जीवन क्या है? श्रुति कहती है कि जीवन के स्वरूप को समझा जाना चाहिए और उससे जुड़े तथ्यों को स्वीकार किया जाना चाहिए, चाहे वे कितने ही अप्रिय क्यों न प्रतीत होते हों? जीवन एक चुनौती है, एक संग्राम है, एक जोखिम है एवं उसे इसी रूप में अंगीकार करने के अतिरिक्त और चारा नहीं। जीवन ऐ रहस्य है, तिलिस्म है, भूल-भुलैया है, एक प्रकार का गोरखधंधा है। गंभीर पर्यवेक्षण के आधार पर ही उसकी तह तक पहुँचा जा सकता है। इसी आधार पर भ्रान्तियों के कारण उत्पन्न होने वाले खतरों से बचा जा सकता है। कर्त्तव्य के रूप में जीवन अत्यन्त भारी किन्तु अभिनेता की तरह हँसने-हँसाने वाला हल्का-फुलका रंगमंच भी है।
प्रभु आनन्द धन है। यदि आनन्द की प्राप्ति करना है तो प्रेम ही उसकी प्राप्ति का मुख्य साधन है। जिस परिवार या जिस समाज में परस्पर प्रेम है एक दूसरे से आत्मीयता है वह एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के दुख को अपना ही दुख मानता है। उसके निवारण हेतु वैसा ही प्रयत्न करता है जैसा कि अपने दुख के निवारण हेतु करता है। उसे आत्मवत् ही समझता है । उस परिवार और समाज में कैसे कटुता रहेगी? कैसे विषमता रहेगी? कैसे एक दूसरे की हानि करेंगे? वह तो यह समझेंगे कि उसकी हानि की हमारी हानि हैं वह परिवार और समाज सुखी रहेगा और उस प्रेम के द्वारा आनन्दघन प्रभु के निकट पहुँचेगा।
अपना स्वरूप अपना लक्ष्य अपना कर्तव्य यदि मनुष्य समझ सका होता तो उसका चिन्तन और कर्तव्य अत्यन्त उच्च कोटि का होता ऐसे नर को नारायण कहा जाता और उसके चरण जहाँ भी पड़ते वहाँ धरती धन्य हो जाती। पर अज्ञान के आवरण को क्या कहा जाय जिसने हमें नर पशु के स्तर पर देखने ओर उसी प्रकार की रीति नीति अपनाने के लिए निष्कृष्टता के गर्त में धकेल दिया है। माया का वही आवरण हमें नारकीय यातनाएँ सहन करते हुए रोता कलपता जीवन व्यतीत करने के लिए विवश करता है।
प्रभु आनन्द धन है। यदि आनन्द की प्राप्ति करना है तो प्रेम ही उसकी प्राप्ति का मुख्य साधन है। जिस परिवार या जिस समाज में परस्पर प्रेम है एक दूसरे से आत्मीयता है वह एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के दुख को अपना ही दुख मानता है। उसके निवारण हेतु वैसा ही प्रयत्न करता है जैसा कि अपने दुख के निवारण हेतु करता है। उसे आत्मवत् ही समझता है । उस परिवार और समाज में कैसे कटुता रहेगी? कैसे विषमता रहेगी? कैसे एक दूसरे की हानि करेंगे? वह तो यह समझेंगे कि उसकी हानि की हमारी हानि हैं वह परिवार और समाज सुखी रहेगा और उस प्रेम के द्वारा आनन्दघन प्रभु के निकट पहुँचेगा।
अपना स्वरूप अपना लक्ष्य अपना कर्तव्य यदि मनुष्य समझ सका होता तो उसका चिन्तन और कर्तव्य अत्यन्त उच्च कोटि का होता ऐसे नर को नारायण कहा जाता और उसके चरण जहाँ भी पड़ते वहाँ धरती धन्य हो जाती। पर अज्ञान के आवरण को क्या कहा जाय जिसने हमें नर पशु के स्तर पर देखने ओर उसी प्रकार की रीति नीति अपनाने के लिए निष्कृष्टता के गर्त में धकेल दिया है। माया का वही आवरण हमें नारकीय यातनाएँ सहन करते हुए रोता कलपता जीवन व्यतीत करने के लिए विवश करता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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