मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

👉 आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 10

मित्रो! मेरी माला के हर मोती में मेरा राम बैठा हुआ है। उसके हर मनके को मैं घुमाता रहता हूँ और अपने मन की विचारणा को बनाता रहता हूँ। अपने मन के पहिए को घुमाता रहता हूँ और कहता रहता हूँ कि रे मन के पहिए। लौट, सारे संसार का प्रवाह इस तरह से उलटा पुलटा बह रहा है। मुझे माला वाले प्रवाह की ओर लौट जाने दें। मुझे अपना रास्ता बनाने दे। मुझे अपने ढंग से विचार करने दें और मुझे वहाँ चलने दें, जहाँ मेरा प्रियतम मुझे आज्ञा देता है। इसीलिए पूजा के सारे के सारे उपक्रम मेरे सामने खड़े हो जाते हैं।

 हैं तो वे निर्जीव, पर बड़ा अद्भुत शिक्षण करते हैं। मेरे सामने बहुत उपदेश करते हैं। वे सात ऋषियों के तरीके से बैठे रहते हैं। पत्थर का भगवान् बैठा रहता है, मुस्कराता रहता है। मेरे सामने कागज की तस्वीर वाला भगवान् बैठा रहता है और जाने क्या क्या सिखाता रहता है और यह भगवान्! जिसका पूजन करने के लिए हमने फूल रख लिये थे, चंदन रख लिया था, चावल रख लिये थे, रोली रख ली थी, उनको भी मैं देखता रहता हूँ, जाने कैसी कैसी भावनायें आती रहती हैं। 

मित्रो! एक हल्दी का टुकड़ा और एक चूने का टुकड़ा है। चूने का टुकड़ा अगर खा लिया जाये तो दिमाग फट जाये और हल्दी? हल्दी, जो साग, दाल में काम आती है, कपड़े में लगा ले, तो वह खराब हो जाये। लेकिन हल्दी और चूने को मिला देते हैं तो रोली बन जाती है। रंग बदल जाता है। मैं विचार करता रहता हूँ कि चूने जैसे निकम्मे प्राण को अपने प्रियतम की हल्दी के साथ घुला मिला दें, ताकि वह रोली बन जाये। और वह रोली भगवान के ऊपर लगा लूँ और अपने ऊपर लगा लूँ, तो मैं धन्य हो जाऊँगा। निहाल हो जाऊँगा। श्री कहलाऊँगा ‘‘श्री’’ कहते हैं रोली को। चूना और हल्दी मिलकर श्री बन जाते हैं, पवित्र लक्ष्मी बन जाते हैं। उसे हम देवता पर चढ़ाते हैं।

 क्रमशः जारी
 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 मातृत्व का सम्यक् बोध ही नवरात्रि का मूल (भाग 3)

आरती का मतलब होता है श्रद्धास्पद का, पूज्य का, देवी माँ का, भगवान् का दुःख बाँटना। उसकी पीड़ा को अपने माथे पर लेना। उनका भार हल्का कर देना। अपने भिखारीपन को भुलाकर उनकी सेवा में अर्पित होना। उनके साथ अपनी एकात्मता की अनुभूति एवं प्रतीति पाना कि जैसे हम दुःखी-पीड़ित होते हैं, थकते हैं, वैसे ही माँ भी थकती होगी। उसे भूख सताती होगी। इसलिए उनका कष्ट अपने माथे पर लेने के लिए आरती उतारी जाती है। दीपों की लहराती जगमग ज्योति के बीच यह भाव व्यक्त किया जाता है कि ‘मैं प्रस्तुत हूँ माँ। जो तू चाहेगी, कहेगी, वही करूंगा।’ लेकिन हम हैं कि उनसे माँगते ही रहते हैं, उनको सताते ही चले जाते हैं।

माँ मुझे धन दो, यश दो, सन्तान दो, क्या नहीं माँगते। मजे की बात तो यह है कि हमारे पास माँ से माँगने के लिए समय है, उसके पास बैठने के लिए समय नहीं है। इसके लिए बहुत हुआ तो किसी पण्डित, पुजारी को नौकर रख लेंगे। ठीक किसी कुपुत्र या कुपुत्री की तरह, जो अपनी माँ की सेवा न करके, इसके लिए किसी नर्स को रख देती है। भला नर्स की नौकरी और सन्तान की सेवा का सुख या परिणाम क्या समान हो सकता है?

नवरात्रि के दिनों में देश तो मातृमय हो रहा है, हम मन्दिरों और घरों में जुट भी रहे हैं। लेकिन उस परमानन्द के आदिस्रोत से नहीं जुड़ पा रहे, जहाँ से जीवन मिलता और चलता है। कहाँ है मेलों में मिलन का मूलभाव? किधर है विलग के विलीन होने की स्थिति? हमारे अपने-अपने अहं की दीवारें तो यथावत है। माँ को वाणी से तो माँ कह रहे हैं, जोर-जोर से कह रहे हैं, लेकिन हृदय से उसे माँ मान नहीं पा रहे। लगता है कि हम सिर्फ प्रतीक की परिक्रमा, पूजा एवं कर्मकाण्ड तक ही ठहर गए हैं। हम प्रतीति, प्रीति, श्रद्धा, संवेदना, प्रेम एवं माँ के चरणों में अनुराग की एक सच्ची सन्तान की भाँति निष्कपट हो जी नहीं पा रहे। अगर ऐसा होता तो हमारी यह नवरात्रि लोक परम्परा एवं लोक व्यवहार की लीक न रहकर माँ की अलौकिक प्रभा से जगमग कर रही होती। हमारे जीवनों में माँ का दिव्य ज्योति अवतरण हो रहा होता।

कहीं ऐसा तो नहीं कि पिछले वर्ष की ही भाँति हम इस वर्ष की नवरात्रि में फिर से चूक रहे हैं। हम माँ के होकर भी माँ के बन नहीं पा रहे। हम केवल रोटी बनकर उसके सामने माथा नवाते हैं। सुख-साधन, दाम, दुकान की कामना का दम्भ लेकर माँ के पास आते हैं। और यह जबरदस्ती करते हैं कि हम जो चाहते हैं, वह तो तुम्हें देना ही पड़ेगा। हाँ हमें तुम्हारे दुःख से कोई सरोकार नहीं रहा। रोज-मर्रा की तरह नवरात्रि के दिनों में भी हम यह नहीं जान पा रहे कि माँ हमसे यह चाहती है कि हम सब उसकी सन्तानें मिल-जुलकर, एक मन और एक प्राण होकर रहें।

अखण्ड ज्योति- अप्रैल 2002 पृष्ठ 12


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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