शनिवार, 2 मार्च 2019

👉 आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान शिव (भाग 2)

शिव के स्वरूप, अलंकार और जीवन सम्बन्धी घटनाओं का और भी विशद् वर्णन मिलता है। ऐसे प्रत्येक प्रसंग में या तो किसी दार्शनिक तत्व का विवेचन सन्निहित है अथवा व्यावहारिक आचरण की शिक्षा दी गई है। आइये, इन पर एक-एक करके विचार किया जाये—

(1) शिव का स्वरूप— भगवान् शंकर के स्वरूप में जो विचित्रतायें हैं वह किसी मनुष्य की देह में सम्भव नहीं इसलिए उसकी सत्यता संदिग्ध मानी जाती है। पर हमें यह जानना चाहिये कि यह चित्रण सामान्य नहीं, अलंकार है जो मनुष्यों में योग-साधनाओं के आधार पर जागृत होते हैं।

(2) माथे पर चन्द्रमा— चन्द्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है अर्थात् योगी का मन सदैव चन्द्रमा की भांति उत्फुल्ल, चन्द्रमा की भांति खिला निःशंक होता है। चन्द्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है अर्थात् उसे जीवन की अनेक गहन परिस्थितियों में रहते हुए भी किसी प्रकार का विभ्रम अथवा ऊहापोह नहीं होता। वह प्रत्येक अवस्था में प्रमुदित रहता है, विषमताओं का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

(3) नीलकंठ— पुराणों में ऐसी कथा आती है कि देवों और दानवों का रक्तपात बचाने के लिए भगवान शंकर ने विष पी लिया था और तब से इनका कंठ नीला है अर्थात् इन्होंने विष को कंठ में धारण किया हुआ है। इस कथानक का भी सीधा साधा सम्बन्ध योग की सिद्धि से ही है। योगी पुरुष अपने सूक्ष्म शरीर पर अधिकार पा लेता है, जिससे उसके स्थूल शरीर पर बड़े तीक्ष्ण विषों का भी प्रभाव नहीं होता। उन्हें भी वह सामान्य मानकर ही पचा लेता है। यह बात इस तरह भी है कि संसार के मान अपमान, कटुता-क्लेश आदि दुख-कष्टों का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। उन्हें भी वह साधारण घटनायें मानकर आत्मसात् कर लेता है और संसार का कल्याण करने की अपनी आत्मिक वृत्ति में निश्चल भाव से लगा रहता है। दूसरे व्यक्तियों की तरह लोकोपकार करते समय उसे स्वार्थ आदि का कोई ध्यान नहीं होता। वह निर्विकार भावना की भलाई में जुटा रहता है। खुद विष पीता है पर औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है।
(4) विभूति रमाना— शिव ने सारे शरीर पर भस्म रमा रखी है। योग की पूर्णता पर संयम सिद्धि होती है। योगी अपने वीर्य को शरीर में रमा लेते हैं जिससे उसका सौन्दर्य फूट पड़ता है। इस सौन्दर्य को भस्म के द्वारा अपने आप में रमा लेता है। उसे बाह्य अलंकारों द्वारा सौन्दर्य बढ़ाने की आवश्यकता नहीं रहती। अक्षुण्ण संयम ही उसका अलंकार बन गया है, जिससे उसका स्वास्थ्य और शरीर सब कांतियुक्त हो गये हैं।
(5) तृतीय नेत्र— योग की भाषा में इसे नेत्रोन्मीलन या आज्ञा-चक्र का जागरण भी कहते हैं। उसका सम्बन्ध गहन आध्यात्मिक जीवन से है। घटना प्रसंग जुड़ा हुआ है कि शिवजी ने एक बार तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भी जला दिया था योगी का यह तीसरा नेत्र यथार्थ ही बड़ा महत्व रखता है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जागृत रहता है, पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि कामवासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं कर पाते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है। इसे वैज्ञानिक बुद्धि का प्रतिनिधि भी कहा जा सकता है। पर सबका तात्पर्य यही है कि तृतीय नेत्र होना साधारण क्षमता से उठाकर विशिष्ट श्रेणी में पहुंचा देना है। भारतीय संस्कृति का यह वैज्ञानिक पहलू कहीं अधिक मूल्यवान् भी है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय पृष्ठ 141-142

👉 आज का सद्चिंतन 2 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 2 March 2019


👉 कालिदास की कथा

कालिदास एक गया बीता व्यक्ति था, बुद्धि की दृष्टि से शून्य एवं काला कुरूप। जिस डाल पर बैठा था, उसी को काट रहा था। जंगल में उसे इस प्रकार बैठे देख राज्य सभा से विद्योत्तमा अपमानित पण्डितों ने उस विदुषी को शास्त्रार्थ में हराने व उसी से विवाह कराने का षड्यन्त्र रचने के लिए कालिदास को श्रेष्ठ पात्र माना। शास्त्रार्थ में अपनी कुटिलता से उसे मौन विद्वान् बताकर उन्होंने प्रत्येक प्रश्न का समाधान इस तरह किया कि विद्योत्तमा ने उस महामूर्ख से हार मान उसे अपना पति स्वीकार कर लिया।

पहले ही दिन जब उसे वास्तविकता का पता चला जो उसने उसे घर से निकाल दिया। धक्का देते समय जो वाक्य उसने उसकी भर्त्सना करते हुए कहे- वे उसे चुभ गये। दृढ़ संकल्प- अर्जित कर वह अपनी ज्ञान वृद्धि में लग गया। अन्त में वही महामूर्ख अपने अध्ययन से कालान्तर में महाकवि कालिदास के रूप में प्रकट हुआ और अपनी विद्वता की साधना पूरी कर विद्योत्तमा से उसका पुनर्मिलन हुआ।

लेकिन जो अवसर की महत्ता नहीं पहचानते, उन्हें तो अन्तत : पछताना ही पड़ता है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 27 से 30


यदा मनुष्यो! नात्मानमात्मनोद्धर्तुमर्हति ।
कृतावतारोऽलं तस्य स्थितो: सशोधयाम्यहम्॥२७॥
क्रमेऽस्मिन्सुविधायुक्ता: साधनै: सहिता:नरा:।
विभीषिकायां नाशस्याऽनास्थासंकटपाशिता:॥२८॥
तन्निवारणहेतोश्च कालेऽस्मिंश्चलदलोपमें ।
प्रज्ञावताररुपेऽवतराम्यत्र तु पूर्ववत्॥२९॥
त्रयोविंशतिवारं यद्भ्रष्टं सन्तुलनं भुवि ।
संस्थापितं मयैवैतद् भ्रष्टं सन्तुलयाम्यहम्॥३०॥

टीका:- जब मनुष्य अपने बल-बूते दल-दल से उबर नहीं पाते तो मुझे अवतार लेकर परिस्थितियाँ सुधारनी पड़ती हैं? इस बार सुविधा-साधन रहते हुए भी मनुष्यों को जिस विनाश विभीषका में फँसना पड़ रहा हैं उसका मूल कारण आस्था-संकट ही हैं। उसके निवारण हेतु मुझे इस अस्थिर, समय में इस बार प्रज्ञावतार के रूप में अवतरित होना है। पिछले तेईस बार की तरह इस बार भी बिगड़े सन्तुलन को फिर संभालना है ॥२७-३०॥

व्याख्या:- मानवी पुरुषार्थ की भी अपनी महिमा-महत्ता है। लेकिन जब मनुष्य दुर्बुद्धि जन्य विभीषिकाओं के सामने स्वयं को विवश-असहाय अनुभव करता है, तब परिस्थितियाँ अवतार प्रकटीकरण की बनती हैं। भगवान ने हर बार मानवता के परित्राण हेतु असंतुलन कि स्थिति में अवतार लिया है और सृष्टि की डूबती नैया को पार लगाया है।

सृष्टा अपनी अद्भुत कलाकृति विश्व-वसुधा को, मानवी सत्ता को, सुरभ्य वाटिका को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही बचाता और अपनी सक्रियता का परिचय देता है तथा परिस्थितियों को उलझने का चमत्कार उत्पन्न करता है। यही अवतार है। संकट के सामान्य स्तर से तो मनुष्य ही निपट लेते है, पर जब आसामान्य स्तर की विपन्नता उत्पन्न हो जाती है तो सृष्टा को स्वयं ही अपने आयुध सम्भालने पड़ते है। उत्थान के साधन जुटाना भी कठिन है पर पतन के गर्त में द्रुतगति से गिरने वाले लोक मानस को उलट देना अति कठिन है। इस कठिन कार्य को सृष्टा ने समय-समय पर स्वयं ही सम्पन्न किया है। आज की विषम वेला भी अवतरण की परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी लीला संदोह प्रस्तुत करते कोई भी प्रज्ञावान प्रत्यक्ष देख सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 14

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