सोमवार, 3 सितंबर 2018

👉 ईश्वर प्राप्ति की मनोदशा

🔷 एक जिज्ञासु ने किसी महात्मा से पूछा-ईश्वर किन को मिल सकता है? महात्मा ने कुछ उत्तर न दिया। कई दिन वही प्रश्न पूछने पर एक दिन महात्मा उसे नदी में स्नान कराने ले गये और उस जिज्ञासु को साथ लेकर गले तक पानी में घुस गये। यहाँ पहुँचकर उनने उस व्यक्ति की गरदन पकड़ ली और जोर से पानी में दबोच दिया। कई मिनट बाद उसे छोड़ा तो वह साँस घुटने से बुरी तरह हाँफ रहा था।

🔶 महात्मा ने पूछा जब तुम्हें पानी में डुबाया गया तो उस समय तुम्हारी मनोदशा क्या थी? उसमें उत्तर दिया में केवल यह सोचता था कि किसी प्रकार मेरे प्राण बचें और बाहर निकले, इसके अतिरिक्त और कोई विचार मेरे मन में नहीं उठ रहा था। महात्मा ने कहा-जैसी तुम्हारी मनोदशा पानी में डूबे रहते थी, वैसी ही व्याकुलता और एक मात्र इच्छा यदि परमात्मा के प्राप्त करने के लिये किसी की हो जाय तो उसे अविलम्ब परमात्मा मिल सकता है।

🔷 परमात्मा को प्राप्त करने के लिये जिसमें तीव्र लगन और सच्ची आकांक्षा है उसको प्रभु की प्राप्ति में बहुत विलम्ब नहीं लगता।

📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1961

👉 प्रेम का परिमाण

🔷 गौतम बुद्ध यात्रा पर थे। रास्ते में उनसे लोग मिलते। कुछ उनके दर्शन करके संतुष्ट हो जाते तो कुछ अपनी समस्याएं रखते थे। बुद्ध सबकी परेशानियों का समाधान करते थे।

🔶 एक दिन बुद्ध कहीं जा रहे थे, रास्ते में एक व्यक्ति मिला वह चलते-चलते बुद्ध को अपनी समस्या सुनाने लगा बोला- “मैं एक विचित्र तरह के द्वंद्व से गुजर रहा हूँ। मैं लोगों को प्यार तो करता हूँ पर मुझे बदले में कुछ नहीं मिलता। जब मैं किसी के प्रति स्नेह रखता हूँ तो यह अपेक्षा तो करूंगा ही कि बदले में मुझे भी स्नेह या संतुष्टि मिले। लेकिन मुझे ऐसा कुछ नहीं मिलता। मेरा जीवन स्नेह से वंचित है। मैं स्वयं को अकेला महसूस करता हूँ।

🔷 कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे व्यवहार में ही कोई कमी है? कृपया बताएं कि मुझ में कहां गलती और कमी है?” बुद्ध ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया, वे चुप रहे! सब चलते रहे। चलते-चलते बुद्ध के एक शिष्य को प्यास लगी। कुआं पास ही था।

🔶 रस्सी और बाल्टी भी पड़ी हुई थी। शिष्य ने बाल्टी कुएं में डाली और खींचने लगा। कुआं गहरा था। पानी खींचते-खींचते उसके हाथ थक गए पर वह पानी नहीं भर पाया क्योंकि बाल्टी जब भी ऊपर आती खाली ही रहती।

🔷 सभी यह देखकर हंसने लगे। हालांकि कुछ यह भी सोच रहे थे कि इसमें कोई चमत्कार तो नहीं? थोड़ी देर में सबको कारण समझ में आ गया। दरअसल बाल्टी में छेद था।

🔶 बुद्ध ने उस व्यक्ति की तरफ देखा और कहा- “हमारा मन भी इसी बाल्टी की ही तरह है जिसमें कई छेद हैं। आखिर इसमें प्रेम का पानी टिकेगा भी तो कैसे?

🔷 मन में यदि सुराख रहेगा तो उसमें प्रेम भरेगा कैसे। क्या वह रुक पाएगा? तुम्हें प्रेम मिलता भी है तो टिकता नहीं है। तुम उसे अनुभव नहीं कर पाते क्योंकि मन में बदले की अपेक्षा रूपी विकार का छेद हैं। तुम प्रेम दो पर अपेक्षा छोड दो। अभी तुम्हे जो प्रेम मिलता भी है उसे अपेक्षा की तराजू पर रख कर तौल देते हो सो वह स्वतः हल्का हो जाता है। लेकिन जब ये अपेक्षा की तराजू फेंक कर देखोगे तो सबका प्रेम अधिक ही महसूस होगा।“

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 3 September 2018

👉 आज का सद्चिंतन 3 September 2018


👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 3)

👉 विज्ञान और प्रत्यक्षवाद ने क्या सचमुच हमें सुखी बनाया है?  

🔷 समय का बदलाव, वैज्ञानिक उपलब्धियों तक, तर्क के आधार पर, प्रदर्शन करने के रूप में जब लाभदायक प्रतीत होता है तो उसके स्थान पर तप, संयम, परमार्थ जैसी उन मान्यताओं को क्यों स्वीकार कर लिया जाए, जो आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की दृष्टि से कितनी ही सराही क्यों न जाती हो, पर तात्कालिक लाभ की कसौटी पर उनके कारण घाटे में ही रहना पड़ता है।
  
🔶 नए समय के नए तर्क, अपराधियों-स्वेच्छाचारियों से लेकर हवा के साथ बहने वाले मनीषियों तक को समान रूप से अनुकूल पड़ते हैं और मान्यता के रूप में अंगीकार करने में भी सुविधाजनक प्रतीत होते हैं, तो हर कोई उसी को स्वीकार क्यों न करे? उसी दिशा में क्यों न चलें? मनीषी नीत्से ने दृढ़तापूर्वक घोषणा की है कि ‘‘तर्क के इस युग में पुरानी मान्यताओं पर आधारित ईश्वर मर चुका। अब उसे इतना गहरा दफना दिया गया है कि भविष्य में कभी उसके जीवित होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।’’ धर्म के सम्बन्ध में भी प्रत्यक्षवादी बौद्धिक बहुमत ने यही कहा है कि वह अफीम की गोली भर है, जो पिछड़ों को त्रास सहते रहने और विपन्नता के विरुद्ध मुँह न खोलने के लिए बाधित करता है, साथ ही वह अनाचारियों को निर्भय बनाता है ताकि लोक में अपनी चतुरता और समर्थता के बल पर वे उन कार्यों को करते रहें, जिन्हें अन्याय कहा जाता है।

🔷 परलोक का प्रश्न यदि आड़े आता हो तो वहाँ से बच निकलना और भी सरल है। किसी देवी-देवता की पूजा-पत्री कर देने या धार्मिक कर्मकाण्ड का सस्ता-सा आडम्बर बना देने भर से पाप-कर्मों के दण्ड से सहज छुटकारा मिल जाता है। जब इतने सस्ते में तथाकथित पापों की प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है तो रास्ता बिल्कुल साफ है। मौज से मनमानी करते रहा जा सकता है और उससे कोई कठोर प्रतिफल की आशंका हो तो पूजा-पाठ के सस्ते से खेल-खिलवाड़ करने से वह आशंका भी निरस्त हो सकती है।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 5

👉 Awakening of Supernormal Faculties Through Sadhana (Part 1)

🔷 A human being is a repository of innumerable potentials. Being the highest creation of God (Supreme Consciousness) on earth, human beings have, in principle, inherited all His divine attributes. Nevertheless, God has placed necessary safeguards against the misuse of these faculties. These divine capabilities are accessible only to those who have the wisdom of their righteous use. It is a time-tested principle of Nature that boons are granted according to the worthiness of the aspirant.

🔶 All those who have risen to great heights could do so only by practising this principle in their lives. The principle of accessing supernormal faculties (siddhi) through sadhana (self-discipline) is unquestionable. In fact, through the medium of deities, we endeavour to infuse self-discipline in ourselves. It has been possible for mankind to achieve material and cultural progress through the formulation and observance of the necessary codes of conduct and behaviour for the control and refinement of the wayward and crude impulses of the lower human self.

🔷 Those who aspire for self-transformation have to adopt this practice of conscious self-discipline in their lives. Human life, with myriads of latent physical, mental and spiritual qualities, may be likened to a garden of sweet fruits. Even if only a few of these qualities are cultivated systematically, one can relish the fruits of joy. But if the baser tendencies and bodily habits are left undisciplined, they run amuck. Such aimless life leads to the growth of thorny bushes of misery and suffering in the garden of life. Like a kalpavriksha (a mythological tree supposed to fulfil every desire of a person sitting beneath it), the human life is potentially full of innumerable precious gifts. One can benefit from these divine gifts only when life's energies are properly focused, disciplined and directed towards noble deeds. The efforts made towards this end have been called sadhana.

📖 Akhand Jyoti, May June 2003

👉 आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है (भाग 1)

🔷 यह विचार निश्चय ही भ्राँतिपूर्ण है कि धन-वैभव, मान-सम्मान तथा पद-प्रतिष्ठा पा लेने पर जीवन सफल एवं सार्थक हो जाता है। यह उन उपलब्धियों की तुलना में तुच्छ एवं नगण्य है, जिन्हें आगे बढ़ कर और वर्तमान भूमिका से ऊपर उठकर अवश्य पाया जा सकता है।

🔶 विद्या-बुद्धि, पुत्र-कलत्र ऐश्वर्य एवं वैभव आदि समस्त साँसारिक उपलब्धियाँ अस्थिर तथा क्षणभंगुर हैं। हजारों लोगों को यह नित्य प्रति मिलती और मिटती रहती हैं। इनकी प्राप्ति होने से सुख हो जाता है और चले जाने से दुःख होता है। संसार की यह सारी अस्थिर उपलब्धियाँ मनुष्य को सुख-दुःख के दोलन में झुलाती रहती हैं जिससे चित्त क्षुब्ध एवं व्याकुल रहता है। इन उपलब्धियों के सुख में भी दुःख छिपा रहता है। मनुष्य अच्छी तरह जानता है कि यह सब विभूतियाँ नश्वर एवं गमनशील हैं। किसी समय भी नष्ट हो सकती हैं, छोड़ कर जा सकती है। इन्हें पाकर मनुष्य इनकी रक्षा, इन्हें अपने पास बनाये रहने के लिए दिन-रात व्यग्र एवं व्यस्त रहा करता है। ऐसी दशा में सुख संतोष अथवा निश्चिन्तता का होना सम्भव नहीं। इस प्रकार इन साँसारिक उपलब्धियों की प्राप्ति एवं अप्राप्ति दोनों ही दुःख का कारण हैं।

🔷 संसार में रह कर साँसारिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने का प्रयत्न करना बुरा नहीं। बुरा है उनके लोभ में उस महान लाभ का त्याग कर देना जो स्थिर एवं शाश्वत सुख का हेतु है। ऐसा सुख जिसमें न तो विक्षेप होता है और न परिवर्तन। इन उपलब्धियों के बीच से गुजरते हुए मानव-जीवन के सारपूर्ण सर्वोपरि लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही सच्चा पुरुषार्थ है मनुष्य को जिसे करना ही चाहिए।

🔶 मानव-जीवन का सर्वोपरि लाभ आध्यात्मिक लाभ ही है। साँसारिक लाभों के नितान्त अभाव की स्थिति में भी आध्यात्मिक लाभ मनुष्य को सर्वमुखी बनाने में सर्वदा समर्थ है जब कि आध्यात्मिक लाभ के अभाव में संसार की समग्र उपलब्धियाँ भी मनुष्य को सुखी एवं संतुष्ट नहीं बना सकतीं। बल्कि वे उल्टी जान के लिये जंजाल बनकर चिन्ता में वृद्धि किया करती हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 जनवरी पृष्ठ 2
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/January/v1.2

👉 प्रार्थना करें, याचना नहीं

🔷 भगवान से प्रार्थना कीजिये, याचना नहीं। आपकी स्थिति ऐसी नहीं कि कमजोरियों के कारण किसी का मुँह ताकना पड़े और याचना के लिए हाथ फैलाना पड़े।
प्रार्थना कीजिये कि आपका प्रसुप्त आत्मबल जाग्रत् हो चले ।। प्रकाश का दीपक जो विद्यमान है, वह टिमटिमाये नहीं वरन् रास्ता दिखाने की स्थिति में बना रहे। मेरा आत्मबल मुझे धोखा न दे। समग्रता में न्यूनता का भ्रम न होने दे।

🔶 जब परीक्षा लेने और शक्ति निखारने हेतु संकटों का झुण्ड आये, तब मेरी हिम्मत बनी रहे और जूझने का उत्साह भी। लगता रहे कि यह बुरे दिन अच्छे दिनों की पूर्व सूचना देने आये हैं।

🔷 प्रार्थना कीजिये की हम हताश न हों, लड़ने की सामर्थ्य को पत्थर पर घिसकर धार रखते रहें। योद्धा बनने की प्रार्थना करनी है, भिक्षुक बनने की याचना नहीं। जब अपना भिक्षुक मन गिड़गिड़ाये, तो उसे दुत्कार देने की प्रार्थना भी भगवान् से करते रहें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...