शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ६३)

👉 आसन, प्राणायाम, बंध एवं मुद्राओं से उपचार

हठयोग की विधियाँ जीवन के प्राण प्रवाह को सम्वर्धित , नियंत्रित व नियोजित करती हैं। अध्यात्म चिकित्सा के सभी विशेषज्ञ इस बारे में एक मत हैं कि प्राण प्रवाह में व्यतिक्रम या व्यतिरेक आने से देह रोगी होती है और मन अशान्त। इस असन्तुलन के कारण शारीरिक हो सकते हैं और मानसिक भी, पर परिणाम एक ही होता है कि हमारा विश्व व्यापी प्राणऊर्जा से सम्बन्ध दुर्बल या विच्छिन्न हो जाता है। यदि यह सम्बन्ध पुनः संवर सके और देह में प्राण फिर से सुचारू रूप से संचालित हो सके तो सभी रोगों को भगाकर स्वास्थ्य लाभ किया जा सकता है। इतना ही नहीं प्राण प्रवाह के सम्वर्धन से देह को दीर्घजीवी व वज्रवत बनाया जा सकता है। नाड़ियाँ व स्नायु संस्थान के विद्युतीय प्रवाह अधिक प्रबल किए जा सकते हैं।

हठयोग की प्रक्रियाएँ आरोग्य व प्राण बल के सम्वर्धन की सुनिश्चित गारंटी देती है। क्योंकि इस विद्या के जानकारों को यह ज्ञान है कि यदि जीवन में प्राणों की दीवार अभेद्य है तो कोई भी रोग प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए इन प्रक्रियाओं का सारा जोर प्राणों के सम्वर्धन, परिशोधन व विकास पर है। हमारे जीवन में प्राण प्रवाह का स्थूल रूप श्वास है श्वास के आवागमन से देह में प्राण प्रवेश करते हैं और अंग- प्रत्यंग में विचरण करते हैं। आसन, प्राणायाम, बंध एवं मुद्रा आदि प्रक्रियाओं के द्वारा इन पर नियंत्रण स्थापित करके इनके प्रवाह को अपनी इच्छित दिशा में मोड़ा जा सकता है। यही वजह है कि हठयोगी अपने स्वास्थ्य का स्वामी है। रोग उसके पास फटकते भी नहीं। किसी तरह की बीमारियाँ उसे प्रभावित नहीं कर पाती।

ये प्रभाव हठयोग की विधियों के हैं, जिनमें सबसे प्रारम्भिक विधि आसन है। शरीर के विभिन्न अंगों को मोड़- मरोड़ कर किए जाने वाले ये आसन अनेक हैं। और प्रत्यक्ष में ये किसी व्यायाम जैसे लगते हैं, किन्तु यथार्थता इससे भिन्न है। व्यायाम की प्रक्रियाएँ कोई भी हो, कैसी भी हो इनका प्रभाव केवल शरीर के प्रत्येक अवयव में प्राण को क्रियाशील करके उसे सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करता है। प्रभाव की दृष्टि से सोचें तो इनके प्रभाव शारीरिक होने के साथ मानसिक व आध्यात्मिक भी हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८७

👉 स्वाध्याय, जीवन विकास की एक अनिवार्य आवश्यकता (भाग ४)

स्वाध्याय से मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल कर देने और उसके अंतर्पट खोलने की सहज क्षमता विद्यमान् है। आन्तरिक उद्घाटन हो जाने से मनुष्य स्वयं ही आत्मा अथवा परमात्मा के प्रति जिज्ञासु हो उठता है। उसकी चेतना ऊर्ध्वमुखी होकर उसी ओर को उड़ने के लिए पर तोलने लगती है। उच्च आध्यात्मिक अनुभूतियों का प्रस्फुटन स्वाध्याय के द्वारा ही हुआ करता है। स्वाध्याय निःसन्देह एक ऐसा अमृत है, जो मानस में प्रवेश कर मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियों को नष्ट कर देता है।

चारित्रिक उज्ज्वलता स्वाध्याय का एक साधारण और मनोवैज्ञानिक फल है। सद्ग्रन्थों में सन्निहित साधु वाणियों का निरन्तर अध्ययन एवं मनन करते रहने से मन पर शिव संस्कारों की स्थापना होती हैं, जिससे चित्त अपने आप दुष्कृत्यों की ओर से फिर जाता है। स्वाध्यायी व्यक्ति पर कुसंग का भी प्रभाव नहीं पड़ने पाता, इसका भी एक वैज्ञानिक कारण है। जिसकी स्वाध्याय में रुचि है ओर जो उसको जीवन का एक ध्येय मानता है, वह आवश्यकताओं से निवृत्त होकर अपना सारा समय स्वाध्याय में तो लगाता है। इसलिये उसके पास कोई फालतू समय ही नहीं रहता, जिसमें वह जाकर इधर-उधर यायावरी करेगा और दूषित वातावरण से अवांछनीय तत्त्व ग्रहण कर लायेगा।

उसी प्रकार रुचि-साम्य-संपर्क के सिद्धान्त के अनुसार भी यदि उसके पास कोई आयेगा तो प्रायः उसी रुचि का होगा और उन दोनों को एक सामयिक सत्संग का लाभ होगा। रुचि वैषम्य रखने वाला स्वाध्यायशील के पास जाने का कोई प्रयोजन अथवा साहस ही न रखेगा और यदि संयोगवश ऐसे कोई व्यक्ति आ भी जाते हैं तो उसके पास का वातावरण अपने अनुकूल न पाकर, देर तक ठहर ही न पायेंगे। निदान संगत-असभ्य आचरण दोषों का स्वाध्यायशील के पास कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९ पृष्ठ २४

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