बुधवार, 22 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 22 Nov 2023

🔶 उत्कृष्ट या निकृष्ट जीवन यथार्थतः मनुष्य के विचारों पर निर्भर है। कर्म हमारे विचारों के रूप हैं। जिस बात की मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, वह अपनी पसन्द या दृढ़ इच्छा के कारण गहरी नींव पकड़ लेती है, उसी के अनुसार बाह्य जीवन का निर्माण होने लगता है।

🔷 संसार में कोई भी वस्तु ऐसी दुर्लभ नहीं है जिसे आप प्राप्त न कर सकते हों, पर इसके लिये आपका हृदय परमात्मा जितना विशाल होना चाहिये। आपको अपनी आत्म-स्थिति घुलाकर परमात्मा के साथ तादात्म्य की अवस्था बनाने में देर है। इतना उदार दृष्टिकोण आप का हुआ कि सारी धरती पर आपका अधिकार हुआ। सबको प्यार कीजिये, सब आपके हैं, जी चाहे जहाँ विचरण कीजिये, सारी धरती आपके पिता परमात्मा की है। सबको अपना समझने, सबको पवित्र दृष्टि से देखने, जीव मात्र के प्रति प्रेम और आत्मीयता का व्यवहार करने से आप यह उत्तराधिकार पा सकेंगे।

🔶 कमजोरी और कायरता का कारण लोगों में सही दृष्टिकोण का अभाव है। मनुष्य शरीर के अभिमान में पड़कर आत्मा के वास्तविक स्वरूप को भूल जाने के कारण ही व्यवहार में इतना संकीर्ण हो रहा है। जाति-पाँति, भाषा-भाव के भेद के कारण हमने पारस्परिक विलगाव पैदा कर लिया है, इसी से हम छोटे हैं, हमारी शक्तियाँ अल्प हैं। किन्तु जब आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो संसार का स्वरूप ही बदल जाता है। भेदभाव की नासमझी निजत्व के ज्ञान के प्रकाश में मिट जाती हैं। सब अपने ही समान, अपने ही भाई और एक ही परमात्मा के अंश होंगे तो फिर किसी के साथ धृष्टता करने का साहस किस तरह पैदा होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 एक से अनेक बनने की इच्छा और आवश्यकता

एक से अनेक बनने की इच्छा और आवश्यकता ने ही इस संसार का सृजन किया । ब्रह्म ने सोचा एकाकी जीवन नीरस और निरर्थक है, उसे विकसित और विस्तृत होना चाहिए । इच्छा-संकल्प के रूप में बदली और उसने क्रिया बनकर सृष्टि का मूर्तरूप धारण कर लिया । ब्रह्म की इस वंश परम्परा को साथ लेकर ही जीव जन्मा है । एक ही आकांक्षा और ज्योति वह भी जलाये बैठा है - विकसित होना - विस्तार करना । यार-दोस्तों की मंडली, मेला-ठेला देखने की प्रवृति, बस्तियों में रहने की इच्छा, परिवार बनाने की आकांक्षा, नेता बनने की उमंग, आदि लगभग सभी क्रिया-कलापों के पीछे मूलभूत अन्त:प्रेरणा यही रहती है कि उसे एकाकी नहीं विस्तृत होकर रहना चाहिए । वृक्ष-वनस्पतियों तक में यही परम्परा है । एक से अनेक होने की वृति ने ही उन्हें फलने-फूलने का अवसर दिया है । काम-कौतुक, प्रजनन, दम्पत्ति, साहचर्य, परिवार प्रेम के पीछे वही ब्रह्म परम्परा सन्नहित है जिसने इस सृष्टि का सृजन कराया । उससे छुटकारा किसी को नहीं ।

प्रकृति ने विषयानन्द के आकर्षण से समस्त प्राणियों को इसलिये बॉंधा है कि वे विकास-विस्तार के लिए प्रयत्नशील रहें । माता के हृदय में वात्सल्य का सृजन इसीलिए हुआ है । दाम्पत्य जीवन में एक-दूसरे के बंधन में बँधना इसलिए स्वीकार किया जाता है -उसमें उल्लास इसलिए रहता है कि अनेक झंझटों और उत्तरदायित्वों के बढ़ते हुए भी एक से दो और दो से अधिक बनने की आन्तरिक अभिलाषा की पूर्ति होती है ।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.२६)


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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