मंगलवार, 19 नवंबर 2019

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 19 Nov 2019

👉 प्रार्थना

प्रार्थना का संगीत प्रेम की सरगम से सजता है। प्रेम की सजल संवेदनाओं से ही प्रार्थना के स्वर स्फुटित होते हैं। प्रेम के शब्दों को गूँथकर ही प्रार्थना का काव्य रचा जाता है। भावमय भगवान् केवल भावनाओं की सघन पुकारों को सुने बिना नहीं रहते। संवेदनाओं की सजलता ही उन्हें स्पर्श कर पाती है।
  
सजल संवेदनाओं, सघन भावनाओं एवं प्रेम की प्रतीति को जो अपने जीवन में घोल देते हैं, उनका जीवन सहज ही प्रार्थनामय हो जाता है। सूफी फकीरों में इस बारे में एक घटना बहुप्रचलित है। सूफी फकीर नूरी को उनके कुछ अन्य फकीर साथियों के साथ काफिर होने का आरोप लगाया गया था। इसके लिए इन सबको मृत्युदण्ड भी सुना दिया था।
  
मृत्युदण्ड की घड़ी में जब जल्लाद फकीर नूरी के एक साथी के पास नंगी तलवार को लहराता हुआ आया, तो नूरी ने उठकर स्वयं को अपने मित्र के स्थान पर पेश किया। ऐसा करते समय नूरी के चेहरे पर गहरी प्रसन्नता और स्वरों में भरपूर नम्रता थी। इस दृश्य को देखकर दर्शक स्तब्ध रह गए। हजारों की भीड़ एक पल को सहम गयी।
  
अचरज से भरे जल्लाद ने कहा- हे युवक! तलवार ऐसी वस्तु नहीं है, जिससे मिलने के लिए लोग उत्सुक एवं व्याकुल हों और फिर तुम्हारी तो अभी बारी भी नहीं आयी। जल्लाद की इन बातों पर फकीर नूरी मुस्करा उठे और कहने लगे- मेरे लिए प्रेम ही प्रार्थना है। मैं जानता हूँ कि जीवन, संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु है। लेकिन प्रेम के मुकाबले वह कुछ भी नहीं है। जिसे प्रेम उपलब्ध हो जाता है, उसके लिए सारा जीवन प्रार्थना बन जाता है। और प्रार्थनाशील मनुष्य का कर्त्तव्य है कि जब भी कोई कष्ट आगे आए, तो स्वयं सबसे आगे हो जाओ और जहाँ सुख-सुविधाएँ मिलती हों तो वहाँ पीछे होने की कोशिश करो।
  
फकीर नूरी की इन बातों ने जता दिया कि प्रार्थना का कोई ढाँचा नहीं होता। वह तो हृदय का सहज अंकुरण है। जैसे पर्वत से झरने बहते हैं, वैसे ही प्रेमपूर्ण व्यक्ति के प्रत्येक कर्म में प्रार्थना की धुन गूँजती है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १२६

👉 Gayatri Sadhna truth and distortions (Part 7)

Q.9. Why is Gayatri designated as Vedmata, Devmata and Vishwamata?  

Ans. Gayatri has been called Vedmata because it is the essence of source of Vedas. It is called Devmata because there is perpetual growth of divinity and righteousness in its devotee. Its ultimate object is to inculcate and awaken the feeling of ‘Vasudhaiv Kutumbakam’ and ‘Atmavat Sarvabhooteshu’ (Welfare of man - the individual lies in the welfare of all humankind). It is known as Vishwamata since it aims at establishment of good-will, equality, unity and love amongst the entire human race, cutting across barriers of language, race, colour, sex etc. and ultimately uniting the whole world on basis of realised spiritual unity in diversity.

The individual basis of Gayatri is to establish righteous wisdom. ‘Naha’ implies inculcation of cooperation and collective endeavour - mutual caring and sharing.
The absolute wisdom condensed in Gayatri magnified itself as the Vedas. For this reason Gayatri is known as the Mother of Vedas. (Gayatri Mantra is the  means for invocation of Divine grace).  
Gayatri is the fountainhead of all divine powers (Devtas). It is therefore, known as the Devmata. (Ref. Tandya Brahman).

Gayatri sustains the cosmos as the three Supreme Emanations of the Supreme, known as Brahma, Vishnu and Mahesh. Hence, it is called Vishwamata (Ek Pwan Kashi Khand, Poorvardha 4.9.58)

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 22

👉 निर्माण से पूर्व सुधार की सोचें (भाग ४)

जीभ का चटोरापन अनावश्यक मात्रा में अभक्ष्य पेट पर लादता है और क्रमशः अपच, रक्त दूषण बढ़ाते-बढ़ाते समूची स्वास्थ्य सम्पदा को ही बर्बाद करके रख देता है। इसी प्रकार कामुक चिन्तन में निरत रहने वाले पाते तो कुछ नहीं, अपनी एकाग्रता और चिन्तन की शालीनता गिराते-गिराते, घटाते-घटाते खोखला बनाने वाली दुश्चरित्रता के मानसिक मरीज बन जाते हैं। ऐसे लोग बौद्धिक दृष्टि से तो दुर्बल होते ही जाते हैं। शरीरबल, मनोबल और चरित्र बल की दृष्टि से भी गई गुजरी स्थिति में जा पहुँचते हैं।

व्यक्तित्व को खोखला करने वाली दुष्प्रवृत्तियों को अपने चिन्तन, स्वभाव और व्यवहार में ढूँढ़ते रहा जाय, साथ ही उन्हें संक्रामक बीमारी मानकर समय रहते उन्मूलन का उपाय उपचार किया जाता रहे तो यह अपने आप से स्वयं लड़ते रहने की शूरता किसी सफल सेनापति को विजयश्री मिलने जैसी मानी जायेगी। जो अपने को जीतता है वह विश्व विजयी बनता है। इस उक्ति को सर्वथा सारगर्भित समझा जाना चाहिए। गीता में ऐसे ही धर्मक्षेत्र, कर्मक्षेत्र में अर्जुन को लड़ने का उपदेश भगवान ने दिया था। वह हर विचारशील के लिए सदा सर्वदा अनुकरणीय है।

वह व्यक्तिगत सुधार परिधि की गुण, कर्म, स्वभाव क्षेत्र की चर्चा हुई। अब एक कदम और आगे बढ़ना चाहिए। परिवार एवं समाज में प्रयुक्त होने वाले प्रचलनों को भी इसी दृष्टि से देखना चाहिए और खोजना चाहिए कि सर्वत्र न सही अपने निज के व्यवहार तथा सम्बद्ध परिवार में ऐसी क्या अवांछनीयताएँ हैं जो व्यक्तिगत क्षेत्र में पनपने पर भी समूचे समाज के लिए घातक सिद्ध होती हैं। हैजा प्लेग के विषाणु आरम्भ में किसी छोटे क्षेत्र में होते हैं पर छूत की बीमारी बनकर दूर-दूर तक फैलते और असंख्यों का प्राण हरण करते चले जाते हैं। मूढ़ मान्यताएँ, कुरीतियाँ और अनैतिकताएँ एक प्रकार से चरित्र एवं समाज क्षेत्र की बीमारियाँ हैं। यह जहाँ पनपती हैं उतने ही क्षेत्र में तबाही नहीं करती वरन् अपनी चपेट में सुविस्तृत क्षेत्र को जकड़ती और पतन पराभव का वातावरण बनाती चली जाती हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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