मैं कौन हूँ? अनगिनत बार यह सवाल अपने से पूछा। कितने महीने-साल इस प्रश्न के साथ गुजरे, अब तो उसका कोई हिसाब भी सम्भव नहीं। हर बार बुद्धि ने उत्तर देने की कोशिश की, पढ़े-सुने हुए, संस्कार जन्य उत्तर। लेकिन इन सब उत्तरों से कभी तृप्ति नहीं मिली, क्योंकि ये सभी उत्तर उधार के थे, मरे हुए थे। हर बार सतह पर गूँज कर कहीं विलीन हो जाते थे। अन्तरात्मा की गहनता में उनकी कोई ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती थी। प्रश्न जहाँ पर था, वहाँ इन उत्तरों की पहुँच नहीं थी।
अनुभूति इतनी जरूर हुई कि प्रश्न कहीं केन्द्र पर था, जबकि उत्तर परिधि पर थे। प्रश्न अन्तस में अंकुरित हुआ था, जबकि समाधान बाहर से थोपा हुआ था। इस समझ ने जैसे जीवन में क्रान्ति कर दी। बुद्धि का भ्रम टूट गया। और अन्तर्चेतना में एक नया द्वार खुल गया। यह सब कुछ ऐसा था, जैसे कि अचानक अंधेरे में प्रकाश उतर आया हो। अपनी ही चेतना की गहराइयों में यह अहसास होने लगा कि कोई बीज भूमि को बेधकर प्रकाश के दर्शन के लिए तड़प रहा है। बौद्धिकता का माया जाल ही इसमें मुख्य बाधा है।
इस नयी समझ ने अन्तर्गगन को उजाले से भर दिया। बुद्धि द्वारा थोपे गए उत्तर सूखे पत्तों की तरह झड़ गए। प्रश्न गहराता गया। साक्षी भाव में यह सारी प्रक्रिया चलती रही। परिधि की प्रतिक्रियाएँ झड़ने लगी, केन्द्र का मौन मुखर होने लगा। मैं कौन हूँ? इस प्रश्न प्यास से समग्र व्यक्तित्व तड़प उठा। मैं कौन हूँ? इस प्रश्न के प्रचण्ड झोकों से प्रत्येक श्वास कंपित हो गयी। एक अग्नि ज्वाला की भांति अन्तस की गहराइयों में यह हुंकार गूँज उठा- आखिर कौन हूँ मैं?
बड़ा अचरज था, ऐसे में कि हमेशा नए-नए तर्क देने वाली बुद्धि चुप थी। आज परिधि पर मौन छाया था, केवल केन्द्र मुखर था। कुछ ऐसा था जैसे कि मैं ही प्रश्न बन गया था। और तभी अन्तर सत्ता में एक महाविस्फोट हुआ। एक पल में सब परिवर्तित हो गया। प्रश्न समाप्त हो गया, समाधान का स्वर संगीत गूँजने लगा। और तब इस अनुभूति ने जन्म लिया- शब्द में नहीं शून्य में समाधान है। निरुत्तर हो जाने में उत्तर है। सच तो यही है कि समाधि ही समाधान है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १३२
अनुभूति इतनी जरूर हुई कि प्रश्न कहीं केन्द्र पर था, जबकि उत्तर परिधि पर थे। प्रश्न अन्तस में अंकुरित हुआ था, जबकि समाधान बाहर से थोपा हुआ था। इस समझ ने जैसे जीवन में क्रान्ति कर दी। बुद्धि का भ्रम टूट गया। और अन्तर्चेतना में एक नया द्वार खुल गया। यह सब कुछ ऐसा था, जैसे कि अचानक अंधेरे में प्रकाश उतर आया हो। अपनी ही चेतना की गहराइयों में यह अहसास होने लगा कि कोई बीज भूमि को बेधकर प्रकाश के दर्शन के लिए तड़प रहा है। बौद्धिकता का माया जाल ही इसमें मुख्य बाधा है।
इस नयी समझ ने अन्तर्गगन को उजाले से भर दिया। बुद्धि द्वारा थोपे गए उत्तर सूखे पत्तों की तरह झड़ गए। प्रश्न गहराता गया। साक्षी भाव में यह सारी प्रक्रिया चलती रही। परिधि की प्रतिक्रियाएँ झड़ने लगी, केन्द्र का मौन मुखर होने लगा। मैं कौन हूँ? इस प्रश्न प्यास से समग्र व्यक्तित्व तड़प उठा। मैं कौन हूँ? इस प्रश्न के प्रचण्ड झोकों से प्रत्येक श्वास कंपित हो गयी। एक अग्नि ज्वाला की भांति अन्तस की गहराइयों में यह हुंकार गूँज उठा- आखिर कौन हूँ मैं?
बड़ा अचरज था, ऐसे में कि हमेशा नए-नए तर्क देने वाली बुद्धि चुप थी। आज परिधि पर मौन छाया था, केवल केन्द्र मुखर था। कुछ ऐसा था जैसे कि मैं ही प्रश्न बन गया था। और तभी अन्तर सत्ता में एक महाविस्फोट हुआ। एक पल में सब परिवर्तित हो गया। प्रश्न समाप्त हो गया, समाधान का स्वर संगीत गूँजने लगा। और तब इस अनुभूति ने जन्म लिया- शब्द में नहीं शून्य में समाधान है। निरुत्तर हो जाने में उत्तर है। सच तो यही है कि समाधि ही समाधान है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १३२