हृदय में ईर्ष्या का भाव पाल लेने का अर्थ है, अपने अच्छे-खासे जीवन में आग लगा लेना। जंगल में आग लग जाने से जिस प्रकार हरे-भरे पेड़ जलकर राख हो जाते हैं, उसी प्रकार ईर्ष्या का भाव भर जाने से मानव-जीवन भी जल-भुनकर समाप्त हो जाता है। ईर्ष्या से हानि के सिवाय कोई लाभ नहीं। किसी से ईर्ष्या करके मनुष्य उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता है। हाँ अपनी निद्रा, अपना सुख और अपना सुख-सन्तोष अवश्य खो देता है। ऐसे भाव को, जिससे केवल अपनी ही हानि होती रहे, अपने हृदय में जमा लेना किसी प्रकार हित कर नहीं। यह आत्म-घात के समान अबोधता है।
ईर्ष्या की उत्पत्ति दूसरों की उन्नति देखकर होती है। और होती केवल उन्हीं व्यक्तियों को है जो अक्षम और अशक्त होते हैं। वे स्वयं तो कोई उन्नति करने योग्य होते नहीं और न अपनी मानसिक निर्बलता के कारण प्रयत्न ही करते हैं, लेकिन औरों का अभ्युदय देखकर जलने अवश्य लगते हैं। किन्तु इससे किसी का क्या बनता-बिगड़ता है। केवल अपने हृदय में एक ऐसी आग लग जाती है, जो गीली लकड़ी की तरह जीवन को दिन रात सुलगाती रहती है।
संसार में एक से एक अच्छे श्रेष्ठ, सफल और उन्नतिशील व्यक्ति पड़े हैं। एक से एक बढ़कर धनवान, ऐश्वर्यवान और सम्मानित व्यक्ति मौजूद हैं। उनसे यदि व्यर्थ में ईर्ष्या की जाने लगे तो उससे उनका क्या बिगड़ सकता है। किसी की उन्नति किसी के ईर्ष्या अथवा प्रेम पर तो निर्भर होती नहीं। हर आदमी अपने परिश्रम, पुरुषार्थ और प्रयत्न के बल पर आगे बढ़ता और ऊँचे चढ़ता है। यदि कोई व्यक्ति उससे मन ही मन ईर्ष्या करता रहे तो उसका प्रभाव उस पर क्या पड़ सकता है। वह अपनी ओर से जब तक अपने परिश्रम और प्रयत्न को सक्रिय रखेगा, प्रगति के पथ पर बढ़ता जायेगा। उसे न तो किसी की ईर्ष्या रोक सकती है और न द्वेष।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1970