मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८१)

👉 अथर्ववेदीय चिकित्सा पद्धति के प्रणेता युगऋषि

युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव इस अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा के विशेषज्ञ थे। उनका कहना था कि असाध्य रोग, भयंकर दुर्घटना, मारण, कृत्या आदि अभिचार कर्म दुर्भाग्य, दैत्य और प्रेतबाधा, पागलपन को आध्यात्म चिकित्सा का मर्मज्ञ केवल सिर पर जल छिड़कर या सिर पर हाथ रखकर अथवा मणियां बांधकर दूर कर सकता है। जो इन प्रयोगों को जानते हैं, उन्हें इस सत्य का ज्ञान है कि अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा कोई चमत्कार न होकर एक प्रायोगिक व वैज्ञानिक व्यवस्था है।

परम पूज्य गुरुदेव के ज्येष्ठ पुत्र श्री ओमप्रकाश जो अपनी किशोरावस्था में उनके साथ रहा करते थे, गुरुदेव की आध्यात्मिक चिकित्सा से जुड़ी अनेकों अनुभूतियाँ सुनाते हैं। उन्हें अभी भी हैरानी होती है कि कैसे एक ही पत्ती, जड़ अथवा किसी छोटी सी आटे से बनी गोली से वे असाध्य रोगों को ठीक कर दिया करते थे। श्री ओमप्रकाश जी बताते हैं कि चिकित्सा के नाम पर हम उन दिनों आयुर्वेद जानते थे। गुरुदेव के एक ज्येष्ठ भ्राता भी वैद्य थे। उनके द्वारा दी जाने वाली दवाओं का स्वरूप, प्रकार व उनकी विविधता अलग ढंग की होती थी। पर गुरुदेव का तो सभी कुछ अद्भुत था। यहाँ तो वे सामान्य सी पत्ती द्वारा मरणासन्न को जीवनदान देते थे।

श्री ओमप्रकाश जी का कहना है कि उनके प्रयोगों में एक विचित्रता और भी थी। वह यह कि जरूरी नहीं कि रोगी उनके समीप ही हो, उसके हजारों किलोमीटर दूर होने से भी उनकी चिकित्सा में कोई कमी नहीं आती थी। एक सामान्य से धागे को उसके पास भेजकर वह उसे भला- चंगा बना देते थे। वह कहते हैं कि उन दिनों तो मैं अनजान था। पर आज लगता है कि सचमुच ही यह अथर्ववेदीय आध्यात्मिक चिकित्सा थी। शान्तिकुञ्ज में तप की अवधि में परम पूज्य गुरुदेव अपने विश्व कल्याण सम्बन्धी उच्चस्तरीय प्रयोगों में संलग्र हो गए थे। और उनकी चिकित्सा का स्वरूप संकल्प प्रयोगों व इच्छाशक्ति तक ही सिमट गया था। रोगी अभी भी ठीक होते थे। उनकी संख्या भी पहले से अनेकों गुना बढ़ गयी थी। किन्तु अब प्रयोग- प्रक्रियाएँ बदली हुई थी। अब इन अनेकों के लिए उनका संकल्प ही पर्याप्त था।

जीवन के अन्तिम वर्षों में उनकी दृष्टि भविष्य की ओर थी। सन् १९८९ में जाड़ों में जब वह अपने कमरे के बगल वाले आंगन में पलंग पर बैठे हुए थे। उन्होंने पास बैठे हुए अपने शिष्यों से पूछा- क्यों जी मेरे जाने के बाद तुम लोग आने वालों का किस तरह कल्याण करोगे? उत्तर में सन्नाटा छाया रहा। कोई कुछ न बोला। तब वह स्वयं बोले, देखो देह छोड़ने के बाद भी मेरी चेतना हमेशा ही शान्तिकुञ्ज परिसर में व्याप्त रहेगी। भविष्य में जो लोग यहाँ आएँ उनसे कहना कि गुरुदेव ने केवल शरीर छोड़ा है, वे कहीं गए नहीं हैं, यहीं पर हैं। उनका तप प्राण यहाँ के कण- कण में व्याप्त है। तुम लोग इसे अपने मन, प्राण में अनुभव करो। और जितने समय यहाँ रहो, यह सोचो कि मैं अपने रोम- रोम से प्रत्येक श्वास से गुरुदेव के तप प्राण को धारण कर रहा हूँ। इससे उनकी सभी तरह की चिकित्सा हो जाएगी। गुरुदेव के द्वारा कहा हुआ यह सच आज भी प्रामाणित हो रहा है। उन्होंने आध्यात्मिक चिकित्सा का जो प्रवर्तन किया आज उसे विश्वदृष्टि में मान्यता मिल रही है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११३


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👉 आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (भाग ३)

आलसी का हठ रहता है कि शरीर उसका अपना है। मान लो उसका है तब भी तो उसे नष्ट करने का अधिकार उसे नहीं हो सकता है। शरीर उसका है तो शरीर जन्य सन्तानें भी तो उसकी ही होती हैं और उनका भी उसके शरीर पर कुछ अधिकार होता है। शरीर नष्ट कर वह उनके शरीर का हनन तो नहीं कर सकता। शरीर से उपार्जन होता है और उपार्जन से बच्चों का पालन-पोषण। शिथिल एवं अशक्त शरीर आलसी उपार्जन से ऐसे घबराता है जैसे भेड़ भेड़िये से दूर भागती है। धन तो परिश्रम का मीठा फल है आलसी जिसे लाकर परिवार को नहीं दे पाता और रो-झींक कर, मर-खप कर विवश हो कर लाता भी है वह अपर्याप्त तो होता ही है साथ ही उसकी कुढ़न उसके साथ जुड़ी रहती है जो कि बच्चों के संस्कारों एवं शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालती है। इस प्रकार आलसी बच्चों का पालन करने के स्थान पर परोक्ष रूप से उनका भावनात्मक हनन ही किया करता है, जो एक अक्षम्य अपराध तथा पाप है। यदि बच्चों का सम्बन्ध न भी जोड़ा जाये तो भी अपने कर्मों से शरीर का सत्यानाश करना आत्महत्या के समान है जो उसी तरह पाप ही माना जायेगा।

आलस्य के कुठार द्वारा कल्पवृक्ष के समान उस शरीर की जड़ काटते रहना, उसकी शक्ति , क्षमताओं एवं योग्यताओं को नष्ट करते रहना पाप ही है जो मानव के महान से महान मनोरथों को चूर कर सकता है। शक्ति , सम्पन्नता, गौरव, ज्ञान, मान, प्रतिष्ठा, यश, कीर्ति आदि ऐसी कौन-सी समृद्धि अथवा ऐश्वर्य है जो शरीररूपी देवता को प्रसन्न करने पर नहीं मिल सकता। ऐसा कौन-सा पुण्य-परमार्थ है जो आत्मा की मुक्ति में सहायक हो और शरीर द्वारा सम्पन्न न किया जा सकता हो। मनुष्य श्रम-साधना द्वारा इस पंच-तात्विक देवता को प्रसन्न करने, समृद्धिय पाने, पुण्य-परमार्थ करके आत्मा को मुक्त करने के लिए है, वचन-बाध्य है। “मैं नहीं चाहता”—कहकर मनुष्य इस उद्देश्य से मुक्त नहीं हो सकता।

उसका जन्म, उसकी नियुक्ति इस कर्तव्य के लिये ही की गई है और उसने जीवन-लाभ के लिए सर्व समर्थ को यह वचन दिया था कि वह उसके दिये जीवन को सुन्दर एवं समृद्ध बनाकर संसार की शोभा बढ़ायेगा और उसके आत्मा रूपी प्रकाश की किरणें आवरण से मुक्त कर उसमें ही मिला देने की लिए किसी परिश्रम, पुरुषार्थ तथा परमार्थ से विमुख न होगा। परमात्मा ने उसके इसी वचन पर विश्वास करके उसे सृष्टि की सर्वश्रेष्ठता प्रदान की। बल, बुद्धि एवं विवेक सब योग्य बना दिया। अब वचन से फिरकर कर्तव्य से विमुख हो जाना कहाँ तक उचित है? यह भयंकर पाप है, विश्वासघात के समान ही पाप है और आलसी इस पाप को जान-बूझकर किया करता है। मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी और जीव-जगत का राजा है। संसार की व्यवस्था एवं सुन्दरता का भार उसके परिश्रम एवं पुरुषार्थ पर निर्भर है। किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह उत्तरदायित्व से फिरकर आलस्य, प्रमाद अथवा निष्क्रियता द्वारा पृथ्वी का भार बने और उसे असुन्दर, अव्यवस्थित, अशाँत अथवा असुखकर बनाने की दुरभिसन्धि किया करे। आलसी एवं अकर्मण्य लोग निश्चय ही यह अपराध किया करते हैं जबकि उन्हें अपना सुधार कर ऐसा नहीं करना चाहिए। उनकी यह दुष्प्रवृत्ति अपरिमार्जन किसी प्रकार भी शोभनीय अथवा वाँछनीय नहीं है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.24

👉 गुरुवर की वाणी

★ गायत्री परिवार का हर व्यक्ति बड़ा है। छोटेपन का उसने मुखौटा भर पहन रखा है। उतारने भर की देर है कि उसका असली चेहरा दृष्टिगोचर होगा। हमें हमारे मार्गदर्शक ने एक पल में क्षुद्रता का लबादा झटककर महानता का परिधान पहना दिया था। इस काया कल्प में मात्र इतना ही हुआ था कि लोभ, मोह की कीचड़ से उबरना पड़ा। जिस-तिस के परामर्शों—आग्रहों की उपेक्षा करनी पड़ी और आत्मा-परमात्मा के संयुक्त निर्णय को शिरोधार्य करने का साहस जुटाना पड़ा। इसके बाद एकाकी नहीं रहना पड़ा।
(हमारी वसीयत और विरासत-174)

◆ इस समय जो भगवान के भक्त हैं, जिन्हें इस संसार के प्रति दर्द है, उनके नाम हमारा यही सन्देश है कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के कार्यों में कटौती करें एवं भगवान् का काम करने के लिए आगे आएं। अगर इस समय भी आप अपना मतलब सिद्ध करते रहे और मालदार बनते रहे, तो पीछे आपको बहुत पछताना पड़ेगा। अब आपकी इज्जत- आपकी इज्जत नहीं, हमारी इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है।
(गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)

■ भगवान् कृष्ण ने महाभारत के उपरान्त राजसूय यज्ञ में आग्रहपूर्वक आगन्तुकों के  पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था और सज्जनोचित विनम्रता का परिचय दिया था। गांधीजी कांग्रेस के पदाधिकारी नहीं रहे, किन्तु फिर भी सबसे अधिक सेवा करने और मान पाने में समर्थ हुए। चाणक्य झोपड़ी में रहते थे, ताकि राजमद उनके ऊपर न चढ़े और किसी साथी के मन में प्रधानमन्त्री का ठाट-बाट देखकर वैसी ही ललक न उठे। राजा जनक हल जोतते थे। बादशाह नसीरुद्दीन टोपी सीकर गुजारा करते थे। यह वे उदाहरण हैं जिनसे साथियों को अधिक विनम्र और संयमी बनने की प्रेरणा मिलती है।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप-32)

★ हनुमान ने कितनी उपासना की थी, नल-नील, जामवन्त, अर्जुन ने कितनी पूजा एवं तीर्थयात्रा की थी? यह हम नहीं कह सकते, परन्तु उन्होंने भगवान् का काम किया था। ये लोग घाटे में नहीं रहे। इस समय महाकाल कुछ गलाई-ढलाई करने जा रहे हैं। अब नये व्यक्ति, नयी परम्पराएं, नये चिन्तन उभरकर आयेंगे। अगले दिनों यह सोचकर अचम्भा करेंगे कितने कम समय में इतना परिवर्तन कैसे हो गया। अगर हम समय को पहचान पाये तो आप सच्चे अर्थों में भाग्यवान बन सकते हैं।
(गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)

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