बाहरी जीवन को पवित्र बनाते हुए समूचे साहस के साथ आगे बढ़कर मार्ग की शोध करो। कभी मत भूलो, जो मनुष्य साधना पथ पर चलना चाहता है उसे अपने सम्पूर्ण स्वभाव को बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग में लाना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य अपने आप में खुद ही अपना मार्ग, अपना सच और अपना जीवन है। इस सूत्र को अपना कर उस मार्ग को ढूँढो। उस मार्ग को जीवन और प्रकृति के नियमों के अध्ययन के द्वारा ढूँढों। अपनी आध्यात्मिक साधना एवं परा प्रकृति की पहचान करके इस मार्ग को ढूँढों। ज्यों- ज्यों सद्गुरु की चेतना के साथ तुम्हारा सान्निध्य सघन होगा, ज्यों- ज्यों तुम्हारी उपासना प्रगाढ़ होगी, त्यों- त्यों यह परम मार्ग तुम्हारी दृष्टि पथ पर स्पष्ट होगा।
उस ओर से आता हुआ प्रकाश तुम्हारी ओर बढ़ेगा और तब तुम इस मार्ग का एक छोर छू लोगे। और तभी तुम्हारे सद्गुरु का प्रकाश, हां उन्हीं सद्गुरु का प्रकाश, जिन्हें कभी तुमने देहधारी के रूप में देखा था, हां उनका ही प्रकाश एकाएक अनन्त प्रकाश का रूप धारण कर लेगा। उस भीतर के दृश्य से न भयभीत होओ और न आश्चर्य करो। क्योंकि तुम्हारे सद्गुरु ही सर्वेश्वर हैं। जो गुरु हैं वही ईष्ट हैं।हां इतना जरूर है कि इस सत्य तक पहुँचने के पहले अपने भीतर के अन्धकार से सहायता लो और समझो कि जिन्होंने प्रकाश देखा ही नहीं है, वे कितने असहाय हैं और उनकी आत्मा कितने गहन अंधकार में है।
शिष्य संजीवनी का यह सूत्र बड़ा अटपटा है किन्तु है अतिशय बोधपूर्ण। शिष्य को गुरु मिलने पर भी मार्ग खोजना पड़ता है। ना समझ लोग कहेंगे कि भला यह कैसी उलटी बात है, क्योंकि गुरु मिला तो मार्ग भी मिल गया। पर शिष्य परम्परा के सिद्धजन कहते हैं कि यह इतना आसान नहीं है। कारण यह है कि गुरु के मिलने पर ना समझ लोग उन्हें बस सिद्धपुरुष भर मान लेते हैं। उनकी शक्तियों को पहचानते तो हैं, पर केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए, बस लोभ- लाभ के लिए। मनोकामना कैसे पूरी होगी इसी फेर में उनके चक्कर काटते हैं। काम कैसे बनेगा? इसी फेर में उनका फेरा लगाते रहते हैं। अपनी इसी मूर्खता को वे गुरुभक्ति का नाम देते हैं। स्वार्थ साधन को साधना कहते हैं।
क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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