सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

👉 क्षमा, क्षांति

क्षमा आत्मा का नैसर्गिक गुण है. यह आत्मा का स्वभाव है. जब हम विकारों से ग्रस्त हो जाते है तो स्वभाव से विभाव में चले जाते है. यह विभाव क्रोध, भय, द्वेष, एवं घृणा के विकार रूप में प्रकट होते है. जब इन विकारों को परास्त किया जाता है तो हमारी आत्मा में क्षमा का शांत झरना बहने लगता है।

क्रोध से क्रोध ही प्रज्वल्लित होता है. क्षमा के स्वभाव को आवृत करने वाले क्रोध को, पहले जीतना आवश्यक है. अक्रोध से क्रोध जीता जाता है. क्योंकि क्रोध का अभाव ही क्षमा है. अतः क्रोध को धैर्य एवं विवेक से उपशांत करके, क्षमा के स्वधर्म को प्राप्त करना चाहिए. बडा व्यक्ति या बडे दिल वाला कौन कहलाता है? वह जो सहन करना जानता है, जो क्षमा करना जानता है. क्षांति जो आत्मा का प्रथम और प्रधान धर्म है. क्षमा के लिए ”क्षांति” शब्द अधिक उपयुक्त है. क्षांति शब्द में क्षमा सहित सहिष्णुता, धैर्य, और तितिक्षा अंतर्निहित है।

क्षमा में लेश मात्र भी कायरता नहीं है. सहिष्णुता, समता, सहनशीलता, मैत्रीभाव व उदारता जैसे सामर्थ्य युक्त गुण, पुरूषार्थ हीन या अधैर्यवान लोगों में उत्पन्न नहीं हो सकते. निश्चित ही इन गुणों को पाने में अक्षम लोग ही प्रायः क्षमा को कायरता बताने का प्रयास करते है. यह अधीरों का, कठिन पुरूषार्थ से बचने का उपक्रम होता है. जबकि क्षमा व्यक्तित्व में तेजस्विता उत्पन्न करता है. वस्तुतः आत्मा के मूल स्वभाव क्षमा पर छाये हुए क्रोध के आवरण को अनावृत करने के लिए, दृढ पुरूषार्थ, वीरता, निर्भयता, साहस, उदारता और दृढ मनोबल चाहिए, इसीलिए “क्षमा वीरस्य भूषणम्” कहा जाता है।

दान करने के लिए धन खर्चना पडता है, तप करने के लिए काया को कष्ट देना पडता है, ज्ञान पाने के लिए बुद्धि को कसना पडता है. किंतु क्षमा करने के लिए न धन-खर्च, न काय-कष्ट, न बुद्धि-श्रम लगता है. फिर भी क्षमा जैसे कठिन पुरूषार्थ युक्त गुण का आरोहण हो जाता है।

क्षमा ही दुखों से मुक्ति का द्वार है. क्षमा मन की कुंठित गांठों को खोलती है. और दया, सहिष्णुता, उदारता, संयम व संतोष की प्रवृतियों को विकसित करती है। क्षमापना से निम्न गुणों की प्राप्ति होती है-

◼ चित्त में आह्लाद– मन वचन काय के योग से किए गए अपराधों की क्षमा माँगने से मन और आत्मा का बोझ हल्का हो जाता है. क्योंकि क्षमायाचना करना उदात्त भाव है. क्षमायाचक अपराध बोध से मुक्त हो जाता है परिणाम स्वरूप उसका चित्त प्रफुल्ल हो जाता है।

◼ मैत्रीभाव- क्षमापना में चित्त की निर्मलता ही आधारभूत है. क्षमायाचना से वैरभाव समाप्त होकर मैत्री भाव का उदय होता है. “आत्मवत् सर्वभूतेषु” का सद्भाव ही मैत्रीभाव की आधारभूमि है।

◼ भावविशुद्धि– क्षमापना से विपरित भाव- क्रोध,वैर, कटुता, ईर्ष्या आदि समाप्त होते है और शुद्ध भाव सहिष्णुता, तितिक्षा, आत्मसंतोष, उदारता, करूणा, स्नेह, दया आदि उद्भूत होते है. क्रोध का वैकारिक विभाव हटते ही क्षमा का शुद्ध भाव अस्तित्व में आ जाता है।

◼ निर्भयता– क्रोध, बैर, ईर्ष्या और प्रतिशोध में जीते हुए व्यक्ति भयग्रस्त ही रहता है. किंतु क्रोध निग्रह के बाद सहिष्णुता और क्षमाशीलता से व्यक्ति निर्भय हो जाता है. स्वयं तो अभय होता ही है साथ ही अपने सम्पर्क में आने वाले समस्त सत्व भूत प्राणियों और लोगों को अभय प्रदान करता है।

◼ द्विपक्षीय शुभ आत्म परिणाम– क्रोध शमन और क्षमाभाव के संधान से द्विपक्षीय शुभ आत्मपरिणाम होते है. क्षमा से सामने वाला व्यक्ति भी निर्वेरता प्राप्त कर मैत्रीभाव का अनुभव करता है. प्रतिक्रिया में स्वयं भी क्षमा प्रदान कर हल्का महसुस करते हुए निर्भय महसुस करता है. क्षमायाचक साहसपूर्वक क्षमा करके अपने हृदय में निर्मलता, निश्चिंतता, निर्भयता और सहृदयता अनुभव करता है. अतः क्षमा करने वाले और प्राप्त करने वाले दोनो पक्षों को सौहार्द युक्त शांति का भाव स्थापित होता है।

क्षमाभाव मानवता के लिए वरदान है. जगत में शांति सौहार्द सहिष्णुता सहनशीलता और समता को प्रसारित करने का अमोघ उपाय है।

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👉 मन निर्मल तो दु:ख काहे को होय

इस जगत में व्याप्त हर प्राणी अपने आपको सुखी रखने का प्रयास करते हैं, लेकिन प्रयास व्यर्थ हो जाता है। जब तक हम अपने चंचल मन को वश में नहीं कर लेते तब तक हम सुख की अनुभूति नहीं प्राप्त कर सकते। सुख प्राय: दो तरह के होते हैं, दिव्यानुभूति सुख और आत्मिक सुख। आत्मिक सुख को हम भौतिक सुख के सन्निकट रख सकते हैं। दिव्यानुभूति सुख के लिए इस सांसारिक जगत के मोह से ऊपर उठना होता है, लेकिन भौतिक सुख के लिए मन का संतुलित होना आवश्यक है। खुशी सुखी मन का संवाहक होती है। एक संतुलित मन हमेशा प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है, जो सुख का कारण बनता है। अपने आपको खुश रखने की कोशिश करने वाला इंसान अपने कर्तव्यों और दायित्वों से बंधा होता है। लेकिन, जो इंसान अपने मन को वश में नहीं रखता, वह परिस्थिति में विचलित हो जाता है और विचलित मन खुशी की अनुभूति नहीं कर सकता।

मन को संतुलित रखने के लिए जीवन में नित्य अभ्यास की जरूरत होती है। अपने मन को कभी-कभी हम इतना भारी कर लेते हैं कि घुटन-सी होने लगती है। प्राकृतिक गुणों के हिसाब से हल्की चीजें सदैव ऊपर होती हैं। जब मन हल्का होने लगता है, तब वह धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठ जाता है और मन स्वच्छ एवं निर्मल प्रतीत होने लगता है। निर्मल मन वाला व्यक्ति हर चीज की बारीकियों को इसी तरह समझने लगता है। उसके बाद वह संसार के द्वंद्व से मुक्त हो जाता है और सुख का आभास करने लगता है।

कभी-कभी बहुत आगे की सोच हमें भयाक्रांत कर देती है। इस क्षणभंगुर दुनिया में जो भी घटता है वह परमात्मा की इच्छानुरूप घटित होता है। इसलिए स्वयं को निमित्तमात्र समझकर अपने कर्त्तव्य-पथ पर चलकर इस सुख का अनुभव कर सकते हैं। भविष्य हमारे हाथ में नहीं होता। रात्रिकाल के बाद सुबह का सूर्य देखना भी परमात्मा के निर्देशानुसार होता है। प्रलय, तूफान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं और आतंकवादी हमलों जैसी मानवकृत घटनाएं इस बात की ओर इशारा करती हैं कि किसी भी पल कुछ भी हो सकता है। मनुष्य चाहे जो करे, लेकिन इन घटनाओं के सामने नि:सहाय हो जाता है। इसलिए सिर्फ अपने कत्र्तव्यों का निर्वाह करते रहना चाहिए।

अपने जीवन को सुखद बनाने के लिए सबसे पहले अपने आस-पड़ोस के लोगों को सुखी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। आचरण से ही वातावरण का निर्माण होता है। दूसरों को खुशी देकर हम अपनी खुशी को भी कई गुणा बढ़ा लेते हैं। सांसारिक लिप्ता में लिप्त व्यक्तियों के लिए दूसरों की खुशी उसके स्वयं के दुखी होने का कारण बन जाती है। एक  सुंदर कोठी में रहने वाली और स्वयं एक अच्छी नौकरी करने वाली महिला, एक कामवाली को प्रतिदिन ध्यान से देखा करती थी। उस महिला को प्रतिदिन उसका पति छोडऩे के लिए और काम समाप्त होने के बाद उसे लेने के लिए आता था। इसे देखकर कोठी वाली महिला बहुत व्यथित रहती थी। उसे इस बात का दु:ख था कि एक काम करने वाली महिला भी उससे अधिक खुश है। वह सोचती रहती थी इतना धन होने के बावजूद उसके पति के पास उसके लिए समय नहीं है। इस धन-संपदा का क्या अर्थ है, जब अपने पति के साथ अधिकांश समय नहीं गुजार सकती। इस बात को लेकर वह महिला अपने पति के साथ अक्सर झगड़ा करने लगी। एक दिन महिला ने देखा कि काम करने वाली महिला का हाथ टूटा हुआ है। वह अचंभित हुई। दूसरे लोगों से ज्ञात हुआ कि कामवाली महिला का पति उस पर बहुत अत्याचार करता था। उसके पति को डर था कि इसके कारण उसकी पत्नी उसे छोड़कर न चली जाए, इसलिए वह सुबह-शाम उसे लेकर आता और लेकर जाता था। सत्य को जानकर महिला को बहुत पश्चताप हुआ।

कभी-कभी हम दूसरों को देखकर अपनी स्थिति की तुलना उसके साथ करने लगते हैं। यह भी दुख का कारण बनता है। दरअसल सुख और दुख हमारे मन के ही अंदर होते हैं। सच्चे मन से और दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक मिलकर परिश्रम करने वाले इंसान के पास कभी दु:ख पहुंच ही नहीं सकता।

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👉 अपने वचन का पालन करिए!

आत्म-सम्मान को प्राप्त करने और उसे सुरक्षित रखने का एक ही मार्ग है, वह यह कि-’ईमानदारी’ को जीवन की सर्वोपरि नीति बना लिया जाये। आप जो भी काम करें, उसमें सच्चाई की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए, लोगों को जैसा विश्वास दिलाते हैं, उस विश्वास की रक्षा कीजिए। विश्वासघात, दगा करना, वचन पलटना, कुछ कहना और कुछ करना, मानवता का सबसे बड़ा पातक है।

आजकल वचन पलटना एक फैशन सा बनता जा रहा है। इसे हलके दर्जे का पाप समझा जाता है पर वस्तुतः अपने वचन का पालन न करना, जो विश्वास दिलाया है उसे पूरा न करना बहुत ही भयानक, सामाजिक पाप है। धर्म-आचरण की अ, आ, इ, ई, वचन पालन से आरंभ होती है। यह प्रथम कड़ी है जिस पर पैर रखकर ही कोई मनुष्य धर्म की ओर, आध्यात्मिकता की ओर, बढ़ सकता है।

आप जबान से कहकर या बिना जबान से कहे या किसी अन्य प्रकार दूसरों को जो कुछ विश्वास देते हैं, उसे पूरा करने का शक्ति भर प्रयत्न कीजिए, यह मनुष्यता का प्रथम लक्षण है। जिसमें यह गुण नहीं, सच्चे अर्थों में मनुष्य नहीं कहा जा सकता और न उसे वह सम्मान प्राप्त हो सकता है जो एक सच्चे मनुष्य को होना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1943 पृष्ठ 1

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/October/v1.1

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...