👉 अथर्ववेदीय चिकित्सा पद्धति के प्रणेता युगऋषि
युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव इस अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा के विशेषज्ञ थे। उनका कहना था कि असाध्य रोग, भयंकर दुर्घटना, मारण, कृत्या आदि अभिचार कर्म दुर्भाग्य, दैत्य और प्रेतबाधा, पागलपन को आध्यात्म चिकित्सा का मर्मज्ञ केवल सिर पर जल छिड़कर या सिर पर हाथ रखकर अथवा मणियां बांधकर दूर कर सकता है। जो इन प्रयोगों को जानते हैं, उन्हें इस सत्य का ज्ञान है कि अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा कोई चमत्कार न होकर एक प्रायोगिक व वैज्ञानिक व्यवस्था है।
परम पूज्य गुरुदेव के ज्येष्ठ पुत्र श्री ओमप्रकाश जो अपनी किशोरावस्था में उनके साथ रहा करते थे, गुरुदेव की आध्यात्मिक चिकित्सा से जुड़ी अनेकों अनुभूतियाँ सुनाते हैं। उन्हें अभी भी हैरानी होती है कि कैसे एक ही पत्ती, जड़ अथवा किसी छोटी सी आटे से बनी गोली से वे असाध्य रोगों को ठीक कर दिया करते थे। श्री ओमप्रकाश जी बताते हैं कि चिकित्सा के नाम पर हम उन दिनों आयुर्वेद जानते थे। गुरुदेव के एक ज्येष्ठ भ्राता भी वैद्य थे। उनके द्वारा दी जाने वाली दवाओं का स्वरूप, प्रकार व उनकी विविधता अलग ढंग की होती थी। पर गुरुदेव का तो सभी कुछ अद्भुत था। यहाँ तो वे सामान्य सी पत्ती द्वारा मरणासन्न को जीवनदान देते थे।
श्री ओमप्रकाश जी का कहना है कि उनके प्रयोगों में एक विचित्रता और भी थी। वह यह कि जरूरी नहीं कि रोगी उनके समीप ही हो, उसके हजारों किलोमीटर दूर होने से भी उनकी चिकित्सा में कोई कमी नहीं आती थी। एक सामान्य से धागे को उसके पास भेजकर वह उसे भला- चंगा बना देते थे। वह कहते हैं कि उन दिनों तो मैं अनजान था। पर आज लगता है कि सचमुच ही यह अथर्ववेदीय आध्यात्मिक चिकित्सा थी। शान्तिकुञ्ज में तप की अवधि में परम पूज्य गुरुदेव अपने विश्व कल्याण सम्बन्धी उच्चस्तरीय प्रयोगों में संलग्र हो गए थे। और उनकी चिकित्सा का स्वरूप संकल्प प्रयोगों व इच्छाशक्ति तक ही सिमट गया था। रोगी अभी भी ठीक होते थे। उनकी संख्या भी पहले से अनेकों गुना बढ़ गयी थी। किन्तु अब प्रयोग- प्रक्रियाएँ बदली हुई थी। अब इन अनेकों के लिए उनका संकल्प ही पर्याप्त था।
जीवन के अन्तिम वर्षों में उनकी दृष्टि भविष्य की ओर थी। सन् १९८९ में जाड़ों में जब वह अपने कमरे के बगल वाले आंगन में पलंग पर बैठे हुए थे। उन्होंने पास बैठे हुए अपने शिष्यों से पूछा- क्यों जी मेरे जाने के बाद तुम लोग आने वालों का किस तरह कल्याण करोगे? उत्तर में सन्नाटा छाया रहा। कोई कुछ न बोला। तब वह स्वयं बोले, देखो देह छोड़ने के बाद भी मेरी चेतना हमेशा ही शान्तिकुञ्ज परिसर में व्याप्त रहेगी। भविष्य में जो लोग यहाँ आएँ उनसे कहना कि गुरुदेव ने केवल शरीर छोड़ा है, वे कहीं गए नहीं हैं, यहीं पर हैं। उनका तप प्राण यहाँ के कण- कण में व्याप्त है। तुम लोग इसे अपने मन, प्राण में अनुभव करो। और जितने समय यहाँ रहो, यह सोचो कि मैं अपने रोम- रोम से प्रत्येक श्वास से गुरुदेव के तप प्राण को धारण कर रहा हूँ। इससे उनकी सभी तरह की चिकित्सा हो जाएगी। गुरुदेव के द्वारा कहा हुआ यह सच आज भी प्रामाणित हो रहा है। उन्होंने आध्यात्मिक चिकित्सा का जो प्रवर्तन किया आज उसे विश्वदृष्टि में मान्यता मिल रही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११३
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https://bit.ly/2KISkiz
युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव इस अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा के विशेषज्ञ थे। उनका कहना था कि असाध्य रोग, भयंकर दुर्घटना, मारण, कृत्या आदि अभिचार कर्म दुर्भाग्य, दैत्य और प्रेतबाधा, पागलपन को आध्यात्म चिकित्सा का मर्मज्ञ केवल सिर पर जल छिड़कर या सिर पर हाथ रखकर अथवा मणियां बांधकर दूर कर सकता है। जो इन प्रयोगों को जानते हैं, उन्हें इस सत्य का ज्ञान है कि अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा कोई चमत्कार न होकर एक प्रायोगिक व वैज्ञानिक व्यवस्था है।
परम पूज्य गुरुदेव के ज्येष्ठ पुत्र श्री ओमप्रकाश जो अपनी किशोरावस्था में उनके साथ रहा करते थे, गुरुदेव की आध्यात्मिक चिकित्सा से जुड़ी अनेकों अनुभूतियाँ सुनाते हैं। उन्हें अभी भी हैरानी होती है कि कैसे एक ही पत्ती, जड़ अथवा किसी छोटी सी आटे से बनी गोली से वे असाध्य रोगों को ठीक कर दिया करते थे। श्री ओमप्रकाश जी बताते हैं कि चिकित्सा के नाम पर हम उन दिनों आयुर्वेद जानते थे। गुरुदेव के एक ज्येष्ठ भ्राता भी वैद्य थे। उनके द्वारा दी जाने वाली दवाओं का स्वरूप, प्रकार व उनकी विविधता अलग ढंग की होती थी। पर गुरुदेव का तो सभी कुछ अद्भुत था। यहाँ तो वे सामान्य सी पत्ती द्वारा मरणासन्न को जीवनदान देते थे।
श्री ओमप्रकाश जी का कहना है कि उनके प्रयोगों में एक विचित्रता और भी थी। वह यह कि जरूरी नहीं कि रोगी उनके समीप ही हो, उसके हजारों किलोमीटर दूर होने से भी उनकी चिकित्सा में कोई कमी नहीं आती थी। एक सामान्य से धागे को उसके पास भेजकर वह उसे भला- चंगा बना देते थे। वह कहते हैं कि उन दिनों तो मैं अनजान था। पर आज लगता है कि सचमुच ही यह अथर्ववेदीय आध्यात्मिक चिकित्सा थी। शान्तिकुञ्ज में तप की अवधि में परम पूज्य गुरुदेव अपने विश्व कल्याण सम्बन्धी उच्चस्तरीय प्रयोगों में संलग्र हो गए थे। और उनकी चिकित्सा का स्वरूप संकल्प प्रयोगों व इच्छाशक्ति तक ही सिमट गया था। रोगी अभी भी ठीक होते थे। उनकी संख्या भी पहले से अनेकों गुना बढ़ गयी थी। किन्तु अब प्रयोग- प्रक्रियाएँ बदली हुई थी। अब इन अनेकों के लिए उनका संकल्प ही पर्याप्त था।
जीवन के अन्तिम वर्षों में उनकी दृष्टि भविष्य की ओर थी। सन् १९८९ में जाड़ों में जब वह अपने कमरे के बगल वाले आंगन में पलंग पर बैठे हुए थे। उन्होंने पास बैठे हुए अपने शिष्यों से पूछा- क्यों जी मेरे जाने के बाद तुम लोग आने वालों का किस तरह कल्याण करोगे? उत्तर में सन्नाटा छाया रहा। कोई कुछ न बोला। तब वह स्वयं बोले, देखो देह छोड़ने के बाद भी मेरी चेतना हमेशा ही शान्तिकुञ्ज परिसर में व्याप्त रहेगी। भविष्य में जो लोग यहाँ आएँ उनसे कहना कि गुरुदेव ने केवल शरीर छोड़ा है, वे कहीं गए नहीं हैं, यहीं पर हैं। उनका तप प्राण यहाँ के कण- कण में व्याप्त है। तुम लोग इसे अपने मन, प्राण में अनुभव करो। और जितने समय यहाँ रहो, यह सोचो कि मैं अपने रोम- रोम से प्रत्येक श्वास से गुरुदेव के तप प्राण को धारण कर रहा हूँ। इससे उनकी सभी तरह की चिकित्सा हो जाएगी। गुरुदेव के द्वारा कहा हुआ यह सच आज भी प्रामाणित हो रहा है। उन्होंने आध्यात्मिक चिकित्सा का जो प्रवर्तन किया आज उसे विश्वदृष्टि में मान्यता मिल रही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११३
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