मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

👉 सहज़ जीवन साधना के सूत्र :-

🔴 एक निःसन्तान सेठ अपने लिए उत्तराधिकारी की तलाश में था उसने नगर के इक्छुक युवकों को बुलाया और प्रत्येक को एक बिल्ली और एक गाय दी कहा एक माह में बिल्ली को इतना दूध पिला के तृप्त कर दो क़ि जब मैं एक माह बाद उसके समक्ष दूध रखूँ वो न पिए। जिसकी बिल्ली तृप्त होगी उसे मैं अपना उत्तराधिकारी बनाऊंगा।
               
🔵 सबने बिल्ली की खूब खातिरदारी की और उसे खिला पिला के मोटा तन्दरूस्त कर दिया और गाय की उपेक्षा कर दी।

🔴 लेकिन एक युवक ने सोचा सेठ कितना मूर्ख है गाय की सेवा न बोल के बिल्ली की सेवा करवाता है। उसने उल्टा काम किया गाय की खूब सेवा कर उसे खिला पिला के मोटा तन्द्तुस्त किया गाय ने खूब दूध दिया सारे परिवार ने आनंद से खाया और सारा परिवार तन्दरूस्त हुआ। बिल्ली को उसने सिर्फ आवश्यक भोजन करवाया और उसके सामने गर्म दूध रख देता। जैसे ही बिल्ली पीती उसके मुँह में बहुत मारता। मार खाने की वज़ह से बिल्ली दूध से डर गयी।

🔵 प्रतियोगिता के दिन सबकी तन्दरूस्त बिल्लियाँ दूध पर टूट पड़ी, गाय की उपेक्षा हुई। लेकिन उस युवक की पतली दुबली बिल्ली ने दूध को मुँह भी न लगाया और वह युवक विजयी हुआ और सेठ का उत्तराधिकारी बना। उसकी गाय भी सबसे ज़्यादा स्वस्थ थी।

🔴 सेठ ने युवक से पूंछा तुमने बिल्ली के बजाय गाय की सेवा की और तुम्हारी बिल्ली तुम्हारे नियंत्रण में कैसे?

🔵 युवक ने कहा इस संसार में बिल्ली को अनावशयक खिला के सन्तुष्ट नहीँ किया जा सकता उसे सिर्फ दण्ड से नियंत्रित किया जा सकता है। गाय की सेवा से उसने ज्यादा दूध दिया जिसे खा के और दूध बेच के मेरी आर्थिक स्थिति ठीक हुई।

🔴 मित्रों यही बात हमारे जीवन पर लागू होती है कामना-वासना रुपी बिल्ली अनावश्यक-अत्यधिक पूर्ती से कभी तृप्त न होगी। उस पर कठोरता से संयम करना होगा।

👉 परोपकारी विसाोबा

🔴 महाराष्ट्र के ओढिया नागनाथ नामक ग्राम में विसोवा नामक एक सज्जन रहते थे। वे सोने चाँदी का काम करते थे। धनी भी थे और भगवान के भक्त भी। उस क्षेत्र में दुर्भिक्ष पड़ता है। विसोबा के पास जो कुछ था उसे वे अकाल पीड़ितों को खिला देते हैं। फिर भी लोग भूख से प्राण त्यागते ही जाते है। विसोबा सोचते है मेरी साख है, क्यों न ऋण लेकर भूखों का पेट भरूँ? जब दुर्भिक्ष समाप्त हो जाएगा तब मैं ऋण चुका दूँगा। अपनी पत्नी से सलाह करते है उसे भी यह बात पसंद आ जाती है। और सब तो निर्धन हो चुके थे, एक निर्दय पठान ही धनी था उसी के यहाँ अन्न भी था। विसोबा उसे ऋण लेकर भूखे भरती को अन्न बाँटने लगे। चुगलखोरों ने पठान से विसोबा के दिवालिया होने की बात कह दी। पठान ने अपना ऋण तुरन्त लौटाने का तकाजा किया, मुसलमानी राज्य में पठानों की तूती बोलती थी। कुछ न्याय भाव था नहीं, वे चाहे जिसका जो कर डाल सकते थे, उसने मुश्किल से सात दिन की मोहलत दी। विसोबा ऋण कहाँ से चुकाते उनके पास कुछ भी न था।

🔵 जब ऋण चुकाने का कोई प्रबन्ध न हो सका तो पठान बिसोवा को अत्यन्त क्रूरता पूर्वक यातनाऐं देने लगे और अपमानित करने लगे फिर भी बिसोवा क्षुब्ध न हुए बराबर यही कहते रहे मैंने आपका ऋण अवश्य लिया है और जिस दिन भी मेरे पास व्यवस्था हो जाएगी आपको अवश्य चुका दूँगा। आप चाहे तो मुझे और मेरे परिवार को ऋण के बदले में पशु की तरह खरीद कर अपने यहाँ जन्म भर के लिए गुलाम भी रख सकते है।

🔴 बिसोबा का मुनीम अपने स्वामी को इस दुर्दशा को न देख सका उसने अपनी सारी संचित पूँजी पठान को देकर अपने परोपकारी स्वामी का उद्धष्ट कराया। इसके बद वह मुनीम भी विसोबा के साथ पूर्ण श्रद्धा के साथ ईश्वर भक्ति एवं परोपकार में लग गया।

🔵 ईश्वर भक्ति जिसके हृदय में आती है उसके साथ ही करुणा दिया और परोपकार की भावना भी अवश्य उपजती है। जो भक्त तो बने, पर निष्ठुर और कंजूस हो उसकी भक्ति ढोंग मात्र है।

🌹 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 जीवन की सफलता का रहस्य (भाग 1)

🔴 अपने जीवन में सबसे बड़ी और मूल्यवान बात जो मैंने सीखी है वह है-साध्य से अधिक साधना की ओर ध्यान देना। यही सफलता का रहस्य है। हम लोगों में सबसे बड़ा दोष यही है कि हम लोग लक्ष्य की ही ओर ध्यान देते हैं और साधन की, कार्यप्रणाली की, ब्यौरे की बातों को भूल जाते हैं। और इसीलिये इसका परिणाम यह होता है कि यदि हम अपने लक्ष्य पर एक बार पहुँच भी गये, यदि हमको एक बार सफलता मिल भी गयी तो भी हमारी वह सफलता स्थायी नहीं होती और हम शीघ्र ही फिसल जाते हैं। हमें सबसे पहले यह बात ध्यान में बैठा लेनी चाहिये कि हमारी कार्यप्रणाली की शुद्धता और अशुद्धता पर ही कार्य का फलाफल निर्भर करता है। यदि हमारी प्रणाली ठीक न रही तो फल कभी ठीक नहीं हो सकता। पद्धति पर ध्यान देने से परिणाम आशा और अभिलाषा के अनुरूप ही होगा इसमें तनिक भी संशय नहीं। प्रणाली की विशुद्धता ही फल है।

🔵 अतः हमें चाहिये कि अपना सारा ध्यान कर्म और उसकी प्रणाली पर ही रखें, उसकी पूर्ति के प्रलोभन में तनिक भी न फंसें। गीता का भी यही उपदेश है कि हमें निरन्तर अपने कर्म में लगे रहना चाहिये, फल की स्पृहा करना उसके पीछे अन्धा होना पतन की जड़ है। इसीलिये गीता का कथन है कि सब कर्मों को करते हुए भी उनसे अनासक्त रहें। आसक्ति होना ही बुरा है। संसार में हम कर्म करने के लिये आते हैं। किन्तु कर्मफल के लिये हमारे अन्दर जो स्पृहा, जो लोभ होता है वह हमारा सत्यानाश कर देता है।

🔴 हम नित्य देखते हैं कि मधुमक्षिका फूलों का रस चूसने के लिये आती है किन्तु चलते समय उन फूलों के रस में उसके पर फंस जाते हैं और वह विवश हो जाती है इसका कारण उसके अन्दर मधु के प्रति आसक्ति है। उसी प्रकार हम भी इस विश्व में केवल कर्म करने के लिये आते हैं किन्तु अपनी मूर्खता से उसके फल के प्रति आसक्ति रखने के कारण संसार में ही फंस जाते हैं। फल इसका बड़ा घातक होता है। हमारी स्वतंत्रता छिन जाती है, हम गुलाम हो जाते हैं। प्रकृति से हम सब चीजें प्राप्त करना चाहते हैं, किन्तु अन्त में प्रकृति हमसे सभी चीजें छीन लेती है और हमको ठुकरा देती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 स्वामी विवेकानन्द
🌹 अखण्ड ज्योति- जुलाई 1950 पृष्ठ 6
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/July/v1.6

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