आभूषणों से स्त्रियाँ नहीं सजतीं। यदि ऐसा रहा होता और इससे कुछ लाभ रहे होते तो हमारे पूर्व पुरुषों में भी इस प्रथा का प्रचलन रहा होता। साधारण मंगल आभूषणों के अतिरिक्त भारी सोने-चाँदी के जेवरों का प्रचलन हमारी अपनी संस्कृति से नहीं हुआ, वरन् यवनों ने यह विकृति भारतीय जीवन में पैदा की है। वैदिक साहित्य में सइस तरह के गहने का कहीं दर्शन नहीं है। स्त्रियाँ सरल और स्वाभाविक शृंगार फूल और पत्तों से कर लेती थीं उनमें वासना को बढ़ाने वाला कोई दोष नहीं होता था और न उनसे सामाजिक तथाराष्ट्रीय व्यवस्थ्ज्ञा में किसी तरह की गड़बड़ी पैदा होती थी।
संस्कारवान् बालकों की शिक्षा के लि नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय की आवश्यकता होगी। जहाँ का प्रत्येक पाठ, प्रत्येक आचरण, प्रत्येक शिक्षण महामानव बनाने वाला हो। ऐसे विश्वविद्यालय बनाने और चलाने के लिए संभवतः हम इस शरीर से जिन्दा न रहेंगे, पर उसकी योजना तो स्वजनों के मस्तिष्क में छोड़ी ही जानी होगी।
विवाहों का मँहगा बनाना अपनी बच्चियों के जीवन विकास पर कुठाराघात करना है। जिन्हें अपनी या दूसरों की बच्चियों के प्रति मोह, ममता न हो, जिन्हें इस दो दिन की धूमधाम की तुलना में नारी जाति की बर्बादी उपेक्षणीय लगती हो वे ही विवाहोन्माद का समर्थन कर सकते हैं। जब तक विवाह को भी नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत की तरह एक बहुत ही सरल, स्वाभाविक, सादा और कम खर्च का न बनाया जायगा तब तक नारी जाति की उन्नति और सुख-शान्ति की आशा दुराशा मात्र ही रहेगी।
संस्कारवान् बालकों की शिक्षा के लि नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय की आवश्यकता होगी। जहाँ का प्रत्येक पाठ, प्रत्येक आचरण, प्रत्येक शिक्षण महामानव बनाने वाला हो। ऐसे विश्वविद्यालय बनाने और चलाने के लिए संभवतः हम इस शरीर से जिन्दा न रहेंगे, पर उसकी योजना तो स्वजनों के मस्तिष्क में छोड़ी ही जानी होगी।
विवाहों का मँहगा बनाना अपनी बच्चियों के जीवन विकास पर कुठाराघात करना है। जिन्हें अपनी या दूसरों की बच्चियों के प्रति मोह, ममता न हो, जिन्हें इस दो दिन की धूमधाम की तुलना में नारी जाति की बर्बादी उपेक्षणीय लगती हो वे ही विवाहोन्माद का समर्थन कर सकते हैं। जब तक विवाह को भी नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत की तरह एक बहुत ही सरल, स्वाभाविक, सादा और कम खर्च का न बनाया जायगा तब तक नारी जाति की उन्नति और सुख-शान्ति की आशा दुराशा मात्र ही रहेगी।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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