सोमवार, 10 अप्रैल 2017
👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 33)
🌹 बड़े प्रयोजन के लिये प्रतिभावानों की आवश्यकता
🔵 कहा जा चुका है कि युगसृजन जैसा महान् उत्तरदायित्व पूरा करने में स्रष्टा की उच्चस्तरीय सृजन-शक्तियाँ ही प्रमुख भूमिका संपन्न करेंगी। मनुष्य की औसत उपलब्धि तो यही रही है कि वह बनाता कम और बिगाड़ता अधिक है, पर जहाँ बनाना-ही-बनाना एकमात्र लक्ष्य हो, वहाँ तो स्रष्टा की सृजन-सेना ही अग्रिम मोर्चा सँभालती दिखाई देगी। हर सैनिक के लिये अपने ढंग का अस्त्र-शस्त्र होता है। युगसृजन में आदर्शों के प्रति सघन श्रद्धा चाहिये और ऐसी लगन, जिसे कहीं किन्हीं आकर्षण या दबाव से विचलित न किया जा सके। ऐसे व्यक्तियों को ही देवमानव कहते हैं और उन्हीं के द्वारा ऐसे कार्य कर गुजरने की आशा की जाती है। जिन तथाकथित, कुण्ठाग्रस्त व मायाग्रस्त लोगों को सुनने-विचारने तक की फुरसत नहीं होती, उनसे तो कुछ बन पड़ेगा ही कैसे!
🔴 ईश्वर का स्वरूप न समझने वाले उसे मात्र मनोकामनाओं की पूर्ति का ऐसा माध्यम मानते हैं, जो किसी की पात्रता देखे बिना आँखें बंद करके योजनाओं की पूर्ति करता रहता है; भले ही वे उचित हों या अनुचित, किंतु जिन्हें ब्रह्मसत्ता की वास्तविकता का ज्ञान है, वे जानते हैं कि आत्मपरिष्कार और लोककल्याण को प्रमुखता देने वाले ही ईश्वर-भक्त कहे जाने योग्य हैं। इसके बदले में अनुग्रह के रूप में सजल श्रद्धा और प्रखर प्रज्ञा के अनुदान मिलते हैं। उनकी उपस्थिति से ही पुण्य प्रयोजन के लिये ऐसी लगन उभरती है, जिसे पूरा किये बिना चैन ही नहीं पड़ता।
🔵 उस ललक के रहते वासना, तृष्णा और अहंता की मोह-निद्रा या तो पास ही नहीं फटकती या फिर आकर वापस लौट जाती है। नररत्न ऐसों को ही कहते हैं। प्रेरणाप्रद इतिहास का ऐसे ही लोग सृजन करते हैं। उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए सामान्य सामर्थ्य वाले लोग परमलक्ष्य तक पहुँच कर रहते हैं। यही उत्पादन यदि छोटे-बड़े रूप में उभरता दीख पड़े तो अनुमान लगाना चाहिये कि भावभरा बदलाव आने ही वाला है। कोपलें निकली तो कलियाँ बनेंगी, फूल खिलेंगे, वातावरण शोभायमान होगा और उस स्थिति के आते भी देर न लगेगी, जिससे वृक्ष फलों से लदते और अपनी उपस्थिति का परिचय देकर हर किसी को प्रमुदित करते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 कहा जा चुका है कि युगसृजन जैसा महान् उत्तरदायित्व पूरा करने में स्रष्टा की उच्चस्तरीय सृजन-शक्तियाँ ही प्रमुख भूमिका संपन्न करेंगी। मनुष्य की औसत उपलब्धि तो यही रही है कि वह बनाता कम और बिगाड़ता अधिक है, पर जहाँ बनाना-ही-बनाना एकमात्र लक्ष्य हो, वहाँ तो स्रष्टा की सृजन-सेना ही अग्रिम मोर्चा सँभालती दिखाई देगी। हर सैनिक के लिये अपने ढंग का अस्त्र-शस्त्र होता है। युगसृजन में आदर्शों के प्रति सघन श्रद्धा चाहिये और ऐसी लगन, जिसे कहीं किन्हीं आकर्षण या दबाव से विचलित न किया जा सके। ऐसे व्यक्तियों को ही देवमानव कहते हैं और उन्हीं के द्वारा ऐसे कार्य कर गुजरने की आशा की जाती है। जिन तथाकथित, कुण्ठाग्रस्त व मायाग्रस्त लोगों को सुनने-विचारने तक की फुरसत नहीं होती, उनसे तो कुछ बन पड़ेगा ही कैसे!
🔴 ईश्वर का स्वरूप न समझने वाले उसे मात्र मनोकामनाओं की पूर्ति का ऐसा माध्यम मानते हैं, जो किसी की पात्रता देखे बिना आँखें बंद करके योजनाओं की पूर्ति करता रहता है; भले ही वे उचित हों या अनुचित, किंतु जिन्हें ब्रह्मसत्ता की वास्तविकता का ज्ञान है, वे जानते हैं कि आत्मपरिष्कार और लोककल्याण को प्रमुखता देने वाले ही ईश्वर-भक्त कहे जाने योग्य हैं। इसके बदले में अनुग्रह के रूप में सजल श्रद्धा और प्रखर प्रज्ञा के अनुदान मिलते हैं। उनकी उपस्थिति से ही पुण्य प्रयोजन के लिये ऐसी लगन उभरती है, जिसे पूरा किये बिना चैन ही नहीं पड़ता।
🔵 उस ललक के रहते वासना, तृष्णा और अहंता की मोह-निद्रा या तो पास ही नहीं फटकती या फिर आकर वापस लौट जाती है। नररत्न ऐसों को ही कहते हैं। प्रेरणाप्रद इतिहास का ऐसे ही लोग सृजन करते हैं। उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए सामान्य सामर्थ्य वाले लोग परमलक्ष्य तक पहुँच कर रहते हैं। यही उत्पादन यदि छोटे-बड़े रूप में उभरता दीख पड़े तो अनुमान लगाना चाहिये कि भावभरा बदलाव आने ही वाला है। कोपलें निकली तो कलियाँ बनेंगी, फूल खिलेंगे, वातावरण शोभायमान होगा और उस स्थिति के आते भी देर न लगेगी, जिससे वृक्ष फलों से लदते और अपनी उपस्थिति का परिचय देकर हर किसी को प्रमुदित करते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 समय का सदुपयोग करें (भाग 4)
🌹 समय का सदुपयोग करें
🔴 हेनरी किरक व्हाट को सबसे बड़ा समय का अभाव रहता था, पर घर से दफ्तर तक पैदल आने और जाने का समय सदुपयोग करके उसने ग्रीक भाषा सीखी। फौजी डॉक्टर बनने का अधिकतर समय घोड़े की पीठ पर बीतता था। उसने उस समय को भी व्यर्थ न जाने दिया और रास्ता पार करने के साथ-साथ उसने इटेलियन और फ्रेंच भाषायें भी पढ़ लीं। यह याद रखने की बात है कि—‘‘परमात्मा एक समय में एक ही क्षण हमें देता है और दूसरा क्षण देने से पूर्व उस पहले वाले क्षण को छीन लेता है। यदि वर्तमान काल में उपलब्ध क्षणों का हम सदुपयोग नहीं करते तो वे एक-एक करके छिनते चले जायेंगे और अन्त में खाली हाथ ही रहना पड़ेगा’’।
🔵 एडवर्ड वटलर लिटन ने अपने एक मित्र को कहा था—लोग आश्चर्य करते हैं कि मैं राजनीति तथा पार्लियामेंट के कार्यक्रमों में व्यस्त रहते हुए भी इतना साहित्यिक कार्य कैसे कर लेता हूं? 60 ग्रन्थों की रचना मैंने कर ली? पर इसमें आश्चर्य की बात नहीं। यह नियन्त्रित दिनचर्या का चमत्कार है। मैंने प्रतिदिन तीन घण्टे का समय पढ़ने और लिखने के लिये नियत किया हुआ है। इतना समय मैं नित्य ही किसी न किसी प्रकार अपने साहित्यक कार्यों के लिये निकाल लेता हूं। बस इस थोड़े से नियमित समय ने ही मुझे हजारों पुस्तकें पढ़ डालने और साठ ग्रन्थों के प्रणयन का अवसर ला दिया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 हेनरी किरक व्हाट को सबसे बड़ा समय का अभाव रहता था, पर घर से दफ्तर तक पैदल आने और जाने का समय सदुपयोग करके उसने ग्रीक भाषा सीखी। फौजी डॉक्टर बनने का अधिकतर समय घोड़े की पीठ पर बीतता था। उसने उस समय को भी व्यर्थ न जाने दिया और रास्ता पार करने के साथ-साथ उसने इटेलियन और फ्रेंच भाषायें भी पढ़ लीं। यह याद रखने की बात है कि—‘‘परमात्मा एक समय में एक ही क्षण हमें देता है और दूसरा क्षण देने से पूर्व उस पहले वाले क्षण को छीन लेता है। यदि वर्तमान काल में उपलब्ध क्षणों का हम सदुपयोग नहीं करते तो वे एक-एक करके छिनते चले जायेंगे और अन्त में खाली हाथ ही रहना पड़ेगा’’।
🔵 एडवर्ड वटलर लिटन ने अपने एक मित्र को कहा था—लोग आश्चर्य करते हैं कि मैं राजनीति तथा पार्लियामेंट के कार्यक्रमों में व्यस्त रहते हुए भी इतना साहित्यिक कार्य कैसे कर लेता हूं? 60 ग्रन्थों की रचना मैंने कर ली? पर इसमें आश्चर्य की बात नहीं। यह नियन्त्रित दिनचर्या का चमत्कार है। मैंने प्रतिदिन तीन घण्टे का समय पढ़ने और लिखने के लिये नियत किया हुआ है। इतना समय मैं नित्य ही किसी न किसी प्रकार अपने साहित्यक कार्यों के लिये निकाल लेता हूं। बस इस थोड़े से नियमित समय ने ही मुझे हजारों पुस्तकें पढ़ डालने और साठ ग्रन्थों के प्रणयन का अवसर ला दिया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 भविष्य का सतयुगी समाज
🔵 बूंदें अलग-अलग रह कर अपनी श्री गरिमा का परिचय नहीं दे सकती। उन्हें हवा का एक झोंका भर सुखा देने में समर्थ होता है। पर जब वे मिलकर एक विशाल जलाशय का रूप धारण करती है, तो फिर उनकी समर्थता और व्यापकता देखते ही बनती है। इस तथ्य को हमें समूची मानव जाति को एकता के केन्द्र पर केन्द्रित करने के लिए साहसिक तत्परता अपनाते हुए संभव कर दिखाना होगा।
🔴 धर्म सम्प्रदाओं की विभाजन रेखा भी ऐसी है जो अपनी मान्यताओं को सच और दूसरों के प्रतिपादनों को झूठा सिद्ध करने में अपने बुद्धि वैभव से शास्त्रार्थों, टकरावों के आ पड़ने पर उतरती रही है। अस्त्र शस्त्रों वाले युद्धों ने कितना विनाश किया है, उसका प्रत्यक्ष होने के नाते लेखा जोखा लिया जा सकता है। पर अपनी धर्म मान्यता दूसरों पर थोपने के लिए कितना दबाव और कितना प्रलोभन, कितना पक्षपात और कितना अन्याय कामों में लगाया गया है, इसकी परोक्ष विवेचना किया जाना संभव हो तो प्रतीत होगा कि इस क्षेत्र के आक्रमण भी कम दुखदायी नहीं रहे है। आगे भी उसका इसी प्रकार परिपोषण और प्रचलन होता रहा तो विवाद, विनाश और विषाद घटेंगे नहीं बढ़ते ही रहेंगे। अनेकता में एकता खोज निकालने वाली दूरदर्शिता को सम्प्रदायवाद के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए।
🔵 आरंभिक दिनों में सर्व-धर्म-समभाव, सहिष्णुता, बिना टकराये अपनी-अपनी मर्जी पर चलने की स्वतंत्रता अपनाए रहना ठीक है काम चलाऊ नीति है। अन्ततः विश्व मानव का एक ही मानव-धर्म होगा। उसके सिद्धान्त चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के साथ जुड़ने वाली आदर्शवादिता पर अवलम्बित होंगे। मान्यताओं और परम्पराओं में से प्रत्येक को तर्क, तथ्य, प्रमाण, परीक्षण एवं अनुभव की कसौटियों पर करने के उपरान्त ही विश्व धर्म की मान्यता मिलेगी। संक्षेप में उसे आदर्शवादी व्यक्तित्व और न्यायोचित निष्ठा पर अवलम्बित माना जाएगा। विश्व धर्म की बात आज भले ही सघन तमिस्रा में कठिन मालूम पड़ती हो पर वह समय दूर नहीं, जब एकता का सूर्य उगेगा और इस समय जो अदृश्य है, असंभव प्रतीत होता है, वह उस बेला में प्रत्यक्ष एवं प्रकाशवान होकर रहेगा। यहीं है आने वाली सतयुगी समाज व्यवस्था की कुछ झलकियाँ जो हर आस्तिक को भविष्य के प्रति आशावान् बनाती है।
🌹 पूज्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
🌹 अखण्ड ज्योति, नवम्बर 1988 पृष्ठ 54
🔴 धर्म सम्प्रदाओं की विभाजन रेखा भी ऐसी है जो अपनी मान्यताओं को सच और दूसरों के प्रतिपादनों को झूठा सिद्ध करने में अपने बुद्धि वैभव से शास्त्रार्थों, टकरावों के आ पड़ने पर उतरती रही है। अस्त्र शस्त्रों वाले युद्धों ने कितना विनाश किया है, उसका प्रत्यक्ष होने के नाते लेखा जोखा लिया जा सकता है। पर अपनी धर्म मान्यता दूसरों पर थोपने के लिए कितना दबाव और कितना प्रलोभन, कितना पक्षपात और कितना अन्याय कामों में लगाया गया है, इसकी परोक्ष विवेचना किया जाना संभव हो तो प्रतीत होगा कि इस क्षेत्र के आक्रमण भी कम दुखदायी नहीं रहे है। आगे भी उसका इसी प्रकार परिपोषण और प्रचलन होता रहा तो विवाद, विनाश और विषाद घटेंगे नहीं बढ़ते ही रहेंगे। अनेकता में एकता खोज निकालने वाली दूरदर्शिता को सम्प्रदायवाद के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए।
🔵 आरंभिक दिनों में सर्व-धर्म-समभाव, सहिष्णुता, बिना टकराये अपनी-अपनी मर्जी पर चलने की स्वतंत्रता अपनाए रहना ठीक है काम चलाऊ नीति है। अन्ततः विश्व मानव का एक ही मानव-धर्म होगा। उसके सिद्धान्त चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के साथ जुड़ने वाली आदर्शवादिता पर अवलम्बित होंगे। मान्यताओं और परम्पराओं में से प्रत्येक को तर्क, तथ्य, प्रमाण, परीक्षण एवं अनुभव की कसौटियों पर करने के उपरान्त ही विश्व धर्म की मान्यता मिलेगी। संक्षेप में उसे आदर्शवादी व्यक्तित्व और न्यायोचित निष्ठा पर अवलम्बित माना जाएगा। विश्व धर्म की बात आज भले ही सघन तमिस्रा में कठिन मालूम पड़ती हो पर वह समय दूर नहीं, जब एकता का सूर्य उगेगा और इस समय जो अदृश्य है, असंभव प्रतीत होता है, वह उस बेला में प्रत्यक्ष एवं प्रकाशवान होकर रहेगा। यहीं है आने वाली सतयुगी समाज व्यवस्था की कुछ झलकियाँ जो हर आस्तिक को भविष्य के प्रति आशावान् बनाती है।
🌹 पूज्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
🌹 अखण्ड ज्योति, नवम्बर 1988 पृष्ठ 54
👉 मूर्तिमान् सांस्कृतिक स्वाभिमानी
🔴 एक बडे विद्यालय में, जिसमें अधिकांश छात्र अप दू डेट फैशन वाले दिखाई पडते थे। एक नये विद्यार्थी ने प्रवेश लिया। प्रवेश के समय उसकी पोशाक धोती, कुर्ता, टोपी, जाकेट और पैरों में साधारण चप्पल।
🔵 विद्यालय के छात्रों के लिए सर्वथा नया दृश्य था। कुछ इस विचित्रता पर हँसे, कुछ ने व्यंग्य किया- तुम कैसे विद्यार्थी हो ? तुम्हें अप टू डेट रहना भी नहीं आता ? कम-से-कम अपना पहनावा तो ऐसा बनाओ, जिससे लोग इतना तो जान सकें कि तुम एक बड़े विद्यालय के विद्यार्थी हो।
🔴 छात्र ने हँसकर उत्तर दिया अगर पोशाक पहनने से ही व्यक्तित्व ऊपर उठ जाता है तो पैंट और कोट पहनने वाले हर अंग्रेज महान् पंडित होते, मुझे तो उनमें ऐसी कोई
विशेषता नहीं देती। रही शान घटने की बात तो अगर सात समुद्र पार से आने वाले और भारतवर्ष जैसे गर्म देश में ठंडे मुल्क के अंग्रेज केवल इसलिए अपनी पोशाक नही बदल सकते कि वह इनकी संस्कृति का अंग। है, तो मैं ही अपनी संस्कृति को क्यों हेय होने दूँ ? मुझे अपने मान, प्रशंसा और प्रतिष्ठा से ज्यादा धर्म प्यारा है, संस्कृति प्रिय है, जिसे जो कहना हो कहे, मैं अपनी संस्कृति का परित्याग नहीं कर सकता। भारतीय पोशाक छोड देना मेरे लिए मरणतुल्य है।''
🔵 लोगों को क्या पता था कि साधारण दिखाई देने वाला छात्र लौहनिष्ठा का प्रतीक है। इसके अंतःकरण मे तेजस्वी विचारों की ज्वालाग्नि जल रही है। उसने व्यक्तित्व और विचारों से विद्यालय को इतना प्रभावित किया कि विद्यालय के छात्रों ने उसे अपना नेता बना लिया, छात्र-यूनियन का अध्यक्ष निर्वाचित किया। इस विद्यार्थी को सारा देश गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम से जानता है।
🔴 गणेश शंकर अपनी संस्कृति के जितने भक्त थे उतने ही न्यायप्रिय भी थे। इस मामले में किसी भी कठोर टक्कर से वह नही घबराते थे और न ही जातीय या सांप्रदायिक भेदभाव आने देते थे।
🔵 उन दिनो पोस्टकार्ड का टिकट काटकर कागज में चिपका कर भेजना कानून-विरुद्ध न था। गणेश शंकर विद्याथी ने ऐसा ही एक टिकट चिपकाया हुआ पोस्ट कार्ड प्रेषित किया। पोस्टल डिपार्टमेंट ने उसे बैरंग कर दिया। युवक ने इसके लिये फड़फडाती लिखा-पढी की, जिससे घबराकर अधिकारियों को अपनी भूल स्वीकार करनी पडी।
🔴 न्याय और निष्ठा के पुजारी विद्यार्थी जी मानवीय एकता और सहृदयता के भी उतने ही समर्थक थे। इस दृष्टि से तो यह युवक-संत कहलाने योग्य हैं। अत्याचार वे किसी पर भी नहीं देख सकते थे। १९३१ में जब हिंदू-मुसलमानों के बीच दंगा फैला तो गणेश शंकर जी ने बडी बहादुरी के साथ उसे मिटाने का प्रयास किया। जिन मुसलमान बस्तियों में अकेले जाने की हिम्मत अधिकारियों की भी न होती थी वहाँ विद्यार्थी जी बेखटके चले जाते थे। कानपुर मे उन्होंने हजारों हिंदू-मुसलमानों को कटने से बचाया।
🔵 दुर्भाग्य से एक धर्मांध मुसलमान के हाथों वह शहीद हो गये, पर अल्पायु में ही वह मानवीय एकता न्याय और संस्कृतिनिष्ठा का जो पाठ पढा गये वह अभूतपूर्व है। उससे अंनत भविष्य तक हमारे समाज में गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे युवक जन्म लेते रहेगे, तब तक भारतीय संस्कृति का मुख भी उज्जल बना रहेगा।
🔵 विद्यालय के छात्रों के लिए सर्वथा नया दृश्य था। कुछ इस विचित्रता पर हँसे, कुछ ने व्यंग्य किया- तुम कैसे विद्यार्थी हो ? तुम्हें अप टू डेट रहना भी नहीं आता ? कम-से-कम अपना पहनावा तो ऐसा बनाओ, जिससे लोग इतना तो जान सकें कि तुम एक बड़े विद्यालय के विद्यार्थी हो।
🔴 छात्र ने हँसकर उत्तर दिया अगर पोशाक पहनने से ही व्यक्तित्व ऊपर उठ जाता है तो पैंट और कोट पहनने वाले हर अंग्रेज महान् पंडित होते, मुझे तो उनमें ऐसी कोई
विशेषता नहीं देती। रही शान घटने की बात तो अगर सात समुद्र पार से आने वाले और भारतवर्ष जैसे गर्म देश में ठंडे मुल्क के अंग्रेज केवल इसलिए अपनी पोशाक नही बदल सकते कि वह इनकी संस्कृति का अंग। है, तो मैं ही अपनी संस्कृति को क्यों हेय होने दूँ ? मुझे अपने मान, प्रशंसा और प्रतिष्ठा से ज्यादा धर्म प्यारा है, संस्कृति प्रिय है, जिसे जो कहना हो कहे, मैं अपनी संस्कृति का परित्याग नहीं कर सकता। भारतीय पोशाक छोड देना मेरे लिए मरणतुल्य है।''
🔵 लोगों को क्या पता था कि साधारण दिखाई देने वाला छात्र लौहनिष्ठा का प्रतीक है। इसके अंतःकरण मे तेजस्वी विचारों की ज्वालाग्नि जल रही है। उसने व्यक्तित्व और विचारों से विद्यालय को इतना प्रभावित किया कि विद्यालय के छात्रों ने उसे अपना नेता बना लिया, छात्र-यूनियन का अध्यक्ष निर्वाचित किया। इस विद्यार्थी को सारा देश गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम से जानता है।
🔴 गणेश शंकर अपनी संस्कृति के जितने भक्त थे उतने ही न्यायप्रिय भी थे। इस मामले में किसी भी कठोर टक्कर से वह नही घबराते थे और न ही जातीय या सांप्रदायिक भेदभाव आने देते थे।
🔵 उन दिनो पोस्टकार्ड का टिकट काटकर कागज में चिपका कर भेजना कानून-विरुद्ध न था। गणेश शंकर विद्याथी ने ऐसा ही एक टिकट चिपकाया हुआ पोस्ट कार्ड प्रेषित किया। पोस्टल डिपार्टमेंट ने उसे बैरंग कर दिया। युवक ने इसके लिये फड़फडाती लिखा-पढी की, जिससे घबराकर अधिकारियों को अपनी भूल स्वीकार करनी पडी।
🔴 न्याय और निष्ठा के पुजारी विद्यार्थी जी मानवीय एकता और सहृदयता के भी उतने ही समर्थक थे। इस दृष्टि से तो यह युवक-संत कहलाने योग्य हैं। अत्याचार वे किसी पर भी नहीं देख सकते थे। १९३१ में जब हिंदू-मुसलमानों के बीच दंगा फैला तो गणेश शंकर जी ने बडी बहादुरी के साथ उसे मिटाने का प्रयास किया। जिन मुसलमान बस्तियों में अकेले जाने की हिम्मत अधिकारियों की भी न होती थी वहाँ विद्यार्थी जी बेखटके चले जाते थे। कानपुर मे उन्होंने हजारों हिंदू-मुसलमानों को कटने से बचाया।
🔵 दुर्भाग्य से एक धर्मांध मुसलमान के हाथों वह शहीद हो गये, पर अल्पायु में ही वह मानवीय एकता न्याय और संस्कृतिनिष्ठा का जो पाठ पढा गये वह अभूतपूर्व है। उससे अंनत भविष्य तक हमारे समाज में गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे युवक जन्म लेते रहेगे, तब तक भारतीय संस्कृति का मुख भी उज्जल बना रहेगा।
👉 टूटे हुए हाथ से दी गई परीक्षा
🔴 १३ दिसम्बर २०१०ई. की बात है। बी.एससी. के प्रथम सेमेस्टर की मेरी परीक्षा चल रही थी। सभी पेपर अच्छे जा रहे थे। बस अंतिम तीन पेपर बचे थे। अगले दिन के पेपर की तैयारी चल रही थी। कुछ साथी तो सो गए थे, पर मैं कुछ साथियों के साथ देर रात तक पढ़ाई करता रहा।
🔵 हम अपनी पढ़ाई समाप्त करने की सोच ही रहे थे कि मेरा एक मित्र किसी और का मोबाइल लेकर आ पहुँचा। हम लोग पढ़ाई की थकान को मिटाने के लिए उसके मोबाइल से गाना सुनने लगे।
🔴 गाना सुनते- सुनते मैंने वह मोबाइल अपने हाथ में ले लिया। थोड़ी देर बाद उस मित्र ने मोबाइल लेकर वापस जाने की बात कही। गाना रुचिकर लग रहा था, इसलिए मैंने उससे कुछ देर और रुकने का आग्रह किया। लेकिन वह मेरी बात नहीं मानकर मेरे हाथ से मोबाइल छीनने लगा।
🔵 छीना- झपटी कुछ ही देर में हाथापाई में बदल गई। उस हाथापाई में मेरा हाथ डोरमेटरी की दीवार से जोर से जा लगा। मेरे अँगूठे और कलाई के बीच के ज्वाइंट पर गहरी चोट लगी। उस समय तो आवेश में मुझे जरा भी महसूस नहीं हुआ, परन्तु झगड़ा समाप्त होने के बाद मेरे हाथ में दर्द शुरू हुआ। कुछ ही पलों में पीड़ा असहनीय हो गई। कराहते हुए मैंने यह बात अपने मित्र प्रणव को बतायी। उसने देखा कि मेरे हाथ में सूजन आ गई है।
🔴 जैसे ही उसने मेरा हाथ छुआ, मेरी चीख निकल गयी। पीड़ा की अधिकता से मुझ पर बेहोशी छाने लगी थी। उसने मुझे अपने हाथ से पानी पिलाया, फिर बिस्तर पर लिटाकर मेरे हाथ में एक क्रेप बैन्डेज बाँध दिया और कहा- सो जाओ।
🔵 रात का लगभग एक बज रहा था। उस वक्त कहीं, किसी डॉक्टर के पास भी नहीं जा सकते थे। प्रणव मेरी बिगड़ती हुई हालत को देखकर गुरुदेव से मेरे लिए प्रार्थना करने लगा। मैंने सोने की कोशिश की, लेकिन पीड़ा के कारण सो नहीं सका।
🔴 रात भर यही सोचता रहा कि अब क्या होगा, सुबह मैं इम्तहान कैसे दूँगा? जैसे- तैसे सुबह हुई, रात भर में ही मेरा हाथ फूलकर तुम्बा बन गया था। मुझे लग रहा था कि अब मैं परीक्षा नहीं दे पाऊँगा।
🔵 मैंने पूज्य गुरुदेव से मन ही मन कहा- गुरुदेव, जब आपने मुझे रात में बार- बार बेहोश होने से बचाया है, तो अब परीक्षा देने की भी शक्ति दे दीजिए। कुछ ही पलों में मेरा आत्मविश्वास वापस लौट आया। मैंने दृढ़ निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं परीक्षा अवश्य दूँगा।
🔴 परीक्षा भवन में जब प्रश्न पत्र बाँटे जा चुके, तो मैंने एक बार फिर पूज्य गुरुदेव को याद किया और दाँत भींचकर कलम को बैंडेज के अन्दर घुसा दिया। जब मैंने तीन उँगलियों से कलम को पकड़ा, तो दर्द से बिलबिला उठा, लिखने की कोशिश की तो जान निकलने लगी। दो- तीन कोशिशों के बाद मैं लिखने में कामयाब हो गया। लिखते- लिखते तीन घण्टे कैसे बीत गए, मुझे पता तक नहीं चला।
🔵 परीक्षा भवन से बाहर आने के बाद मेरा ध्यान हाथ की तरफ गया। मैंने महसूस किया कि तीन घण्टे तक तेजी से लिखने के बाद भी दर्द बढ़ने के बजाय कुछ हद तक घट ही गया है। बाकी के बचे दो पेपर्स की परीक्षाएँ भी गुरुदेव की अनुकम्पा से पूरी हो गईं।
🔴 परीक्षा खत्म होने के बाद मैंने रामकृष्ण परमहंस हॉस्पिटल, कनखल में अपना हाथ डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद एक्स- रे कराने की सलाह दी। एक्स- रे रिपोर्ट से पता चला कि हाथ में सीवियर फ्रेक्चर है, हड्डी डिस्प्लेस्ड हो गई है, जिसको ऑपरेशन के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है।
🔵 ऑपरेशन का नाम सुनते ही मैं घबरा उठा। परीक्षा तो बीत ही गई थी। छुट्टियों की घोषणा हो गई थी। सभी बच्चे अपने- अपने घर जा रहे थे। मैं भी घर चला गया। वहाँ पहुँचने पर पिताजी ने मुझे एक बड़े हॉस्पिटल में दिखाया। वहाँ के डॉक्टर ने भी यही कहा कि ऑपरेशन जरूरी है।
🔴 २० दिसम्बर की दोपहर का ठीक १२ बजे का समय ऑपरेशन के लिए तय हुआ। १५ मिनट पहले मुझे हरे रंग का ड्रेसिंग गाऊन पहनाकर ऑपरेशन थियेटर ले जाया गया।
🔵 एक बार फिर मैंने आँखें बन्द कीं और पूज्य गुरुदेव पर अपने जीवन तथा इस ऑपरेशन का पूरा भार सौंप दिया। अगले ही पल मुझे लगा कि पूज्य गुरुदेव ऑपरेशन थियेटर में मेरे सिरहाने खड़े होकर मेरा सिर सहला रहे हैं।
🔴 ऑपरेशन को लेकर मेरा सारा डर पल भर में भाग गया। थोड़ी देर बाद डॉक्टर साहब आए, आते ही उन्होंने हाथ में एक- एक करके छः इंजेक्शन लगा दिए। फिर मेरे हाथ पर फोकस करके स्क्रीन पर उसकी अन्दरूनी हालत देखते रहे। मैं भी सामने रखे उस कंप्यूटर स्क्रीन पर हाथ की जगह- जगह से टूटी हड्डियों को मजे ले- लेकर देख रहा था। अब ऑपरेशन शुरू हुआ। सबसे पहले ड्रिल मशीन से हाथ की हड्डी में कई जगह गहरे छेद किए गए, फिर उनमें स्टील के रॉड डालकर मशीन से फिक्स किये गए। ड्रिल करते समय खून की धारा में हड्डियों के बुरादे तैरते हुए निकल रहे थे।
🔵 पीड़ा तो मर्मान्तक हुई, पर पास में गुरुदेव के मौजूद होने से मनोबल बना रहा। मैंने दाँत भींचकर आँसुओं में डूबी हुई आँखों से गुरुदेव की ओर देखा। वे मुझे ही देख रहे थे। उनसे आँखें मिलते ही मेरी सारी पीड़ा एक पल में समाप्त हो गई।
🔴 ऑपरेशन बड़े आराम से पूरा हुआ। आज मैं अपने इस हाथ से सारे काम अच्छी तरह से कर लेता हूँ। अब तो मुझे लगने लगा है कि बड़े हाथी का न सही, लेकिन हाथी के बच्चे का बल तो मेरे इस हाथ में आ ही गया है।
🌹 नितेश शर्मा, बहराइच (उ.प्र.
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/won/exam.1
🔵 हम अपनी पढ़ाई समाप्त करने की सोच ही रहे थे कि मेरा एक मित्र किसी और का मोबाइल लेकर आ पहुँचा। हम लोग पढ़ाई की थकान को मिटाने के लिए उसके मोबाइल से गाना सुनने लगे।
🔴 गाना सुनते- सुनते मैंने वह मोबाइल अपने हाथ में ले लिया। थोड़ी देर बाद उस मित्र ने मोबाइल लेकर वापस जाने की बात कही। गाना रुचिकर लग रहा था, इसलिए मैंने उससे कुछ देर और रुकने का आग्रह किया। लेकिन वह मेरी बात नहीं मानकर मेरे हाथ से मोबाइल छीनने लगा।
🔵 छीना- झपटी कुछ ही देर में हाथापाई में बदल गई। उस हाथापाई में मेरा हाथ डोरमेटरी की दीवार से जोर से जा लगा। मेरे अँगूठे और कलाई के बीच के ज्वाइंट पर गहरी चोट लगी। उस समय तो आवेश में मुझे जरा भी महसूस नहीं हुआ, परन्तु झगड़ा समाप्त होने के बाद मेरे हाथ में दर्द शुरू हुआ। कुछ ही पलों में पीड़ा असहनीय हो गई। कराहते हुए मैंने यह बात अपने मित्र प्रणव को बतायी। उसने देखा कि मेरे हाथ में सूजन आ गई है।
🔴 जैसे ही उसने मेरा हाथ छुआ, मेरी चीख निकल गयी। पीड़ा की अधिकता से मुझ पर बेहोशी छाने लगी थी। उसने मुझे अपने हाथ से पानी पिलाया, फिर बिस्तर पर लिटाकर मेरे हाथ में एक क्रेप बैन्डेज बाँध दिया और कहा- सो जाओ।
🔵 रात का लगभग एक बज रहा था। उस वक्त कहीं, किसी डॉक्टर के पास भी नहीं जा सकते थे। प्रणव मेरी बिगड़ती हुई हालत को देखकर गुरुदेव से मेरे लिए प्रार्थना करने लगा। मैंने सोने की कोशिश की, लेकिन पीड़ा के कारण सो नहीं सका।
🔴 रात भर यही सोचता रहा कि अब क्या होगा, सुबह मैं इम्तहान कैसे दूँगा? जैसे- तैसे सुबह हुई, रात भर में ही मेरा हाथ फूलकर तुम्बा बन गया था। मुझे लग रहा था कि अब मैं परीक्षा नहीं दे पाऊँगा।
🔵 मैंने पूज्य गुरुदेव से मन ही मन कहा- गुरुदेव, जब आपने मुझे रात में बार- बार बेहोश होने से बचाया है, तो अब परीक्षा देने की भी शक्ति दे दीजिए। कुछ ही पलों में मेरा आत्मविश्वास वापस लौट आया। मैंने दृढ़ निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं परीक्षा अवश्य दूँगा।
🔴 परीक्षा भवन में जब प्रश्न पत्र बाँटे जा चुके, तो मैंने एक बार फिर पूज्य गुरुदेव को याद किया और दाँत भींचकर कलम को बैंडेज के अन्दर घुसा दिया। जब मैंने तीन उँगलियों से कलम को पकड़ा, तो दर्द से बिलबिला उठा, लिखने की कोशिश की तो जान निकलने लगी। दो- तीन कोशिशों के बाद मैं लिखने में कामयाब हो गया। लिखते- लिखते तीन घण्टे कैसे बीत गए, मुझे पता तक नहीं चला।
🔵 परीक्षा भवन से बाहर आने के बाद मेरा ध्यान हाथ की तरफ गया। मैंने महसूस किया कि तीन घण्टे तक तेजी से लिखने के बाद भी दर्द बढ़ने के बजाय कुछ हद तक घट ही गया है। बाकी के बचे दो पेपर्स की परीक्षाएँ भी गुरुदेव की अनुकम्पा से पूरी हो गईं।
🔴 परीक्षा खत्म होने के बाद मैंने रामकृष्ण परमहंस हॉस्पिटल, कनखल में अपना हाथ डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद एक्स- रे कराने की सलाह दी। एक्स- रे रिपोर्ट से पता चला कि हाथ में सीवियर फ्रेक्चर है, हड्डी डिस्प्लेस्ड हो गई है, जिसको ऑपरेशन के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है।
🔵 ऑपरेशन का नाम सुनते ही मैं घबरा उठा। परीक्षा तो बीत ही गई थी। छुट्टियों की घोषणा हो गई थी। सभी बच्चे अपने- अपने घर जा रहे थे। मैं भी घर चला गया। वहाँ पहुँचने पर पिताजी ने मुझे एक बड़े हॉस्पिटल में दिखाया। वहाँ के डॉक्टर ने भी यही कहा कि ऑपरेशन जरूरी है।
🔴 २० दिसम्बर की दोपहर का ठीक १२ बजे का समय ऑपरेशन के लिए तय हुआ। १५ मिनट पहले मुझे हरे रंग का ड्रेसिंग गाऊन पहनाकर ऑपरेशन थियेटर ले जाया गया।
🔵 एक बार फिर मैंने आँखें बन्द कीं और पूज्य गुरुदेव पर अपने जीवन तथा इस ऑपरेशन का पूरा भार सौंप दिया। अगले ही पल मुझे लगा कि पूज्य गुरुदेव ऑपरेशन थियेटर में मेरे सिरहाने खड़े होकर मेरा सिर सहला रहे हैं।
🔴 ऑपरेशन को लेकर मेरा सारा डर पल भर में भाग गया। थोड़ी देर बाद डॉक्टर साहब आए, आते ही उन्होंने हाथ में एक- एक करके छः इंजेक्शन लगा दिए। फिर मेरे हाथ पर फोकस करके स्क्रीन पर उसकी अन्दरूनी हालत देखते रहे। मैं भी सामने रखे उस कंप्यूटर स्क्रीन पर हाथ की जगह- जगह से टूटी हड्डियों को मजे ले- लेकर देख रहा था। अब ऑपरेशन शुरू हुआ। सबसे पहले ड्रिल मशीन से हाथ की हड्डी में कई जगह गहरे छेद किए गए, फिर उनमें स्टील के रॉड डालकर मशीन से फिक्स किये गए। ड्रिल करते समय खून की धारा में हड्डियों के बुरादे तैरते हुए निकल रहे थे।
🔵 पीड़ा तो मर्मान्तक हुई, पर पास में गुरुदेव के मौजूद होने से मनोबल बना रहा। मैंने दाँत भींचकर आँसुओं में डूबी हुई आँखों से गुरुदेव की ओर देखा। वे मुझे ही देख रहे थे। उनसे आँखें मिलते ही मेरी सारी पीड़ा एक पल में समाप्त हो गई।
🔴 ऑपरेशन बड़े आराम से पूरा हुआ। आज मैं अपने इस हाथ से सारे काम अच्छी तरह से कर लेता हूँ। अब तो मुझे लगने लगा है कि बड़े हाथी का न सही, लेकिन हाथी के बच्चे का बल तो मेरे इस हाथ में आ ही गया है।
🌹 नितेश शर्मा, बहराइच (उ.प्र.
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/won/exam.1
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