बालिका वधु की एक्ट्रेस प्रत्यूषा बनर्जी की मौत के दुःख ने सारे देश को झकझोर कर रख दिया. टेलीविज़न पर भी स्टार्स और न्यूज़ एंकरों ने प्रत्युषा को लेकर जम कर बहस की. फेसबुक और ट्विटर पर हर दूसरा यूज़र प्रत्यूषा को श्रंद्धाजलि देने में लग गया. ऐसा लगा जैसे सारे देश में बस प्रत्यूषा ही एकलौता मुद्दा है, जिससे सब आहत हैं. ऐसा नहीं कि प्रत्युषा की मौत का दुःख लाज़मी नहीं था या उससे हमें दुःख नहीं. पर क्या आप जानते हैं कि हर रोज कितने किसान गरीबी की मार झेल कर मौत को गले लगाते हैं या बीती रात कितने लोग बगैर खाये सो गए थे? शायद नहीं. इससे हमें क्या फर्क पड़ता है? वो लोग थोड़ी न कोई सेलेब्स हैं, जिनकी मौत का दुःख करके हम भी फेसबुक के ट्रेंड कर रहे ऑप्शन से लोगों की नज़रों में आ पाएंगे. अब कुछ लोग कह सकते हैं कि मीडिया जो दिखाता है हम वही देखते हैं. पर मीडिया को ये अधिकार दिया किसने? हमनें. जो TRP बढ़ाने के लिए हर वो खबर दिखाने पर आमादा है, जो उनकी जेब भरने में सहायक हो. इस सब के बीच में धरातल और सतही ख़बरें बेशक ही छूट क्यों न जाएं.
यह हालत है खुद को विकासशील कहने वाले भारत की, जहां के बुंदेलखंड में बीते 6 सालों में 3223 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. जबकि 62 लाख से ज़्यादा लोग पलायन कर अपने पीछे छप्पर और मिट्टी वाले कच्चे मकान छोड़ गए हैं.
यहां सूखे का आलम यह है कि लोग भूख मिटाने के लिए घास से बनी रोटियां और कीचड़ से पानी निकाल कर पीने को मजबूर हैं.
देश तरक्की कर रहा है, हम सबको दिखाई दे रहा है. हमारी GDP भी आज विश्व सूचकांक पर अपनी स्थिति दर्ज करा रही है. रोज नई योजनाएं बनाई जा रही हैं, रोज नए वादे किये जा रहे हैं. पर असल में हमारे देश की क्या स्थिति है, ये हम खुद नहीं जानते.