शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०८)

निर्मल मन को प्राप्त होती है—ऋतम्भरा प्रज्ञा

अन्तःस्थल को निर्मल कर देने वाले अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग चित्त पर अपना प्रभाव डालते हैं। इन प्रयोगों से चित्त की अवस्थाओं में परिवर्तन आते हैं- एक रूपान्तरण की प्रक्रिया घटित होती है। इस प्रक्रिया की तीव्रता के अनुरूप ही परिवर्तित होता है जीवन। चित्त में संस्कार एवं कर्मबीजों की परतों के अनुसार ही जीवन का स्वरूप विकसित होता है। ये विविध संस्कार एवं कर्मबीज काल क्रम में अपनी परिपक्वता के अनुसार ही प्रकट होते हैं। इनके प्रकट होने की अवस्था के अनुरूप ही जीवन की दशा व दिशा बदल जाती है। शुभ संस्कार एवं पुण्य कर्म के प्रकट होने से जहाँ जीवन शुभ व प्रकाश से पूरित होता है, वहीं अशुभ संस्कार एवं पाप कर्म के प्रकट होने से जीवन अशुभ एवं अंधेरे से भर जाता है। योग की वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ- ध्यान के प्रयोग चित्त को उत्तरोत्तर निर्मल बनाते हैं। इससे संस्कारों एवं कर्म बीजों का नाश होने से चित्त आध्यात्मिक ज्योति से ज्योतित होता है व जीवन में आध्यात्मिक वातावरण की सृष्टि होती है।

अन्तस् में आया बदलाव जीवन के समूचे कलेवर एवं परिवेश को बदल देता है। संत कवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि- 
जाको विधि दारुन दुःख देही, ताकी मति पहिले हर लेहीं। 

अर्थात् जिसको विधाता दारुण दुःख देना चाहते हैं, उसकी मति का हरण पहले ही कर लेते हैं। स्थिति उलटी भी है- 
जाको विधि पूरन सुख देहीं, ताकी मति निर्मल कर देहीं
अर्थात् जिसको विधाता पूर्ण सुख देना चाहते हैं, उसकी मति को निर्मल बना देते हैं।
इस निर्मलता के यौगिक महत्त्व को अगले सूत्र में बतलाते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं- 
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा॥ १/४८॥
शब्दार्थ- तत्र= उस समय (योगी की); प्रज्ञा= बुद्धि; ऋतम्भरा= ऋतम्भरा होती है।
भावार्थ- निर्विचार समाधि में प्रज्ञा ऋतम्भरा से सम्पूरित होती है। 

महर्षि पतंजलि अपने योग सूत्रों में योग साधना की जिन उपलब्धियों की चर्चा करते हैं, उनमें यह उपलब्धि विशेष है। प्रज्ञा या बौद्धिक चेतना हमारे जीवन रथ की संचालक है। इसकी अवस्था ही जीवन की दिशा का निर्धारण करती है। सामान्य क्रम में बुद्धि सन्देह, भ्रम की वजह से चंचल रहती है। इस चंचलता की वजह से ही इसकी निर्णय क्षमता एवं विश्लेषण क्षमता पर असर पड़ता है। बौद्धिक दिशाभ्रम के कारणों में पूर्वाग्रहों, स्वार्थपरता एवं हठधर्मिता का भारी हाथ रहता है। इनके कारण बुद्धि में वह समझदारी नहीं पनप पाती, जिसकी आवश्यकता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १८५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Gita Sutra No 5 गीता सूत्र नं० 5

👉 गीता के ये नौ सूत्र याद रखें, जीवन में कभी असफलता नहीं मिलेगी

श्लोक-
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।

अर्थ-
तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।

सूत्र-
श्रीकृष्ण अर्जुन को माध्यम से मनुष्यों को समझाते हैं कि हर मनुष्य को अपने-अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए जैसे- विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्त करना, सैनिक का कर्म है देश की रक्षा करना। जो लोग कर्म नहीं करते, उनसे श्रेष्ठ वे लोग होते हैं जो अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, क्योंकि बिना कर्म किए तो शरीर का पालन-पोषण करना भी संभव नहीं है। जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है, उसे वो पूरा करना ही चाहिए।

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