटके प्रगति के लिए आवश्यक हैं उन्हें ही हम कष्ट कहते हैं। इन्हें सच्चा भक्त कड़ुई औषधि की तरह ही शिरोधार्य करता है। सन्निपात का मरीज जैसे डॉक्टर को गाली देता है वैसी भूल समझदार आस्तिक ईश्वर के प्रति नहीं कर सकता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १०१)

कर्मों का त्याग ही है सच्ची भक्ति

देवर्षि नारद के सूत्र उच्चारित करने के उपरांत ब्रह्मर्षि विश्वामित्र सुगना की कथा को आगे बढ़ाते हुए बोले- ‘‘निर्द्वन्द्वता उसमें साफ झलक रही थी। न कोई भय, न कोई शंका और न ही अभिमान। महामायिविनी-भीम भयंकर ताड़का के क्षेत्र में एकाकी-सर्वसाधन विहीन भील के मन में ऐसी निश्चिन्तता चकित कर देने वाली थी। मैंने उससे जानना चाहा- वत्स! तुम्हें यहाँ कभी कोई चिन्ता सताती है?

उत्तर में सुगना हल्के से हँस दिया और बोला- महर्षि! आप तो परमज्ञानी हैं, भली-भाँति जानते हैं कि जब ‘मैं’ होता है तो ही चिन्ता, परेशानी अथवा भय भयभीत करते हैं। लेकिन मेरा ‘मैं’ तो प्रभु के चरणों में विलीनता पा चुका है। मैं सर्वदा यह सच अनुभव करता हूँ कि बस यह देह सुगना भील की है, इसमें जो चैतन्यता अथवा क्रियाशक्ति है, वह तो स्वयं नारायण की है। मेरे प्रभु परम समर्थ हैं, जब तक वह चाहेंगे, इस देह को रखेंगे, जब नहीं चाहेंगे, यह पंचभौतिक देह, पंचभूतों में विलीन हो जाएगी।

फिर उसने अपनी ओर इंगित करते हुए कहा- इस देह से होने वाले समस्त कर्म उन्हीं के द्वारा, उन्हीं के लिए हो रहे हैं। मैं बीते वर्षों से यही अनुभव किए जा रहा हूँ कि क्रिया, कर्त्ता, कर्मफल सभी का आधार परमेश्वर नारायण ही हैं। बातचीत में कहा जाने वाला ‘मैं’ अथवा इस देह का ‘सुगना नाम’ तो बस व्यवहार निभाने के लिए है। यथार्थ अनुभव में न तो ‘मैं’ का कोई अस्तित्त्व है और न ही ‘सुगना नाम’ का। उसकी सभी बातें अद्भुत थीं। साथ ही अद्भुत था उसका भोलापन। वह अन्दर से बाहर तक सम्पूर्ण सच्चा और निष्कपट था। मेरा उसके साथ अभी तक का वार्तालाप खड़े-खड़े ही हो रहा था। अब सम्भवतः उसे चेत हुआ और उसने अपनी भावनाओं से उबरते हुए कहा- प्रभु! आप दोनों इस तरह खड़े न रहें, इधर विराज कर इस अकिंचर के कक्ष को पावन करें। ऐसा कहते हुए उसने पास के दर्भासन की तरफ इशारा किया।

मैं और ऋषि रुद्रांश दोनों ही बैठ गए। सुगना हम दोनों की ही आवभगत करने की कोशिश कर रहा था। उसने झोपड़ी में रखे हुए फल हमारे सामने रखते हुए कहा- भगवन्! यह नारायण का प्रसाद है इसे ग्रहण करें। उसका प्रेम, आदर और अपूर्व निश्छलता मेरा मन मोहित कर रही थी। मैं देख रहा था कि वह कर्म करते हुए भी करता नहीं है, और कर्मफल की उसे कोई आकांक्षा नहीं है। सचमुच ही वह अतीत, वर्तमान एवं भविष्य से ऊपर उठ चुका था। उसने न तो कोई लौकिक विद्याएँ अर्जित की थीं और न ही आध्यात्मिक विद्याओं का अर्जन कर रहा था। इन सबकी कोई चाहत भी नहीं थी उसे। उसकी दिनचर्या भी सहज थी, उसमें कोई भी कठिन व्रत, अनुष्ठान या तप का समावेश नहीं था। सम्भवतः उसे इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं थी।

अपनी स्मृतियों के झरोखे से झांकते हुए ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- सुगना से मिलने के बाद मैं जान सका कि भक्त भगवान है, क्योंकि वह भगवान की ओर सतत अग्रसर है। भक्त इसलिए भी भगवान है, क्योंकि वह भगवान होने की तरफ प्रतिक्षण रूपान्तरित हो रहा है। सत्य यही है कि भक्त निरन्तर भगवान में बदल रहा होता है। उसकी प्रत्येक प्रार्थना उसे भगवान बना रही होती है। उसकी हर पूजा उसे भगवान में बदल रही होती है। भक्तिपथ पर चलते हुए भक्त और भगवान का फासला निरन्तर कम होता जाता है। हर क्षण, हर पल यह घटित होता है और एक पल वह भी आता है जबकि भक्त अपने भगवान में होता है और भगवान अपने भक्त में होते हैं। सुगना के रूप में उस दिन मैंने इस सत्य को प्रकट देखा।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की बातें सुनकर ऋषिमण्डल एवं देवमण्डल चकित रह गया। देवर्षि नारद स्वयं में अन्तर्लीन थे। सम्भवतः वह अपने अगले सूत्र के बारे में विचार कर रहे थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९२

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