रविवार, 11 दिसंबर 2016
👉 सतयुग की वापसी (भाग 7) 12 Dec
🌹 विभीषिकाओं के पीछे झाँकती यथार्थता
🔴 यही है अपने समय के मनुष्य का तात्त्विक पर्यवेक्षण। मूर्खता को कहने-सुनने में तो उपहासास्पद बताया जाता है पर वस्तुत: वह इतनी प्रबल एवं आतुर होती है कि उसके आवेश को रोक सकना अच्छे-अच्छों के लिए भी कठिन हो जाता है। यह उन्माद जब सामूहिकता के साथ जुड़ जाता है तो फिर स्थिति उस विशालकाय पागलखाने जैसी हो जाती है, जिसमें रोगी एक-दूसरे को उकसाने, भड़काने, गिराने, सताने जैसी विडम्बनाओं में ही लगे रहते हैं। वे सभी मात्र हानि ही हानि उठाते हैं।
🔵 गीताकार ने सच कहा है कि जब दुनिया सोती है, तब योगी जागते हैं। यह अनबूझ पहेली तभी प्रामाणिक सिद्ध हो सकती है, जब यह सोचा जाए कि असंख्यों अवांछनीयताओं की लहरें उठाते चलने वाले प्रस्तुत प्रवाह के साथ-साथ बढ़ते रहने की अपेक्षा कोई आश्रय दे सकने वाला किनारा खोजा जाए। प्रचलनों से हटकर नए तौर-तरीके अपनाकर, यथार्थता का आश्रय लेने वाली उमंग उमगे, अन्यथा अच्छे-भले नदी-नालों वाली जल सम्पदा, खारे समुद्र में गिरकर अपेय ही बनती चली जाएगी
🔴 वर्तमान में तो सर्वत्र कुहासा छाया दीखता है। पतझड़ की तरह सर्वत्र ठूँठों ही ठूँठों का जमघट दीख पड़ता है। पतन और पराभव का नगाड़ा बजता सुनाई देता है। भविष्य अन्धकारमय प्रतीत होता है और लगता है कि मनुष्य समुदाय अब सामूहिक आत्महत्या करने पर ही उतारू आवेश से बुरी तरह ग्रसित हो रहा है। चूहों और खरगोशों की संख्या जब असाधारण रूप से बढ़ जाती है और उनके लिए खाने, पीने, रहने कि लिए सहारा शेष नहीं रहता, तो वे किसी बड़े जलाशय में डूब मरने के लिए बेतहाशा दौड़ लगाते देखे जाते हैं। चल रही गतिविधियों की समीक्षा करने पर लगता है मानो एक ऐसा तूफान उभर रहा है कि मानवी सत्ता, महत्ता, सम्पदा और प्रगति जैसे संचय में से कुछ भी उनकी चपेट से बचकर रह नहीं सकेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 यही है अपने समय के मनुष्य का तात्त्विक पर्यवेक्षण। मूर्खता को कहने-सुनने में तो उपहासास्पद बताया जाता है पर वस्तुत: वह इतनी प्रबल एवं आतुर होती है कि उसके आवेश को रोक सकना अच्छे-अच्छों के लिए भी कठिन हो जाता है। यह उन्माद जब सामूहिकता के साथ जुड़ जाता है तो फिर स्थिति उस विशालकाय पागलखाने जैसी हो जाती है, जिसमें रोगी एक-दूसरे को उकसाने, भड़काने, गिराने, सताने जैसी विडम्बनाओं में ही लगे रहते हैं। वे सभी मात्र हानि ही हानि उठाते हैं।
🔵 गीताकार ने सच कहा है कि जब दुनिया सोती है, तब योगी जागते हैं। यह अनबूझ पहेली तभी प्रामाणिक सिद्ध हो सकती है, जब यह सोचा जाए कि असंख्यों अवांछनीयताओं की लहरें उठाते चलने वाले प्रस्तुत प्रवाह के साथ-साथ बढ़ते रहने की अपेक्षा कोई आश्रय दे सकने वाला किनारा खोजा जाए। प्रचलनों से हटकर नए तौर-तरीके अपनाकर, यथार्थता का आश्रय लेने वाली उमंग उमगे, अन्यथा अच्छे-भले नदी-नालों वाली जल सम्पदा, खारे समुद्र में गिरकर अपेय ही बनती चली जाएगी
🔴 वर्तमान में तो सर्वत्र कुहासा छाया दीखता है। पतझड़ की तरह सर्वत्र ठूँठों ही ठूँठों का जमघट दीख पड़ता है। पतन और पराभव का नगाड़ा बजता सुनाई देता है। भविष्य अन्धकारमय प्रतीत होता है और लगता है कि मनुष्य समुदाय अब सामूहिक आत्महत्या करने पर ही उतारू आवेश से बुरी तरह ग्रसित हो रहा है। चूहों और खरगोशों की संख्या जब असाधारण रूप से बढ़ जाती है और उनके लिए खाने, पीने, रहने कि लिए सहारा शेष नहीं रहता, तो वे किसी बड़े जलाशय में डूब मरने के लिए बेतहाशा दौड़ लगाते देखे जाते हैं। चल रही गतिविधियों की समीक्षा करने पर लगता है मानो एक ऐसा तूफान उभर रहा है कि मानवी सत्ता, महत्ता, सम्पदा और प्रगति जैसे संचय में से कुछ भी उनकी चपेट से बचकर रह नहीं सकेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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