🔶 मेरी ख़ामोश प्रवृत्ति के कारण मैं मायके से लेकर ससुराल तक कभी प्रशंसा, तो कभी व्यंगबाण झेलती रही. मैं चाहकर भी किसी बात का प्रत्युत्तर नहीं दे पाती थी. बस, हर स्थिति में सामंजस्य बिठाकर चुप्पी ओढ़ लेती. मेरी इसी प्रवृत्ति का फ़ायदा जीवनभर मेरे पति और उनके बाद मेरे पुत्र ने उठाया. इन सब बातों को सोचने के लिए मैं आज क्यों विवश हुई? आज लगता है कि उसकी शादी आशू से कराकर मैंने बड़ी भारी भूल की. उसने अपने पिता का स्वभाव पाया था. वही शक्की मिज़ाज, वही अहंकारपूर्ण व्यवहार, वही हृदय को भेद देनेवाले कटीले व्यंगबाण कहना. आज रह-रहकर पश्चाताप हो रहा है. मैं कैसे भूल गयी कि बबूल के पेड़ पर आम नहीं लगते. आशू के पिता शुरू से ही अक्खड़ क़िस्म के व्यक्ति थे. लोक-लाज और मेरी ख़ामोश प्रवृत्ति ने कभी मुझे उनसे विद्रोह नहीं करने दिया. आज वही भूल मेरे हृदय को शूल बनकर चुभ रही हैं. अपनी इस भूल का एहसास शायद जीवनभर मुझे न हो पाता, यदि मैं आशू की शादी रूपा से न कराती।
🔷 आशू आए दिन रूपा को किसी न किसी बात पर डांटता-फटकारता रहता. रूपा गृहकार्य में निपुण पढ़ी-लिखी लड़की थी. आशू उसके हर काम में दोष निकालता रहता. शायद इसके पीछे मुख्य कारण रूपा का सौंन्दर्य था. आशू अपने साधारण व्यक्तित्व की तुलना में रूपा का आकर्षक व्यक्तित्व देखकर अक्सर कुढ़ता रहता था. यही कारण था कि कभी रूपा उसे चरित्रहीन लगती, तो कभी फूहड़. उसे नीचा दिखाकर आशू के अहम् को संतुष्टि मिलती थी।
🔶 यह वही आशू है जिसने अपने दोस्त विनोद की शादी में रूपा को देखकर मुझसे कहा था कि मैं किसी भी तरह उसकी शादी रूपा से करा दूं. तब उसने स्वयं की तुलना उससे क्यों नहीं की थी? तब उसने क्यों अपने साधारण व्यक्तित्व को अनदेखा कर दिया था? आशू की सरकारी नौकरी और ऊंचे ओहदे ने उसकी सारी कमियों को ढंक लिया तथा रूपा के पिता ने रिश्ता स्वीकार कर लिया. इस तरह रूपा इस घर-आंगन में आ गयी. शुरुआती दिन हंसी-ख़ुशी से बीते, लेकिन धीरे-धीरे आशू के भीतर का ज़हर बाहर आने लगा और एक-एक करके उसके पिता की सारी विशेषताएं उसमें प्रकट होने लगीं।
🔷 यदि कोई मित्र या सम्बन्धी रूपा की प्रशंसाभर कर देता, उस समय तो वह हंस देता, लेकिन बाद में बेचारी को न जाने कितनी खरी-खोटी सुनाता था. वह बेचारी मुंह सिए निर्दोष होकर भी सब कुछ सुनती रहती. अचानक किसी पर नज़र पड़ जाती, तो उसके पीछे ही पड़ जाता कि वह जान-बूझकर उस व्यक्ति को देख रही है. मुझे वह जानता था कि मां तो गूंगी है. वो तो कुछ बोलेगी नहीं. मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस था कि मैं तो मैं, मेरी बहू भी गूंगी आ गयी थी. आशू उसे जली-कटी सुनाता रहता और वह सुनती रहती. मेरी समझ में ये नहीं आया कि मेरे बेटे में मेरी प्रवृत्ति के बजाय अपने पिता की प्रवृत्ति ही क्यों मुखर हुई थी. न जाने कितनी बार उसने अपने पिता के सन्मुख मुझे नीची गरदन किए अपशब्द सुनते देखा था. लेकिन उसने कभी अपने पिता का विरोध नहीं किया. कभी मुझे नहीं कहा कि ‘मां तुम ये सब क्यों सहन करती हो. तोड़ दो अपना मौनव्रत, मैं तुम्हारे साथ हूं. मैं मां होकर भी पुत्र से वंचित थी।
🔶 आज फिर वह न जाने किस बात पर बहू पर गरज-बरस रहा था. मैंने उनके कमरे का दरवाज़ा थोड़ा-सा खोला. आशू पलंग पर बैठा रूपा को लताड़ रहा था और वह बेचारी चुपचाप खड़ी उसकी जहरीली बातें सुन रही थी. मुझे ऐसा लगा जैसे रूपा के स्थान पर मैं खड़ी हूं और आशू के स्थान पर मुझे उसके पिता नज़र आने लगे. मैंने दरवाज़ा ज़ोर से धकेलकर खोल दिया, ‘‘ख़बरदार आशू, जो अब बहू को एक शब्द भी कहा. तुम यह न समझ लेना कि अगर बहू तुम्हारी बातें सहन कर रही है, तो उसमें कमी है या वह कमज़ोर है. सुन्दरता चरित्रहीनता का कारण नहीं होती. तुम ये बात अच्छी तरह जानते हो. जानते-बूझते भी तुम्हें अपनी पत्नी के चरित्र पर सन्देह करते शर्म नहीं आती. रूपा केवल तुम्हारी पत्नी नहीं है, बल्कि बहू के रूप में मेरी बेटी भी है. इस घर की मान-मर्यादा है. आज के बाद बहू पर किसी भी तरह की तोहमत लगाई, तो मुझसे बुरा कोई न होगा. आज से इसे अकेली न समझना।’’
🔷 आशू आश्चर्य से मेरी ओर देख रहा था. एक शब्द में उत्तर देनेवाली मां से इतने बड़े भाषण की उसे उम्मीद नहीं थी. रूपा मुझसे लिपटकर रो रही थी. मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे सिर से बड़ा भारी बोझ उतर गया हो।
🔶 ‘‘चल बहू, अपना सम्मान खोकर अगर किसी रिश्ते को जीवित रखा भी तो क्या रखा.’’ इतना कहकर मैं रूपा को लेकर अपने कमरे में आ गई. आज मैंने अपनी खोई हुई आवाज़ को पा लिया है. मैंने आज महसूस किया कि यदि लड़ाई अपने हक़ की है, तो आवाज़ उठाना ग़लत नहीं है. अगर हम सच्चे हैं, तो उस सच्चाई के आगे एक न एक दिन सबको झुकना ही होगा।
🔷 ‘‘आज के बाद मैं तुम्हारे चेहरे पर ये उदासी न देखूं.’’ मैं धीरे-धीरे रूपा को समझा रही थी. आज मेरी ज़िन्दगी ने करवट ली थी. सब कुछ बदला-बदला-सा लग रहा था और इस बदलाव को महसूस कर आशू ख़ुद क्षमा मांगकर रूपा को ले जाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है. सोचते-सोचते मेरे होंठों पर गहरी मुस्कुराहट आ गई।
🔷 आशू आए दिन रूपा को किसी न किसी बात पर डांटता-फटकारता रहता. रूपा गृहकार्य में निपुण पढ़ी-लिखी लड़की थी. आशू उसके हर काम में दोष निकालता रहता. शायद इसके पीछे मुख्य कारण रूपा का सौंन्दर्य था. आशू अपने साधारण व्यक्तित्व की तुलना में रूपा का आकर्षक व्यक्तित्व देखकर अक्सर कुढ़ता रहता था. यही कारण था कि कभी रूपा उसे चरित्रहीन लगती, तो कभी फूहड़. उसे नीचा दिखाकर आशू के अहम् को संतुष्टि मिलती थी।
🔶 यह वही आशू है जिसने अपने दोस्त विनोद की शादी में रूपा को देखकर मुझसे कहा था कि मैं किसी भी तरह उसकी शादी रूपा से करा दूं. तब उसने स्वयं की तुलना उससे क्यों नहीं की थी? तब उसने क्यों अपने साधारण व्यक्तित्व को अनदेखा कर दिया था? आशू की सरकारी नौकरी और ऊंचे ओहदे ने उसकी सारी कमियों को ढंक लिया तथा रूपा के पिता ने रिश्ता स्वीकार कर लिया. इस तरह रूपा इस घर-आंगन में आ गयी. शुरुआती दिन हंसी-ख़ुशी से बीते, लेकिन धीरे-धीरे आशू के भीतर का ज़हर बाहर आने लगा और एक-एक करके उसके पिता की सारी विशेषताएं उसमें प्रकट होने लगीं।
🔷 यदि कोई मित्र या सम्बन्धी रूपा की प्रशंसाभर कर देता, उस समय तो वह हंस देता, लेकिन बाद में बेचारी को न जाने कितनी खरी-खोटी सुनाता था. वह बेचारी मुंह सिए निर्दोष होकर भी सब कुछ सुनती रहती. अचानक किसी पर नज़र पड़ जाती, तो उसके पीछे ही पड़ जाता कि वह जान-बूझकर उस व्यक्ति को देख रही है. मुझे वह जानता था कि मां तो गूंगी है. वो तो कुछ बोलेगी नहीं. मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस था कि मैं तो मैं, मेरी बहू भी गूंगी आ गयी थी. आशू उसे जली-कटी सुनाता रहता और वह सुनती रहती. मेरी समझ में ये नहीं आया कि मेरे बेटे में मेरी प्रवृत्ति के बजाय अपने पिता की प्रवृत्ति ही क्यों मुखर हुई थी. न जाने कितनी बार उसने अपने पिता के सन्मुख मुझे नीची गरदन किए अपशब्द सुनते देखा था. लेकिन उसने कभी अपने पिता का विरोध नहीं किया. कभी मुझे नहीं कहा कि ‘मां तुम ये सब क्यों सहन करती हो. तोड़ दो अपना मौनव्रत, मैं तुम्हारे साथ हूं. मैं मां होकर भी पुत्र से वंचित थी।
🔶 आज फिर वह न जाने किस बात पर बहू पर गरज-बरस रहा था. मैंने उनके कमरे का दरवाज़ा थोड़ा-सा खोला. आशू पलंग पर बैठा रूपा को लताड़ रहा था और वह बेचारी चुपचाप खड़ी उसकी जहरीली बातें सुन रही थी. मुझे ऐसा लगा जैसे रूपा के स्थान पर मैं खड़ी हूं और आशू के स्थान पर मुझे उसके पिता नज़र आने लगे. मैंने दरवाज़ा ज़ोर से धकेलकर खोल दिया, ‘‘ख़बरदार आशू, जो अब बहू को एक शब्द भी कहा. तुम यह न समझ लेना कि अगर बहू तुम्हारी बातें सहन कर रही है, तो उसमें कमी है या वह कमज़ोर है. सुन्दरता चरित्रहीनता का कारण नहीं होती. तुम ये बात अच्छी तरह जानते हो. जानते-बूझते भी तुम्हें अपनी पत्नी के चरित्र पर सन्देह करते शर्म नहीं आती. रूपा केवल तुम्हारी पत्नी नहीं है, बल्कि बहू के रूप में मेरी बेटी भी है. इस घर की मान-मर्यादा है. आज के बाद बहू पर किसी भी तरह की तोहमत लगाई, तो मुझसे बुरा कोई न होगा. आज से इसे अकेली न समझना।’’
🔷 आशू आश्चर्य से मेरी ओर देख रहा था. एक शब्द में उत्तर देनेवाली मां से इतने बड़े भाषण की उसे उम्मीद नहीं थी. रूपा मुझसे लिपटकर रो रही थी. मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे सिर से बड़ा भारी बोझ उतर गया हो।
🔶 ‘‘चल बहू, अपना सम्मान खोकर अगर किसी रिश्ते को जीवित रखा भी तो क्या रखा.’’ इतना कहकर मैं रूपा को लेकर अपने कमरे में आ गई. आज मैंने अपनी खोई हुई आवाज़ को पा लिया है. मैंने आज महसूस किया कि यदि लड़ाई अपने हक़ की है, तो आवाज़ उठाना ग़लत नहीं है. अगर हम सच्चे हैं, तो उस सच्चाई के आगे एक न एक दिन सबको झुकना ही होगा।
🔷 ‘‘आज के बाद मैं तुम्हारे चेहरे पर ये उदासी न देखूं.’’ मैं धीरे-धीरे रूपा को समझा रही थी. आज मेरी ज़िन्दगी ने करवट ली थी. सब कुछ बदला-बदला-सा लग रहा था और इस बदलाव को महसूस कर आशू ख़ुद क्षमा मांगकर रूपा को ले जाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है. सोचते-सोचते मेरे होंठों पर गहरी मुस्कुराहट आ गई।