रविवार, 5 नवंबर 2023

👉 आत्मसुधार

एक बार एक व्यक्ति दुर्गम पहाड़ पर चढ़ा, वहाँ  पर उसे एक महिला दिखीं, वह व्यक्ति  बहुत अचंभित हुआ, उसने जिज्ञासा व्यक्त की कि "वे इस निर्जन स्थान पर क्या कर रही हैं"। उन महिला का उत्तर था" मुझे अत्यधिक काम हैं"। इस पर वह व्यक्ति बोला "आपको किस प्रकार का काम है, क्योंकि मुझे तो यहाँ आपके आस-पास कोई दिखाई नहीं दे रहा"। महिला का उत्तर था" मुझे दो बाज़ों को और दो चीलों को प्रशिक्षण देना है, दो खरगोशों को आश्वासन देना है,  एक सर्प को अनुशासित करना है और एक सिंह को वश में करना है। व्यक्ति बोला "पर वे सब हैं कहाँ, मुझे तो इनमें से कोई नहीं दिख रहा"। महिला ने कहा "ये सब मेरे ही भीतर हैं।"

दो बाज़ जो हर उस चीज पर गौर करते हैं जो भी मुझे मिलीं, अच्छी या बुरी। मुझे उन पर काम करना होगा, ताकि वे सिर्फ अच्छा ही देखें ---- ये हैं मेरी आँखें।

दो चील जो अपने पंजों से सिर्फ चोट और क्षति पहुंचाते हैं, उन्हें प्रशिक्षित करना होगा, चोट न पहुंचाने के लिए ----- वे हैं मेरे हाँथ।

खरगोश यहाँ - वहाँ भटकते फिरते हैं पर कठिन परिस्थितियों का सामना नहीं करना चाहते। मुझे उनको सिखाना होगा पीड़ा सहने पर या ठोकर खाने पर भी शान्त रहना ---- वे हैं मेरे पैर।

गधा हमेशा थका रहता है, यह जिद्दी है। मै जब भी चलती हूँ, यह बोझ उठाना नहीं चाहता, इसे आलस्य प्रमाद से बाहर निकालना है ---- यह है मेरा शरीर।

सबसे कठिन है साँप को अनुशासित करना। जबकि यह 32 सलाखों वाले एक पिंजरे में बन्द है, फिर भी यह निकट आने वालों को हमेशा डसने, काटने, और उनपर अपना ज़हर उडेलने को आतुर रहता है, मुझे इसे भी अनुशासित करना है ---- यह है मेरी जीभ।

मेरा पास एक शेर भी है, आह! यह तो निरर्थक ही घमंड करता है। वह  सोचता है कि वह तो एक राजा है। मुझे उसको वश में करना है---- यह है मेरा मैं।

तो मित्र, देखा आपने मुझे कितना अधिक काम है। सोंचिये और विचरिये हम सब में काफी समानता है---- अपने उपर बहुत कार्य करना है, तो छोडिए दूसरों को परखना, निंदा करना, टीका टिप्पणी करना और उस पर आधारित  नकारत्मक धारणायें बनाना। चलें पहले अपने उपर काम करें। अध्यात्मिक स्तर पे इसे अपनाएं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 05 Nov 2023

बूँद-बूँद जोड़ने से घड़ा भर जाता है। पतले धागे मिलकर मोटा, मजबूत रस्सा बनाते हैं। हम सबका सम्मिलित प्रयत्न युग निर्माण के रूप में परिणत हो सकता है। युग बदल सकता है, बशर्ते कि हम स्वयं बदलें। बहुत कुछ हो सकता है, बशर्ते कि हम स्वयं भी कुछ करने को तैयार हों। अपने बदलने, सुधरने और करने की अब आवश्यकता है। इस परिवर्तन के साथ ही हमारा समाज, राष्ट्र और संसार बदलेगा। प्रलोभनों और आकर्शणों में अपने आपको घुलाते रहने की अपेक्षा अब हमें आदर्शवाद की प्रतिस्थापना करने के लिए कष्ट उठाने की भावनाएँ अपने अन्दर उत्पन्न करनी है। यही उत्पादन विश्व  शांति की सुरम्य हरियाली के रूप में दृश्टिगोचर हो सकेगा।                

नींव पर रखे हुए पत्थरों को कोई नहीं जानता, किन्तु शिखर के कँगूरे सबको दीखते हैं। पर श्रेय इन कँगूरों को नहीं; नींव के पत्थरों को ही रहता है। कँगूरे टूटते-फूटते और हटते-बदलते रहते हैं, पर नींव के पत्थर अडिग है। जब तक भवन रहता है, तब तक ही नहीं, वरन् उसके नष्ट हो जाने के बाद भी वे जहाँ के तहाँ बने रहते हैं। इसी प्रवृत्ति के बने हुए लौह स्तम्भों को ‘युग पुरुष’ कहते हैं। उन्हीं के द्वारा युगों का निर्माण एवं परिवर्तन व्यवस्था सम्पन्न होते हैं।                                                  

अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को हम उसी दृष्टि से देखते हैं जैसे कि कोई वयोवृद्ध व्यक्ति अपने निज के कुटुम्ब परिवार को देखता है। जिस प्रकार हममें से हर एक को अपन-अपना परिवार सुविकसित करना है, उसी प्रकार हम भी अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्यों को अपना निजी कुटुम्ब मानकर उसे ऐसा सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनाना चाहते हैं; जिसे देखकर दूसरों को भी उसी ढाँचे में ढलने की प्रेरणा मिले। पर हमारे यह प्रयत्न सफल तभी हो सकते हैं, जब प्रत्येक परिजन हमें भी वैसी ही आत्मीयता की दृष्टि से देखें और जो कहा या लिखा जा रहा है उसे भावनापूर्वक सुने-समझें। उपेक्षित बूढ़े लोग जिस प्रकार अपनी बेकार बकझक करते रहते हैं और घर के लोग उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते, यदि वही स्थिति अपनी भी रही, तो हमारा स्वप्न साकार न हो सकेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...