मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

👉 मित्रता क्यों की जाती है?

क्या कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य से इस कारण मित्रता करता हैं कि वह पारस्परिक प्रत्युपकारों से वह लाभ प्राप्त करे जो अकेला रह कर नहीं कर सकता? या मित्रता का बन्धन किसी प्राकृतिक ऐसे उदार नियम से संबंधित हैं जिसके द्वारा एक मनुष्य हृदय दूसरे के हृदय के साथ अधिकाँश में उदारता और निस्वार्थता की भावना के साथ जा जुड़ता हैं?

उपरोक्त प्रश्नों की मीमाँसा करते हुए हमें यह जानना चाहिए कि मित्रता के बन्धन का प्रधान और वास्तविक हेतु प्रेम हैं। कभी कभी यह प्रेम वास्तविक हेतु प्रेम हैं। कभी कभी यह प्रेम वास्तविक न होकर कृत्रिम भी हुआ करता हैं परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि मित्रता का भवन केवल स्वार्थ की ही आधार शिला पर स्थिर हैं।
सच्ची मित्रता में एक प्रकार की ऐसी स्वाभाविक सत्यता हैं जो कृत्रिम और बनावटी स्नेह में कदापि नहीं पाई जा सकती। मेरा तो इसी लिए ऐसा विश्वास हैं कि मित्रता की उत्पत्ति मनुष्य की दरिद्रता पर न होकर किसी हार्दिक और विशेष प्रकार के स्वाभाविक विचार पर निर्भर हैं जिसके द्वारा एक समान मन वाले दो व्यक्ति परस्पर स्वयमेव संबंधित हो जाते हैं।

यह पुनीत आध्यात्मिक स्नेह भावना पशुओं में भी देखी जाती हैं। मातायें क्या अपने बच्चों से किसी प्रकार का बदला चाहने की आशा से प्रेम करती हैं? बेचारे पशु जिनको न तो अपनी दीनता का ज्ञान हैं, न उन्नति की आकाँक्षा हैं और न किसी सुनहरे भविष्य का प्रलोभन हैं भला वे अपने बच्चों से किस प्रत्युपकार की आशा करते होंगे? सच तो यह हैं कि प्रेम करना जीव का एक आत्मिक गुण हैं। यह गुण मनुष्य में अधिक मात्रा में प्रकट होता हैं इसलिए वह मित्रता की ओर आकर्षित होता है।

जिसके आचरण और स्वभाव हमारे समान ही हों अथवा किसी ऐसे मनुष्य को जिसका अन्तःकरण ईमानदारी और नेकी से परिपूर्ण हो, किसी ऐसे मनुष्य को देखते ही हमारा मन उसकी ओर आकर्षित हो जाता हैं। सच तो यह हैं कि मनुष्य के अन्तःकरण पर प्रभाव डालने वाला नेकी के समान और कोई दूसरा पदार्थ नहीं हैं। धर्म का प्रभाव यहाँ तक प्रत्यक्ष हैं कि जिन व्यक्तियों का नाम हमको केवल इतिहासों से ही ज्ञात हैं और उनको गुजरे चिर काल व्यतीत हो गया उनके धार्मिक गुणों से भी हम ऐसे मुग्ध हो जाते हैं कि उनके सुख में सुखी और दुख में दुखी होने लगते हैं।

मित्रता जैसे उदार बन्धन के लिए ऐसा विचार करना कि उसकी उत्पत्ति केवल दीनता पर ही हैं अर्थात् एक मनुष्य दूसरे से मित्रता केवल इसीलिए करता हैं कि वह उससे कुछ लाभ उठाने और अपनी अपूर्णता को उसकी सहायता से पूर्ण करें, मित्रता को अत्यन्त ही तुच्छ और घृणित समझना हैं। यदि यह बात सत्य होती तो वे ही लोग मित्रता जोड़ने में अग्रसर होते जिनमें अधिक अवगुण और अभाव हों परन्तु ऐसे उदाहरण कहीं दिखाई नहीं पड़ते। इनके विपरीत यह देखा गया हैं कि जो व्यक्ति आत्मनिर्भर हैं, सुयोग्य हैं, गुणवान हैं, वे ही दूसरों के साथ प्रेम व्यवहार करने को अधिक प्रवृत्त होते हैं। वे ही अधिकतर उत्तम मित्र सिद्ध होते हैं।

सच तो यह हैं कि परोपकार अपने उत्तम कार्यों का व्यापार करने से घृणा करता हैं और उदार चरित्र व्यक्ति अपनी स्वाभाविक उदारता का आचरण करने दूसरों को सुख पहुँचाने में आनन्द मानते हैं वे बदला पाने के लिए अच्छा व्यवहार नहीं करते। मेरा निश्चित विश्वास हैं कि सच्ची मित्रता लाभ प्राप्त करने की व्यापार बुद्धि से नहीं जुड़ती, वरन् इसलिए जुड़ती हैं कि मित्रभाव के निस्वार्थ बर्ताव से एक प्रकार का जो आध्यात्मिक सुख मिलता हैं वह प्राप्त हो।

✍🏻 दार्शनिक सिसरो
📖 अखण्ड-ज्योति मई 1944 पृष्ठ 10

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👉 निजी प्रयत्न का फल

आध्यात्मिक शास्त्र का यह एक अटल सिद्धान्त है कि जो अपने को जैसा मानता है, उसका बाह्य आचरण भी वैसा ही बनने लगता है। बीज से पौधा उगता है और विचारों से आचरण का निर्माण होता है। जो अपने को दीन, दास, दुखी, दासता मानता है वह वैसा ही बना रहेगा। हमारे देश में दीनता, दद्रिता, दुख, दरिद्रता के विचार फैले और भारतभूमि ठीक वैसी ही बन गई। अपने निवास लोक को जब हम ‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहते थे तब यह दैव लोक थी, जब ‘भव सागर’ कहने लगे तो वह बद्ध कारागार के रूप में हमारे मौजूद है।

यदि आप अपने को नीच पतित मानते हैं तो विश्वास रखिये आप वैसे ही बने रहेंगे कोई भी आपको ऊँचा या पवित्र न बना सकेगा, किन्तु जिस दिन आपके अन्दर से आत्मगौरव की आध्यात्मिक महत्ता की हुँकार उठने लगेगी उसी दिन से आपका जीवन दूसरे ही ढांचे में ढलना शुरू हो जायेगा संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनमें उनके निजी प्रयत्न का ही श्रेय अधिक है। हम मानते कि दूसरों की सहायता से भी उन्नति होती है पर यह सहायता उन्हें ही प्राप्त होती है। जो अपने सहायता खुद करते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/September/v1.9

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...