शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2017

👉 मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान (अमृतवाणी भाग 2)

🔴 देवता क्या देते हैं? देवता हजम करने की ताकत देते हैं। जो दुनियाबी दौलत या जिन चीजों को आप माँगते हैं जो आपको खुशी का बायस मालूम पड़ती हैं, उन सारी चीजों को हजम करने के लिए विशेषता होनी चाहिए। इसी का नाम है—देवत्व। देवत्व अगर प्राप्त हो जाता है, तो फिर आप दुनिया की हर चीज से, थोड़ी-से थोड़ी चीजों से लेकर फायदा उठा सकते हैं। अगर वे न भी हो तो काम चल सकता है। ज्यादा चीजें हो जाएँ तो भी अच्छा है, यदि न हो जाएँ तो भी कोई हर्ज नहीं है। लेकिन अगर आप इस बात के लिए उतावले हैं कि जैसे भी पिछड़े हैं वैसे ही बने रहें, तो फिर कुछ कहना सम्भव नहीं है।
  
🔵 मनुष्य के शरीर में ताकत होनी चाहिए लेकिन समझदारी का नियन्त्रण न होने से आग में घी डालने, ईंधन डालने के तरीके से वह सिर्फ दुनिया में मुसीबतें पैदा करेगी। देवता किसी को दौलत देने की गलती नहीं कर सकते। अगर देते हैं तो इसका मतलब है कि तबाही कर रहे हैं। इनसानियत उस चीज का नाम है, जिसमें आदमी का चिन्तन, दृष्टिकोण, महत्त्वाकांक्षाएँ और गतिविधियाँ ऊँचे स्तर की हो जाती है। इनसानियत एक बड़ी चीज है।

🔴 मनोकामनाएँ पूरी करना खराब बात नहीं है, पर शर्त एक ही है कि यह किस काम के लिए, किस चीज के लिए माँगी गई हैं? अगर सांसारिकता के लिए माँगी गई हैं तो उससे पहले यह जानना जरूरी है कि उस दौलत को हजम कैसे कर सकते हैं? उसे खर्च कैसे कर सकते हैं? मनुष्य भूल कर सकता है, पर देवता भूल नहीं कर सकते। देवता आपको चीजें नहीं दे सकते जैसा कि मेरा अपना ख्याल है। देवताओं के सम्पर्क में आने वाले को भौतिक वस्तुएँ नहीं मिलीं। क्या मिला है? आदमी को गुण मिले हैं, देवत्व मिला है।

🔵 सद्गुणों के आधार पर आदमी को विकास करने का मौका मिला है। गुणों के विकसित होने के पश्चात् उन्होंने वह काम किए हैं, जिन्हें सामान्य मनुष्य सामान्य बुद्धि से काम करते हुए नहीं कर सकता। देवत्व के विकसित होने पर कोई भी उन्नति के शिखर पर जा पहुँचा सकता है, चाहे वह सांसारिक हो अथवा आध्यात्मिक। संसार और अध्यात्म में कोई फर्क नहीं पड़ता। गुणों के इस्तेमाल करने का तरीका भर है। गुण अपने आप में शक्ति के पुंज हैं, कर्म अपने आप में शक्ति के पुंज हैं और स्वभाव अपने आप में शक्ति के पुंज हैं। इन्हें कहाँ इस्तेमाल करना चाहते हैं, यह आपकी इच्छा की बात है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्मचिंतन के क्षण 6 Oct 2017

🔵 आत्मदर्शन का अर्थ है अन्तःकरण में पवित्रता और प्रखरता का समुचित सम्वर्धन। दर्पण पर धूलि जमी हो या उसके भीतर का रंग उतर गया हो तो फिर उसमें मुख दीख पड़ने का सुयोग न बनेगा। जिसने अपने अन्तःक्षेत्र को टटोला नहीं है, उसे धोया संजोया नहीं है, उसके लिये यह कठिन है कि उस गॅदले क्षेत्र में ईश्वर का आगमन अवतरण या दिव्य-दर्शन की आशा करे। वस्तुतः आत्मशोधन ही प्रभुदर्शन का एक मात्र उपाय है।

🔴 सिंह जब शिकार पर आक्रमण करता है, तो एक क्षण ठहरकर हमला करता है। धनुष पर बाण को चढ़ाकर जब छोड़ा जाता है तो यत्किंचित् रुककर तब बाण छोड़ा जाता है। बन्दूक का घोड़ा दबाने से पहले जरा-सी देर शरीर को साध कर स्थिर कर लिया जाता है, ताकि निशाना ठीक बैठे। इसी प्रकार अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिये पर्याप्त मात्रा में आत्मिक बल एकत्रित करने के लिये कुछ समय आन्तरिक शक्तियों को फुलाया और विकसित किया जाता है, इसी प्रक्रिया का नाम ‘पुरश्चरण ’ है।

🔵 चोर, उचक्के, व्यसनी, जुआरी भी अपनी बिरादरी निरंतर बढ़ाते रहते हैं । इसका एक ही कारण है कि उनका चरित्र और चिंतन एक होता है। दोनों के मिलन पर ही प्रभावोत्पादक शक्ति का उद्भव होता है। किंतु आदर्शों के क्षेत्र में यही सबसे बड़ी कमी है।

🔴 जिस प्रकार कर्त्तव्यशील पुलिस, न्यायाधीश अथवा राजा को सामने खड़ा देखकर कोई पक्का चोर भी चेारी करने या कानून तोड़ने का साहस नहीं कर सकता। इसी प्रकार जिस व्यक्ति के मन में यह भावना दृढ़तापूर्वक समाई हुई है कि परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है और हजार आँखों से उसके हर विचार और कार्य को देख रहा है तो उसकी यह हिम्मत नहीं हो सकती कि कोई पाप गुप्त या प्रकट रूप से करे।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जीवन की सफलता का रहस्य (भाग 4)

🔴 अतः, हमें ऐसा नियम बना लेना चाहिये कि हम जो कुछ भी दें उसको पुनः प्राप्त करने की आशा से न दें और न उसे माँगे ही। नदी जब तक बहती रहती है एवं अपना जल समुद्र में उड़ेलती रहती है तभी तक उसमें बाहर से जल आता रहता है किन्तु जिस क्षण वह समुद्र को जल देना बन्द कर देती है। उसी क्षण उसमें बाहर से जल का आगमन रुक जाता है। जब तक आप देते रहोगे, जब तक बाहर निकालते रहोगे तब तक आपके पास संचय होता रहेगा।

🔵 अतः भिक्षुक न बनो, देने में कृपणता न करो। इसी का लोग ख्याल नहीं करते। कठिनाइयों का पहिले से ही ध्यान रखना चाहिये। और हम रख भी सकते हैं। यह तो बहुत ही सरल कार्य है फिर भी अपनी ही भूल से हम गड्ढे में गिरते हैं। प्रकृति हमें घूँसे का जवाब घूँसे से, लात का लात से और थप्पड़ का थप्पड़ से देने के लिये प्रेरित करती है किन्तु बुद्धिमानी यही है कि हम मौन रहें, अनासक्त रहें, निर्विकार रहें। अपने पर नियन्त्रण रखें।

🔴 कठिनाइयाँ तो बहुत पड़ती हैं इसमें सन्देह नहीं। और इन्हीं के द्वारा हमारा साहस, उत्साह, भंग हो जाता है। किसी के कटु शब्द कह देने पर हमसे निर्विकार शान्त, मौन नहीं रहा जाता। असाधारण स्थिति में मनुष्य और भी भूल करता है, उद्विग्न हो जाता है, किन्तु उस असाधारण स्थिति के पार जाना ही वीरता है। इनसे पार जाने पर, इनसे छुटकारा पाने पर ही वास्तविक सुधार सम्भव है। इसके लिये अपेक्षा है आध्यात्मिक बल की, आध्यात्मिक शक्ति की। इन सब बन्धनों से, दुर्बलताओं से, मायाजाल से छुटकारा प्राप्त करने के लिये हमें, चाहे कितने ही कष्टों का सामना करना पड़े, अपने मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिये। वरन् विघ्न-बाधाओं के, कठिनाईयों के आने पर अविचल भाव से उनका सामना करना चाहिये और उसी समय अपनी तत्परता का, शान्ति का, अनासक्ति का परिचय देना चाहिये।

🔵 यह कार्य कठिन है तो अवश्य किन्तु अभ्यास से क्या नहीं हो सकता। हमें अपनी भावना ही ऐसी बना लेनी चाहिये कि चाहे कुछ भी हो हमारे ऊपर उसका प्रभाव नहीं पड़ सकता। यदि हम अपनी अहंमन्यता को मिटा सकें तो हमारे लिये सब कुछ सम्भव है। यदि हम अपने अन्दर यह विचार बैठा रखें कि दुःख और मुसीबतें अकस्मात् और असम्भावित रूप से नहीं आतीं वरन् वे अनिवार्य हैं, हमारे पूर्व कर्मों के फल अच्छे या बुरे हमें अवश्य मिलेंगे, तो फिर हम निश्चिन्त रहेंगे। हमें कोई परेशानी न होगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 स्वामी विवेकानन्द
🌹 अखण्ड ज्योति- जुलाई 1950 पृष्ठ 8

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