बुधवार, 16 मार्च 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 26)



बाहरी जीवन को पवित्र बनाते हुए समूचे साहस के साथ आगे बढ़कर मार्ग की शोध करो। कभी मत भूलो, जो मनुष्य साधना पथ पर चलना चाहता है उसे अपने सम्पूर्ण स्वभाव को बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग में लाना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य अपने आप में खुद ही अपना मार्ग, अपना सच और अपना जीवन है। इस सूत्र को अपना कर उस मार्ग को ढूँढो। उस मार्ग को जीवन और प्रकृति के नियमों के अध्ययन के द्वारा ढूँढों। अपनी आध्यात्मिक साधना एवं परा प्रकृति की पहचान करके इस मार्ग को ढूँढों। ज्यों- ज्यों सद्गुरु की चेतना के साथ तुम्हारा सान्निध्य सघन होगा, ज्यों- ज्यों तुम्हारी उपासना प्रगाढ़ होगी, त्यों- त्यों यह परम मार्ग तुम्हारी दृष्टि पथ पर स्पष्ट होगा।

उस ओर से आता हुआ प्रकाश तुम्हारी ओर बढ़ेगा और तब तुम इस मार्ग का एक छोर छू लोगे। और तभी तुम्हारे सद्गुरु का प्रकाश, हां उन्हीं सद्गुरु का प्रकाश, जिन्हें कभी तुमने देहधारी के रूप में देखा था, हां उनका ही प्रकाश एकाएक अनन्त प्रकाश का रूप धारण कर लेगा। उस भीतर के दृश्य से न भयभीत होओ और न आश्चर्य करो। क्योंकि तुम्हारे सद्गुरु ही सर्वेश्वर हैं। जो गुरु हैं वही ईष्ट हैं।हां इतना जरूर है कि इस सत्य तक पहुँचने के पहले अपने भीतर के अन्धकार से सहायता लो और समझो कि जिन्होंने प्रकाश देखा ही नहीं है, वे कितने असहाय हैं और उनकी आत्मा कितने गहन अंधकार में है।

शिष्य संजीवनी का यह सूत्र बड़ा अटपटा है किन्तु है अतिशय बोधपूर्ण। शिष्य को गुरु मिलने पर भी मार्ग खोजना पड़ता है। ना समझ लोग कहेंगे कि भला यह कैसी उलटी बात है, क्योंकि गुरु मिला तो मार्ग भी मिल गया। पर शिष्य परम्परा के सिद्धजन कहते हैं कि यह इतना आसान नहीं है। कारण यह है कि गुरु के मिलने पर ना समझ लोग उन्हें बस सिद्धपुरुष भर मान लेते हैं। उनकी शक्तियों को पहचानते तो हैं, पर केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए, बस लोभ- लाभ के लिए। मनोकामना कैसे पूरी होगी इसी फेर में उनके चक्कर काटते हैं। काम कैसे बनेगा? इसी फेर में उनका फेरा लगाते रहते हैं। अपनी इसी मूर्खता को वे गुरुभक्ति का नाम देते हैं। स्वार्थ साधन को साधना कहते हैं।


क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/sadg

दूसरों के दुःख दर्द में हिस्सा बटाना चाहिए पर वह उतना भावुकता पूर्ण न हो कि अपने साध नहीं नष्ट हो जाये और अपना अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाय। आमतौर से उदार व्यक्तियों को ऐसी ही ठगी का शिकार होना पड़ता है। दूसरों को उबारने के लिये किया गया दुस्साहस सराहनीय है पर वह इतना आवेश ग्रस्त न हो कि डूबने वाला तो बच न सके उलटे अपने को भी दूसरे बचाने वालों की ओर निहारना पड़े उदारता के साथ विवेक की नितान्त आवश्यकता है। मित्रता स्थापित करने के साथ वह सूक्ष्म बुद्धि भी सचेत रहनी चाहिए जिससे उचित और अनुचित का सही और गलत का वर्गीकरण किया जाता है।

भावुक आतुरता के साथ यदि उदारता को जोड़ दिया जाये तो उससे केवल धूर्त ही लाभान्वित होगे और उन्हें ढूँढ़ सकना संभव ही न होगा जो इस प्रयोग के लिये सर्वोत्तम हो सकते थे। जीवन का आनन्द मैत्री रहित नीरस और स्वार्थी व्यक्ति नहीं ले सकते इस तथ्य के साथ यह परिशिष्ट और जुड़ा रहना चाहिए कि सज्जनता के आवरण में छिपी हुई धूर्तता की परख की क्षमता भी उपार्जित की जाय। ऐसा न हो कि उदारता का कोई शोषण कर ले और फिर अपना मन सदा के लिये अश्रद्धालु बन जाये।

दूसरों के लिये हमें बहुत कुछ करना चाहिए यह ठीक है। पर यह भी कम सही नहीं कि हमें दूसरों से प्रतिदान की अधिक आशाएँ नहीं करनी चाहिए हर किसी को अपने ही पैरों पर खड़ा होना होता है और अपनी ही टाँगों से चलना पड़ता है। सवारियाँ भी समय समय पर मिलती है दूसरों का सहयोग भी प्राप्त होता है। पर वह इतना कम होता है कि उससे जीवन रथ को न तो दूरी तक खींचा जा सकता है और वह तेज चाल से चल सकता है। काम तो अपनी ही टाँगे आती है। खड़ा होने के लिए अपनी ही नस नाड़ियों माँसपेशियों और हड्डियों पर वजन पड़ता है। यदि वे चरमराने लगे तो फिर दूसरे आदमी कब तक कितनी दूर तक हमें खड़ा होने या चलने में सहायता कर सकेंगे?

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 34
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1973/January.34
सतत पुरुषार्थी ही पहुँचते है शिखर पर 
 

एक बार एक नगर मे एक राजा के दरबार मे किसी ने ये प्रश्न रखा की भाग्य ही सबकुछ है या कर्म का भी कोई मूल्य है! किसी ने कहा की जो भाग्य मे है वही मिलता है तो किसी ने कहा नही मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा वो भी हासिल कर सकता है जो भाग्य मे नही है !

अनेक तरह का वाद विवाद हुआ कोई हल न निकला तो राजा राजगुरु के पास गये और राजगुरु ने कहा की हॆ राजन आपके प्रश्न का उत्तर देने की पुरी पुरी कोशिश करेंगे आगे हरी ईच्छा! राजा और राजगुरु ने गुप्त मंत्रणा की और दो तरह के लोगो के दो दल बनाये! और उन दोनो दलों को दस दस बीघा ज़मीन दी और कुछ समय दिया गया और कहा की निश्चित समय मे जो इस जमीन से जितनी उपज पैदा करेगा उसे विशेष पारितोषिक दिया जायेगा!

दोनो ही तैयारी मे जुट गये अब एक दल ने भविष्य को ध्यान मे रखते हुये फसल के पानी के लिये सभी ने मिलकर एक कुआँ खोदा और दुसरे दल ने सोचा की बरसात के पानी से काम चला लेंगे और यदि जरूरत पड़ी तो इनका कुआँ तो है ही ना इससे काम चला लेंगे! और कुछ दिनो बाद बारिश पुरी नही हुई तो एक की फसल कमजोर पड़ने लगी अब वो सभी बड़े दुःखी रहने लगे रातों की नींद और दिन का चेन चला गया! और उधर दुसरे दल ने बरसात न होने पर भी पुरी मेहनत से जो कुआँ खोदा था उसके पानी से फसल को बर्बाद होने से बचा लिया!

निश्चित अवधि के बाद दोनो ही दल राजदरबार मे पहुँचे राजा और राजगुरु ने पुरी दास्तान सुनी! और फिर राजगुरु ने एक दल को पारितोषिक दिया और दुसरे दल को पास बुलाकर प्रेम से समझाया की आप जानते हो की आपके दुखों का वास्तविक कारण क्या है तो उन्होने कहा की क्या कारण है देव? तो राजगुरु ने कहा मुफ्त की चाह ही आपके दुखों का और अशान्ति का सबसे बड़ा कारण है!

त्यागो मुफ्त की चाह को और बनो कर्मवीर क्योंकि कर्मवीर ही पहुँचते है लक्ष्य तक वही पाते है सच्चा आनन्द और आत्मशान्ति! भाग्य के भरोसे रहोगे तो जो है वह भी चला जायेगा और कर्मवादी बनोगे तो जो नही है वो भी मिलेगा!

तब उन्होने इस पर गहराई से मनन किया और कहा की हॆ परम आदरणीय राजगुरु आपने हमारी बँद आँखो को खोल दिया है यदि हमने भी कुआँ खोदा होता तो हमारी फसल बच जाती!

यदि हम पुरुषार्थी नही बनेंगे तो हाथ मे आया हुआ भी चला जायेगा! एक नियमित साधना का एक कुआँ खोदो और जीवन रूपी इस फसल को बनाओ और निर्माण करो इस जीवन का ताकि आगे जाकर ये फसल लहरा सके!

जो सतत प्रयासरत्त है पुरुषार्थी है उसकी फसल की रक्षा स्वयं सद्गुरु और स्वयं नारायण करेंगे! और जो केवल भाग्य के भरोसे रहेंगे वो यहाँ तो शायद कुछ पा लेंगे पर आगे वंचित रह जायेंगे इसलिये प्रबल पुरुषार्थी बनो !!

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