रविवार, 19 अगस्त 2018

👉 पति और पत्नी कैसे रहने चाहिए---

🔶 कबीर जी रोज सत्संग किया करते थे, लोग आते और चले जाते। एक आदमी सत्संग खत्म हो गया फिर भी बैठा रहा। कबीर जी बोले क्या बात है वो इन्सान बोला मैं तो काफी दूर से आया हूँ मुझे आपसे कुछ पूछना है। क्या पूछना है? कबीर बोले।

🔷 वो कहने लगा मैं गृहस्थी हूँ मेरा घर में झगड़ा होता रहता है। उसके बारे में जानना चाहता हूँ की झगड़ा कैसे दूर हो तो कबीर जी चुप रहे थोड़ी देर में कबीर जी ने अपनी पत्नी से कहा लालटेन जला के लाओ। कबीर की पत्नी लालटेन जला कर ले आई। कबीर जी के पास रख दी वो आदमी भी वही बैठा था सोच रहा था इतनी दोपहर है और लालटेन माँगा ली। खैर! मुझे इससे क्या।

🔶 फिर कबीर जी बोले कुछ मीठा दे जाना। तों उनकी स्त्री नमकीन देकर चली गयी। उस आदमी ने फिर सोचा यह तो शायद पागलो का घर है मीठे के बदले नमकीन, दिन में लालटेन, वो आदमी बोला कबीर जी मैं चलता हूँ। मन में सोचने लगा कहाँ फँस गया।

🔷 कबीर जी समझ गए बोले आपको आपके झगड़े का हल मिला की नहीं। वो बोला क्या मिला? कुछ नहीं। कबीर जी ने कहा जैसे मैंने लालटेन मंगवाई घर वाली कह सकती थी की तुम क्या सठीया गए हो इतनी दोपहर में क्या करोगे।

🔶 उसने सोचा होगा किसी काम के लिये लालटेन मंगवाई होगी । मीठा मंगवाया तों नमकीन देकर चली गयी, हो सकता है घर में न हो पर में भी चुप रहा। इसमे तकरार क्या?

🔷 तुम भी समझो, तकरार करना छोड़ो। एक-दुसरे की बात को समझो। आपसी विश्वास बनाओ। वो आदमी हैरान था यह सब इन्होंने मेरे लिये किया। उसको समझ आने लगी गृहस्थी हो या दोस्ती में तालमेल आपसी विश्वास बहुत जरुरी है।

🔶 किसी से वैर व तकरार न रखो..... आवश्यक होने पर एक दूसरे की सहमति में इज़हार करो ।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 19 August 2018


👉 आज का सद्चिंतन 19 August 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 31)

👉 प्रतिभा के बीजांकुर हर किसी में विद्यमान हैं

🔶 उच्चस्तरीय प्रतिभा ही ब्रह्मतेजस् है। उसी को ब्रह्मवर्चस भी कहते हैं। उसे जिसने भी पर्याप्त मात्रा में अर्जित कर लिया है, वह शरीर से सामान्य होते हुए भी अपनी चेतनात्मक प्रखरता के सहारे ऐसे पुण्य प्रयोजन संपन्न कराने में समर्थ रहा है कि उसे अनुकरणीय भी माना जाए और अभिनंदनीय भी। भगवान बुद्ध का उदाहरण प्रत्यक्ष है। उन्होंने अपने जीवनकाल में एक लाख भिक्षु-भिक्षुणी परिव्राजक बनाकर विश्व के कोने-कोने में धर्म-चक्र-प्रवर्तन के लिए भेजे थे और वे सभी एक-से-एक बढ़ी-चढ़ी उपलब्धियाँ पाने में सफल हुए थे। अशोक और हर्षवर्धन ने उनके प्रतिपादन से प्रभावित होकर अपना विपुल-वैभव उनके आदेशों पर निछावर कर दिया था। आम्बपाली और अंगुलिमाल जैसों ने निकृष्टता का परित्याग कर, उत्कृष्ट स्तर का अपना कायाकल्प कर लिया था।
  
🔷 चाणक्य की एकाकी योजना ने भारत पर आक्रमण करते रहने वाले आक्रांताओं, आतंकवादियों को उनके बिलों में वापस लौटने के लिए बाधित कर दिया था। अनेक अनुभवी उनके सहायक बने थे। नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना करने से लेकर उसके संचालन तक की जिम्मेदारी का निर्वाह उनकी प्रतिभा ही करती रही थी। चुंबक अपने समकक्षों को खींचता, जुटाता तो अनायास ही रहता है।
  
🔶 महामना मालवीय जी आरंभ में सामान्य वकील और संपादक थे, पर जब उन्होंने हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण का संकल्प लिया तो प्राय: पचास करोड़ की संपत्ति उन लोगों से जुटाई, जिनके साथ उनकी कोई पूर्व की जान-पहचान तक न थी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 40

👉 Materialism and Spirituality: Two ways of Living (Last Part)

🔶 The mind is different from the rest of the senses in that it is always unsatisfied and ambitious. New hopes and ambitions arise once the old ones are fulfilled. Suppose a person desires to buy a house. He would remain preoccupied with that thought because there is an attraction in it. Once a house is bought, the attraction fades. If a person does not have children, he would yearn for them; once he has children, they appear burdensome. A similar principle applies to other things, such as household items, clothes, etc and to attachment towards people. Therefore greed and attachment are attractive only until they are fulfilled. Egoism also follows a similar principle.

🔷 A secretary in a company feels his job status is low and aims for a higher status so that he can elevate his standing in the society. It is possible that several persons within the company may be trying for the same position. Therefore he becomes an enemy for them, since now he is an extra competitor in the race. In case he does succeed in fulfilling his egoistic desire in progressing towards his dream position, mental peace would elude him because there would be several people scheming to dislodge him. His ego thus becomes his own dangerous adversary. The worth and importance of a well-mannered, disciplined person is obviously more than that of an egoistic person.

🔶 No circumstances or individuals can challenge a gentleman, whereas examples of egoistic people suffering ruin can be seen all around us. A gentleman is respected while an egoistic person is ignored....

📖 Akhand Jyoti, Jan Feb 2003

👉 वर्तमान दुर्दशा क्यों? (भाग 1)

🔶 आज हम चारों ओर भयंकर दावानल सुलगती हुई देखते हैं। महायुद्ध का दानव लाखों मनुष्यों को अपनी कराल दाढ़ों के नीचे कुचल कुचल कर चबाते जा रहा है। खून से पृथ्वी लाल हो रही है। आकाश से ऐसी अग्नि वर्षा हो रही है जिससे सहस्रों निरपराध प्राणी अकारण ही चबाने की तरह जल-भुन रहे हैं। कराह और चीत्कारों से सारा आकाश मण्डल गुँजित हो उठा है। नन्हें नन्हें बालक अपने माता पिताओं के लिए बिलख रहे हैं। माताएं अपने पुत्रों के लिए और पत्नियाँ अपने पतियों के लिए, अश्रुपात कर रहीं हैं। कितने घरों में, किस प्रकार करुण क्रन्दन हो रहें हैं, इन मर्म कथाओं को यदि प्रत्यक्ष रूप से प्रकट किया जाये तो वज्र का भी कलेजा फटने लगेगा।

🔷 अकेला युद्ध ही क्यों महामारियों का प्रचंड प्रकोप आप देखिए। अनेक प्रकार के नये-नये अश्रुत पूर्व रोग उठ खड़े हुए हैं। चिकित्सा करने वाले परेशान हैं, उपचार हतवीर्य साबित होते हैं, अर्धमृत या मृत लाशों के ढेर घर एवं मरघटों में आसानी से देखे जा सकते हैं। रोगी और उनकी परिचर्या करने वाले सभी की बेचैनी बढ़ती चली जा रही है। जीवन भर बने हुए हैं, जो साँसें बीत रही हैं वह भारी और कष्टकर प्रतीत होती हैं। दवा के लिए पैसा नहीं, पथ्य के लिए पैसा नहीं, असहायवस्था में पड़े हुए लोग बेबसी आँसू घूँट रहे हैं।

🔶 महंगी का तो कुछ कहना ही नहीं, हर चीज पर चौगुने आठ गुने दाम बढ़ते जा रहे हैं। पैसा खर्च करने पर भी वस्तुएं प्राप्त होती नहीं। अच्छा अब नसीब नहीं, खाद्य पदार्थों का लोप होता जाता है। व्यापार चौपट हो रहे हैं, उद्योग धंधे बढ़ते नहीं, बेकारी में कमी नहीं होती खर्च बढ़ रहे हैं पर आमदनी नहीं बढ़ती आधे पेट खाने वालों और आधे अंग ढकने वालो की संख्या बढ़ती जा रही है। जी तोड़ परिश्रम करने पर भी भोजन वस्त्र की आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पाती। कुछ अमीरों या युद्ध सम्बन्धी कोई व्यवसाय प्राप्त कर लेने वाले भाग्यवानों की बात अलग है, किन्तु साधारण जनता की जीवन निर्वाह समस्या दिन-दिन गिरती चली जा रही है, तिल तिल करके अभावों की ज्वाला में लोगों को झुलसना पड़ रहा है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 महायोगी अरविन्द
📖 अखण्ड ज्योति, जनवरी 1943 पृष्ठ 4
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/January/v1.4

👉 स्वार्थी जीवन मृत्यु से बुरा है।

🔶 यूनान के संत सुकरात कहा कहते थे कि “यह पेड़ और आरण्य मुझे कुछ नहीं सिखा सकते, असली शिक्षा तो मुझे सड़कों पर मिलती है।” उनका तात्पर्य यह था कि दुनिया से अलग होकर एकान्त जीवन बिताने से न तो परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है और न आत्मोन्नति हो सकती है। अपनी और दूसरों की भलाई के लिए संत पुरुषों को समाज में भरे बुरे लोगों के बीच में अपना कार्य जारी रखना चाहिये।

🔷 संत सुकरात जीवन भर ऐसी ही तपस्या करते रहे। वे गलियों में, चौराहों पर, हाट बाजारों में, दुकानों और उत्सवों में बिना बुलाये पहुँच जाते और बिना पूछे भीड़ को संबोधित करके अपना व्याख्यान शुरू कर देते। उनका प्रचार तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों और अनीतिपूर्ण शासन के विरुद्ध होता, उनके अन्तःकरण में सत्य था। सत्य में बड़ी प्रभावशाली शक्ति होती है। उससे अनायास ही लोग प्रभावित होते हैं।

🔶 उस देश के नवयुवकों पर सुकरात का असाधारण असर पड़ा, जिससे प्राचीन पंथियों और अनीतिपोषक शासकों के दिल हिलने लगे, क्योंकि उनके चलते हुए व्यापार में बाधा आने की संभावना थी। सुकरात को पकड़ लिया गया, उन पर मुकदमा चला जिसमें दो इल्जाम लगाये गए।
1. प्राचीन प्रथाओं का खंडन करना,
2. नवयुवकों को बरगलाना। इन दोनों अपराधों में विचार करने के लिये न्याय सभा बैठी, सभासदों में से 220 की राय छोड़ देने की थी और 281 की राय मृत्यु दंड देने की हुई। इस प्रकार बहुमत से मृत्यु का फैसला हुआ। साथ ही यह भी कहा गया कि यदि वह देश छोड़ कर बाहर चले जायँ या व्याख्यान देना, विरोध करना बन्द कर दे तो मृत्यु की आज्ञा रद्द कर दी जायेगी।

🔷 सुकरात ने मुकदमे की सफाई देते हुए कहा- ”कानून मुझे दोषी ठहराता है। तो भी मैं अपने अन्तरात्मा के सामने निर्दोष हूँ। दोनों अपराध जो मेरे ऊपर लगाये गये हैं, मैं स्वीकार करता हूँ कि वे दोनों ही मैंने किये हैं और आगे भी करूंगा। एकान्त सेवन करके मुर्दे जैसा बन जाने का निन्दित कार्य कोई भी सच्चा संत नहीं कर सकता। यदि मैं घोर स्वार्थी या अकर्मण्य बन कर अपने को समाज से पृथक कर लूँ और संसार की भलाई की तीव्र भावनाएँ जो मेरे हृदय में उठ रही हैं, उन्हें कुचल डालूँ तो मैं ब्रह्म हत्यारा कहा जाऊंगा और नरक में भी मुझे स्थान न मिलेगा। मैं एकान्तवासी, अकर्मण्य और लोक सेवा से विमुख अनुदार जीवन को बिताना मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक समझूंगा। मैं लोक सेवा का कार्य बन्द नहीं कर सकता, न्याय सभा के सामने मैं मृत्यु को अपनाने के लिये निर्भयतापूर्वक खड़ा हुआ हूँ।”

🔷 संसार का उज्ज्वल रत्न, महान दार्शनिक संत सुकरात को विष का प्याला पीना पड़ा। उसने खुशी से विष को होठों से लगाया और कहा- ”स्वार्थी एवं अनुपयोगी जीवन बिताने की अपेक्षा यह प्याला मेरे लिये कम दुखदायी है।” आज उस महात्मा का शरीर इस लोक में नहीं है, पर लोक सेवा वर्ग का महान् उपदेश उसकी आत्मा सर्वत्र गुँजित कर रही है।

📖 अखण्ड ज्योति सितम्बर 1942 पृष्ठ 8
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1942/September/v1.8

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...