शनिवार, 30 अप्रैल 2022

👉 अभिमान

एक राजा को यह अभिमान था मैं ही राजा हूँ और सब जगत् का पालक हूँ, मनु आदि शास्त्रकारों के व्यर्थ विष्णु को गत् पालक कहकर शास्त्रों में घुसेड़ दिया है। एकबार एक संन्यासी शहर के बाहर एक पेड़ के नीचे जा बैठे। लोग उनकी शान्तिप्रद मीठी-मीठी बातें सुनने के लिए वहाँ जाने लगे। एक दिन राजा भी वहाँ गया और कहने लगा कि मैं ही सब लोगों का पालक हूँ।

यह सुनकर सन्त ने पूछा- तेरे राज्य में कितने कौए, कुत्ते और कीड़े हैं? राजा चुप हो गया। सन्त ने कहा-’जब तू यही नहीं जानता तो उनको भोजन कैसे भेजता होगा ? राजा ने लज्जित होकर कहा-’तो क्या तेरे भगवान कीड़े-मकोड़े को भी भोजन देते हैं ? यदि ऐसा है तो मैं एक कीड़े को डिबिया में बंद करके रखता हूं, कल देखूँगा भगवान इसे कैसे भोजन देते हैं? 

दूसरे दिन राजा ने सन्त के पास आकर डिबिया खोली तो वह कीड़ा चावल का एक टुकड़ा बड़े प्रेम से खा रहा था। यह चावल डिबिया बन्द करते समय राजा के मस्तक से गिर पड़ा था। तब उस अभिमानी ने माना कि भगवान ही सबका पालक है।

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👉 आज का सद्चिंतन 30 April 2022


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 30 April 2020



 
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👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २३

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

यह मानी हुई बात है कि संसार के अन्य समस्त मनुष्यों की भाति न्यूनाधिक मात्रा में आप में भी कोई छोटे-बड़े दोष होंगे ही, पर वे एक दिन बिलकुल दूर होकर रहेंगे, पर जब तक फसल पकने की प्रतीक्षा है तब तक उन्हें इस प्रकार रखिए कि किसी के लिए हानिकर परिणाम उपस्थित न करें। शरीर में मल-मूत्र की गंदी इंद्रियाँ मौजूद हैं, इन्हें ढक कर रखने का नियम चला आता है। अपान वायु सभी कोई त्यागते हैं पर सभ्यता का तकाजा है कि जरा धीरे से उस वायु को निकलने देना चाहिए ताकि उसका शब्द दूसरों के चित्त मे घृणा उत्पन्न न करे। फोड़े पर पट्टी बँधी रहने देते हैं ताकि सडा हुआ मवाद और विकृत घाव देखने वालों को नाक-भौं सिकोडंने का अवसर न दे।
 
गंदी नालियाँ ढक कर रखी जाती हैं, शौचालय खुले हुए नहीं रखे जाते। जिधर भी डालिए इस सर्वमान्य नियम की प्रमुखता पावेंगे कि ' बुराई प्रकाशित मत करो वरन उसे ढक कर रखो। ' इस नियम का अपने चरित्र और विचारों का प्रकटीकरण करते हुए भी ध्यान रखा करें तो निःसंदेह जन समाज का एक बड़ा भारी उपकार करेंगे। इस प्रकार बुराई का प्रभाव कम होगा वह छूत की बीमारी की तरह उड-उड़कर चारों ओर न फैलने पावेगी। स्वस्थ स्थानों में अस्वस्थता उत्पन्न न करेगी।

गंदगी को ढक दो और दफना दो ' इस डॉक्टरी नियम का जीवन क्षेत्र में भी प्रयोग कीजिए और प्रसंगों को वीर्यपात की तरह गुप्त रखिए। दुनियाँ आपसे सौंदर्य की, सत की, प्रमोद की, प्रफुल्लता की, प्रोत्साहन की आशा करती है आप उसे वही दीजिए। अल्प बुद्धि के दुकानदार को देखि,ए वह अपना अच्छा- अच्छा माल कैसे सुदर ढंग से सजाकर आगे रखता है ताकि देखने वालों को प्रसन्नता हो। रास्ता चलते व्यक्ति को भले ही उस दुकान से कुछ खरीदना न हो पर उस सजावट से नेत्रों को तृप्त करता है और मन ही मन प्रसन्न होता जाता है। आप अपने को उस से अधिक बुद्धिमान समझते हैं तो अपने सद्गुणों को दुनिया की दुकान मे इस प्रकार सजावट के साथ रखिए कि देखने वाले उसके सौंदर्य से कुछ आनंद अनुभव करते जावें। अपने कमरे को सजाकर रखने में आप कुशल हैं त्यौहार और उत्सवों के अवसर पर शरीर और घर की सजधज करना खूब जानते हैं फिर क्या ऐसा नहीं कर सकते कि अपनी उत्तमताओं को कलापूर्ण ढंग से सजाकर एक मनमोहक चित्रशाला बना दें और विश्व सौंदर्य में एक और मात्रा जोड़ देने का यश ग्रहण करें।

हम कहते हैं कि आप झूँठी झिझक संकोच, ' नम्रता को छोड दीजिए। यह विनय का बहुत वीभत्स रूप है कि अपने को दीन, रोगी, अयोग्य कह कर सुनने वाले को यह जताया जाए कि हम नम्र हैं। आप सचमुच ही बहुत अधिक मात्रा में उत्तम, भले एवं सुयोग्य हैं, अपनी अच्छाइयों को प्रकाश में लाइए दूसरों को उन्हें जानने दीजिए उत्तमता को प्रकट होने दीजिए। इससे आपको सन्मार्ग पर चलने में प्रोत्साहन, प्रगति और प्रकाश की प्राप्ति होगी। आदर, प्रतिष्ठा और श्रद्धा के भाजन बनने से आपका अंतःकरण ऊर्ध्वमुखी होकर परमार्थ की ओर अग्रसर होगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३६

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👉 भक्तिगाथा (भाग १२५)

लोक व्यवहार की मर्यादाओं से जुड़ी है भक्ति

श्रुतसेन की भक्तिगाथा सुनते हुए सभी के भावों में भक्ति की अनूठी लहर उठी। भक्ति के अमृतकण उनके अस्तित्त्व में बिखरने लगे। सुनने वालों के अन्तर्मन में अनोखी मिठास सी घुल रही थी। इस बीच देवर्षि दो पल के लिए रूके तो सभी को एक साथ लगा कि जैसे इस घुमड़ते-उफनते भावप्रवाह में अचानक कोई अवरोध आ गया। महर्षि क्रतु से तो रहा ही न गया। वह बोले- ‘‘देवर्षि! श्रुतसेन के बारे में कुछ अधिक सुनने का मन है।’’ ऋषि क्रतु के इस कथन की सहमति में अनेकों स्वर उभरे। जिसे सुनकर नारद ने कहा- ‘‘जिस तरह से आप सब वत्स श्रुतसेन के बारे में कुछ अधिक सुनना चाहते हैं, ठीक उसी तरह मैं उस महान भक्त के बारे में कुछ और अधिक कहना चाहता हूँ।’’

‘‘अहा! यह तो अति उत्तम बात हुई।’’ गन्धर्वश्रेष्ठ चित्रसेन ने सुमधुर स्वर में कहा- ‘‘भक्त का जीवन होता ही इतना पावन है। उसके जीवन के प्रत्येक घटनाक्रम एवं प्रसंग में भगवान की भक्ति एवं भगवान् की चेतना घुली होती है। इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष सान्निध्य जितना अधिक हो जीवन के लिए उतना ही श्रेष्ठ एवं शुभ है।’’ ‘‘निश्चित ही गन्धर्वराज चित्रसेन सर्वथा उचित कह रहे हैं।’’ गायत्री के महातेज को स्वयं में समाहित करने वाले विश्वामित्र ने कहा। उन्होंने देवर्षि नारद को स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखते हुए बोला- ‘‘हे भक्ति के आचार्य! सचमुच ही भक्ति से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं है। यह सत्य मैं स्वतः के अनुभव से कह सकता हूँ। मैंने स्वतः के जीवन में तप एवं ज्ञान के अनेक शिखरों को पार किया है। इनके सौन्दर्य से मैं अभिभूत भी हुआ हूँ। लेकिन भक्ति के सौन्दर्य के सामने यह सभी तुच्छ हैं।’’

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के इस कथन की प्रायः सभी ने सराहना करते हुए उनकी विनम्रता एवं सदाशयता की प्रशंसा की। ऋषिमण्डल एवं देवमण्डल में सभी उनकी महानता से सुपरिचित थे। सभी को उनकी सामर्थ्य का ज्ञान था। इतना ही नहीं प्रायः सब को इस महान सत्य का भी पता था कि महर्षि का बाह्य व्यक्तित्व दुर्धर्ष तपस्वी एवं परम ज्ञानी का होते हुए भी उनका आन्तरिक व्यक्तित्व सुकोमल भक्त का है। भक्त, भक्ति एवं भगवान उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय है। यही वजह है कि वह भक्त श्रुतसेन के बारे में कुछ और जानना-सुनना चाहते थे।

देवर्षि नारद को भी यह सत्य पता था। इसलिए उन्होंने बिना एक क्षण की देर लगाए अपनी स्मृतियों के कोष को निहारा, जहाँ श्रुतसेन की सुनहली स्मृतियाँ अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रही थी। इसे समेटते हुए उन्होंने कहा- ‘‘सचमुच ही वत्स श्रुतसेन का व्यक्तित्व भगवान से ओत-प्रोत था। जो भी विपत्तियाँ उनके जीवन में आ रही थीं, उनसे वह तनिक भी विचलित न थे। बाधाओं, विषमताओं से उन्हें कोई भी शिकायत न थी। विनयशीलता तो उनमें कूट-कूट कर भरी थी। सम्राट हिरण्यकश्यप हों या फिर भार्गव शुक्राचार्य, इन दोनों का वह हृदय की गहराइयों से सत्कार व सम्मान करते थे।

ऐसे कई अवसर आए जब सम्राट हिरण्यकश्यप एवं भार्गव शुक्राचार्य को उनके विनय ने विचलित कर दिया। उन्होंने अपने सेवकों एवं शिष्यों को बड़ी कड़ाई से हिदायत देते हुए कहा, श्रुतसेन को मेरे सम्मुख न लाया करो। मुझे भय है कि कहीं उसका विनय, उसके द्वारा पूरी सच्चाई से किया सत्कार, मेरे हृदय को ही न परिवर्तित कर दे। अलग-अलग अवसरों पर यह सत्य सम्राट हिरण्यकश्यप एवं भार्गव शुक्राचार्य दोनों ने ही शब्दों की थोड़ी फेर-बदल के साथ व्यक्त किया। श्रुतसेन के इस अनूठे लोकव्यवहार पर स्वयं मुझे भी आश्चर्य हुआ।

इसलिए जब मैं उससे मिला तो जानना चाहा- वत्स! तुम इतनी विषमाताओं में इतना लोकव्यवहार किस तरह से निभा लेते हो? उत्तर में श्रुतसेन ने हल्की सी मधुर मुस्कान से साथ कहा- देवर्षि! यह सब बहुत आसान है। हृदय में भक्ति का उदय हो जाय तो फिर लोकव्यवहार में कोई अड़चन नहीं रहती। उसका पहला कारण यह है कि भक्त को अपने भगवान के सिवा अन्य कोई चाहत नहीं रहती। इसका दूसरा कारण यह है कि भक्त सभी में अपने आराध्य को ही निहारता है और भक्त कभी भी अपने आराध्य के साथ कठोर तो हो ही नहीं सकता।

श्रुतसेन की ये बातें उसी क्षण मेरे दिल को छू गयीं। मैंने सोचा जब श्रुतसेन जैसे सिद्धभक्त इतना लोकव्यवहार निभाते हैं तब उन्हें तो लोकव्यवहार का पालन करना ही चाहिए, जिन्होंने अभी भक्ति के मार्ग में पाँव रखा है। फिर उसी पल मेरे हृदय में इस भक्ति सूत्र का आविर्भाव हुआ-

‘न तदसिद्धौ लोकव्यवहारौ हेयः
किन्तु फलत्यागस्तत्साधनं च कार्यमेव’॥ ६२॥

जब तक भक्ति में सिद्धि न मिले, तब तक लोक व्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिए बल्कि फलत्याग कर, निष्काम भाव से उस भक्ति का साधन करना चाहिए।

श्रुतसेन से बातें करते हुए, अनायास ही यह सूत्र मेरे मुख से उच्चारित हो गया। इसे सुनकर श्रुतसेन ने साधु! साधु!! अतिश्रेष्ठ!!! ऐसा कहते हुए मेरी सराहना की। तब मैने पूछा- वत्स! इसमें सराहना की क्या बात है? उत्तर में उन्होंने कहा- देवर्षि! सराहना सूत्र के शब्दों की नहीं बल्कि इनमें निहित गूढ़ अर्थ की है। ऐसा क्या गूढ़ अर्थ अनुभव किया तुमने? इस पर श्रुतसेन ने कहा- भक्ति की महाबाधा अहंकार है। जो लोकव्यवहार की मर्यादाओं एवं वर्जनाओं का सम्मान करता है, उसका अहंकार स्वतः ही विगलित हो जाता है। इस अहंता के साथ दो अन्य बाधाएँ वासना एवं तृष्णा भी स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं क्योंकि लोकव्यवहार की प्रायः सभी मर्यादाएँ एवं वर्जनाएँ इन्हीं तीनों वासना, तृष्णा एवं अहंता के नियमन व नाश के लिए हैं।

जो भी भगवत्स्मरण करते हुए लोकव्यवहार की मर्यादाओं एवं वर्जनाओं को हृदय से मान लेता है, उसके लिए भक्ति का सुपथ स्वतः ही प्रकाशित हो जाता है। सच कहें तो देवर्षि! लोकव्यवहार एवं भक्ति का परस्पर कोई विरोध है ही नहीं, बल्कि उल्टे ये दोनों तो एक दूसरे के परस्पर सहयोगी एवं पूरक हैं। सारी लोकमर्यादाएँ एवं वर्जनाएँ इसलिए हैं कि परिवार एवं समाज के कलह एवं संघर्ष को मिटाया जा सके। गहराई से देखें तो कलह एवं संघर्ष का कारण सुख की चाहत है। व्यक्ति में सुख की चाहत असीमित एवं समाज में सुख के साधन सीमित। अब सुख के साधन तो असीमित किए नहीं जा सकते। हाँ! सुख की चाहत अवश्य नियंत्रित की जा सकती है। लोकव्यवहार की सभी मर्यादाएँ एवं वर्जनाएँ इसी उद्देश्य के लिए हैं।

श्रुतसेन का यह चिन्तन देवर्षि को बहुत भाया। वह कुछ और अधिक सोच पाते, इससे पहले ही अपनी वार्ता के सूत्र को आगे बढ़ाते हुए श्रुतसेन ने कहा- भक्त का सुख तो अपने भगवान में होता है। भक्त की भक्ति स्वतः ही उसकी वासना, तृष्णा एवं अहंता को नियंत्रित व रूपान्तरित कर देती है। ऐसी स्थिति में लोकव्यवहार उसके लिए सर्वदा सुलभ एवं सहज हो जाता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४६

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शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

👉 भगवान का पुत्रः क्रूसारोही मानव−पुत्र

मैं तुमसे कहता हूँ, अपने जीवन की चिन्ता न करो, मत सोचो कि तुम क्या खाओगे और क्या पियोगे? मत सोचो कि तुम अपने शरीर पर क्या पहनोगे। क्या जीवन भोजन से अधिक नहीं है? क्या शरीर वसन से अधिक नहीं है?

अरे, इन हवा के पंखियों को तो देखो, न तो ये बीज बोते हैं, न फसल काटते हैं, न खलिहान में धान जमा करते हैं; फिर भी तुम्हारे स्वर्गीय परम पिता उनका पोषण करते हैं। ओरे मानवो, क्या तुम उन पंखियों से बेहतर नहीं हो?

अरे कौन है तुम में ऐसा, जो अपने जीवन का सोच−विचार करके भी, अपने जीवन की स्थिति एक अणु भर भी बढ़ाने या घटाने में समर्थ हो सका है?

इसी से कहता हूँ, कि इस चिन्ता में न पड़ो, कि हम क्या खायेंगे? हम क्या पियेंगे? हमारे तन को ढकने को वस्त्र कहाँ से आयेगा? क्योंकि अश्रद्धालु जन ही इन चीजों के पीछे जाते हैं। जान लो, कि तुम्हारे स्वर्गीय परम पिता अच्छी तरह जानते हैं, कि तुम्हें इन चीजों की जरूरत है।

मैं कहता हूँ, कि पहले तुम भगवान के राज्य को खोजो, उनकी सत्याचरण की राह पर चलो और तुम्हारी आवश्यकता की ये सारी चीजें आपो आप ही तुम्हारे पास चली आयेगी।

इसी से मैं कहता हूँ, कि आने वाले कल की चिन्ता में न पड़ो, क्योंकि वह कल स्वयं अपने साथ आने वाली चीजों की चिन्ता करेगा।

अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1974 पृष्ठ 1

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गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 28 April 2020


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👉 आज का सद्चिंतन 28 April 2020

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👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २२

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

अपने अच्छे गुणों को प्रकट होने देने में आपका भी लाभ है और दूसरों' का भी। हानि किसी की कुछ नहीं। यदि आपके योग्यताओं का पता दूसरों को चलता है तो उनके सामने एक आदर्श उपस्थित होता है, एक की नकल करने की प्रथा समाज में खूब प्रचलित है, संभव है उन गुणों और योग्यता,ओं का अप्रत्यक्ष प्रभाव किन्हीं पर पडे और वे उसकी नकल करने के प्रयास में अपना लाभ करें। सद्गुणी व्यक्ति के लिए स्वभावत: श्रद्धा, प्रेम और आदर की भावना उठती हैं, जिनके मन में यह उठती है उसे शीतल करती हैं, बल देती हैं, पुष्ट बनाती हैं। दुनियाँ में भलाई अधिक है या बुराई ? इसका निर्णय करने में अक्सर लोग आसपास के व्यक्तियों देखकर ही कुछ निष्कर्ष निकालते हैं। आपके संबंध में यदि अच्छे विचार फैले हैं तो सोचने वाले को अच्छाई का पक्ष भी मजबूत मालूम देता है और  वह संसार के संबंध में अच्छे विचार बनाता है एवं खुद भी भलाई पर विश्वास करके भली दुनियों के साथ त्याग और सेवा सत्कर्म करने को तत्पर होता है।

इसके विपरीत यदि उसके सामने लोगों के दुष्ट आचरणों का ही सा जमाव हो तो स्वभावत: वह झुँझला उठेगा, दुनियाँ को स्वार्थी,निकम्मी, धूर्त मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार करने की सोचेगा, जबकि चारों ओर बुरे ही बुरे आचरण वाले लोग दीख रहे हैं तो संभव है कि सत्कर्म वाला निराश हो जाए, चिढकर बदला लेने, जैसे के साथ तैसा व्यवहार करने को उतारू होकर बुरे काम करने लगे। यदि आपके दुर्गुण ही उसके सामने पहुँचते हैं तो स्वभावत: घृणा, क्रोध, द्वेष, भय के भाव उसके मन मे उठेंगे और वे जहाँ से उत्पन्न हुए हैं उस स्थान को भी उसी प्रकार जलावेंगे जैसे अग्नि की चिनगारी जहाँ रखी है पहले उसी स्थान को जलाना शुरू करती है।
 
यदि आप दुर्गुणी प्रसिद्ध हैं तो किसी न किसी कमजोर स्वभाव के आदमी पर अप्रत्यक्ष रूप से उसका असर पड़ेगा और संभव है कि नकल करने की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर वह उन दुर्गुणों' को अपनाने लगे। यह तो बिलकुल साधारण बात है कि मित्र लोग उन दुर्गुणों को तरह देकर आपसे स्नेह संबंध कायम रखेंगे, बुराई को तरह देने की आदत धीरे- धीरे संस्कार का रूप धारण करेगी और फिर उस बुराई या उससे मिलती-जुलती अन्य बुराई को बिना घृणा या क्रोध किए सहन करने की आदत मजबूत हो जाएगी। पाप को तरह देना, अर्द्ध, रूप से उसमें सम्मिलित होना ही है।

ध्यानपूर्वक विचार करके देखिए यदि आप अपने को दुर्गुणी प्रकाशित करते हैं, लोगों में अपनी अयोग्यताएँ फैलाते हैं तो इसका अर्थ यह है कि उनके साथ अपकार करते हैं। दोष जान लेने से किसी का कोई फायदा नहीं वरन हानि बहुत। यह समझना भ्रम है कि दोष प्रकट हो जाने से लोग सावधान रहेंगे '। सच बात यह है कि बुद्धिमान आदमी दुर्गुणी और किसी से धोखा नहीं खाएगा। मुर्ख को ईश्वर से भी धोखा होने का डर है। कई मूर्ख महात्मा गाँधी सरीखे प्रात: स्मरणीय महात्मा को गालियाँ देते हुए कहते हैं कि उनके कारण हमारी अमुक हानि हुई। ईश्वर पर अनुचित भरोसा करने वाले भी हानि उठाते हैं। निश्चय ही अपने को, अयोग्य या बुरे रूप में प्रकट होने देना, सचमुच बुरा होने की अपेक्षा भी बहुत बुरा है। इसमें अपनी हानि से भी अधिक दूसरों की हानि है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३४

👉 भक्तिगाथा (भाग १२४)

भक्त को लोकहानि की कैसी चिन्ता

इसे सुनकर देवर्षि ने वीणा की मधुर झंकृति के साथ उच्चारित किया-
‘लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात्’॥ ६१॥

लोकहानि की चिन्ता (भक्त) को नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह (भक्त) अपने आपको और लौकिक-वैदिक (सब प्रकार के) कर्मों को भगवान को अर्पण कर चुका है।
सूत्र के उच्चारण के साथ देवर्षि नारद के मन में ब्राह्मणकुमार श्रुतसेन की स्मृति और भी सघन हो गयी। उनके मन मानस में चलती इस विचार श्रृंखला को ऋषि पुलह भली-भांति समझ पा रहे थे। तभी तो उन्होंने फिर से देवर्षि नारद को याद कराया- ‘‘किसकी स्मृतियाँ आपकी भावनाओं को भिगो रही हैं।’’ पुलह के इस कथन पर देवर्षि ने अश्रु पोंछते हुए कहा- ‘‘सचमुच ही ऋषिश्रेष्ठ। मुझे प्रह्लाद के प्रिय सखा श्रुतसेन की स्मृतियों ने घेरा हुआ है। अभी मैंने अपने इस सूत्र में जिस सत्य की चर्चा की, वह उसका मूर्त रूप था।’’ वहाँ उपस्थित जन इस सत्य से सुपरिचित थे कि भक्त, भक्ति व भगवान की स्मृति देवर्षि को विभोर करती है। साथ ही असत्य तो कभी देवर्षि का स्पर्श ही नहीं करता।

सभी के मन में प्रह्लाद के प्रिय सखा श्रुतसेन की भक्तिकथा जानने की जिज्ञासा तीव्र हो उठी। देवर्षि ने भी बिना कोई देर लगाए कहना शुरू किया- ‘‘श्रुतसेन की भक्ति अतुलनीय थी। उसके लिए उसके आराध्य ही जीवन थे। प्रह्लाद के साथ ही श्रुतसेन को भी सम्राट हिरण्यकश्यप एवं भार्गव शुक्राचार्य का कोपभाजन बनना पड़ा। उसे गहरी शारीरिक एवं अनेक मानसिक यातनाएँ दी गयीं। उसके परिवार को भी अकारण पीड़ित होना पड़ा। एक तरफ शुक्राचार्य के प्रचण्ड तांत्रिक प्रहार उस पर होते तो दूसरी ओर सम्राट के सैनिक उसे व उसके परिवार को पीड़ित करते। एक बार प्रह्लाद ने उससे पूछा भी- हे मित्र! तुम्हे भय तो नहीं लगता तो उत्तर में वह हँस पड़ा और बोला- मैंने इतना जान लिया है कि नारायण की इच्छा के बिना इस सृष्टि में कभी कुछ भी घटित नहीं होता।

भक्त का जीवन तो भगवान के लिए सदा विशेष होता है। उसके जीवन में कोई भी घटनाक्रम घटित हो, किसी के भी द्वारा घटित हो, पर यथार्थ में सब कुछ भगवान के अनुसार ही घटित होता है। अन्य सब तो बस केवल कठपुतलियाँ हैं जो भगवान के मंगलमय विधान को रचित करने व घटित होने में सहयोग देते हैं। कहीं कोई दोषी होता ही नहीं। भगवान जिसे अपने प्रिय भक्त के लिए उचित एवं आवश्यक समझते हैं, उसे ही किसी न किसी माध्यम से अपने भक्त तक पहुँचा देते हैं। इसलिए मैं तो सदा-सर्वदा भगवत्कृपा की ही अनुभूति करता हूँ। श्रुतसेन की बात सुनकर प्रह्लाद को बड़ा सन्तोष हुआ। इसी के साथ श्रुतसेन के कष्ट तीव्र होते गए। रिश्ते-नाते छूटे-टूटे, लोकापवाद की बाढ़ सी आ गयी। सम्पदा जाती गयी, विपदा आती गयी पर श्रुतसेन सर्वथा निश्चिन्त था। कुछ दिनों तक उसे कारागार में रखने के बाद उसे गहन डरावने वन में छोड़ दिया। लेकिन इतने पर भी न तो उसकी प्रसन्नता कम हुई और न ही उसका ईश्वरविश्वास घटा।’’

श्रुतसेन की कथा सुनाते-सुनाते ऋषिवर थोड़ा ठहरे और फिर आगे बोले- ‘‘इन विपदाओं में भी वह भगवान नारायण के प्रति कृतज्ञ भाव से प्रार्थना करता- हे भगवान! मैं अति सौभाग्यशाली हूँ, जो मुझे आपने विपदाओं का वरदान देने के लिए चुना है। हे प्रभु! मेरा तो सभी कुछ आपका है, फिर इसका आप मेरे साथ चाहे जो और जैसे करें। श्रुतसेन के जीवन की विपत्तियों के साथ श्रुतसेन का चित्त, चिन्तन एवं चेतना नारायण में निमग्न होती गयी। इस अवस्था में भला नारायण उनसे कैसे दूर रह पाते सो वे भी अपने प्रिय भक्त श्रुतसेन के चित्त व चेतना में विहार करने लगे। सर्वसमर्पण का यही सुफल होना था। जो लोक और वेद को अपने प्रभु के लिए छोड़ देता है, प्रभु सदा के लिए उसके अपने हो जाते हैं। श्रुतसेन के अस्तित्व एवं व्यक्तित्व में भक्ति का यही सत्य मुखर हुआ।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४४

सोमवार, 25 अप्रैल 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २१

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

बाहरी रहन-सहन के कारण उन्हें गरीब ही समझा जाता है ' मरने के बाद जब घड़ों भरी हुई धन-दौलत जमीन में से निकलती है तब आश्चर्य करना पड़ता है कि लोगों को जिंदगी भर इसके इतने धनी होने का भेद प्रकट न हो पाया। बहुत लोग ऐसे रहस्यमय भेद अपने अंदर छिपाए पड़े रहते हैं जिनका पता उनके सगे- संबंधियों तक को नहीं लग पाता। गुप्त पुलिस के आदमी इस विद्या में बडे होते हैं वे अपनी असलियत का पता नहीं लगने देते और दूसरों सगे-संबंधी बनकर ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि बड़े- बड़े भेदों को निकाल लाते हैं।

इससे प्रकट होता है कि दूसरों को उतनी बात का पता चल पाता है जितनी आसानी से उनके सामने आ जाती है। सामने रखी गेंद का अगला भाग देखा जा सकता है पर उसका पृष्ठ भाग है यह तब तक नहीं मालूम हो सकता जब तक कि उसे उलट-पलट कर न देखा जाए। सच तो यह है कि किसी वस्तु के बारे में हम बहुत ही थोडे अंशों में जानकारी रखते हैं। अपने शरीर के भीतरी अंग किस गतिविधि से कार्य कर रहे हैं, अपने रक्त में किन रोगों के कीटाणु प्रवेश कर रहे हैं? निजी बातों का इतना पता नहीं तो दूसरे लोगों के मनोभाव, आचरण, कैसे हैं इसको ठीक-ठीक मालूम करना और भी कठिन है  मोटी-मोटी प्रकट बातों को देखकर किसी के गुण- अवगुणों के बारे में लोग अपनी सम्मति निर्धारित करते हैं और एक से एक सुनकर दूसरा भी अपनी सहमति वैसी ही बना लेता है। दो-चार पूर्ण- अपूर्ण बातों के आधार पर ही अक्सर सारा समाज अपनी भली- बुरी धारणा बना लेता है। व्यक्ति चाहे बदल गया हो पर वह धारणा मुद्दतों तक चलती जाती है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए आप अपने सुद्गुणों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न कीजिए। जो अच्छाइया, भलाइयाँ योग्यताएँ उत्तमताएँ विशेषताएँ हैं उन्हें छिपाया मत कीजिए वरन इस प्रकार रखा करिए जिससे वे अनायास ही लोगों की दृष्टि में आ जावें। अपने बारे में बढ-चढ कर बातें करना ठीक नहीं, शेखीखोरी ठीक नहीं, अहंकार से प्रेरित होकर अपनी बड़ाई के पुल बाँधना यह भी ठीक नहीं, अच्छी बात को बुरी तरह रखने में उसका सौंदर्य नष्ट हो जाता है।
 
दूसरे प्रसंगों के सिलसिले में कलापूर्ण ढंग से, मधुर वाणी से इस कार्य को बड़ी सुंदरता पूर्वक किया जा सकता है । अप्रिय सत्य को प्रिय सत्य बना कर कहने मैं बुद्धि-कौशल की परीक्षा है, बुराई की इसमें कुछ बात नहीं। जो गाय पाँच सेर दूध देती है क्या हर्ज है यदि इस बात से दुसरे लोग भी परिचित हो जाएँ?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३२

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👉 भक्तिगाथा (भाग १२३)

भक्त को लोकहानि की कैसी चिन्ता

भक्त प्रह्लाद की भक्तिकथा को सुनकर सबके मन आह्लादित हो उठे। उन क्षणों में वहाँ सभी के मनों में एक ही सत्य स्पन्दित होने लगा कि सच्चा भक्त कभी चिन्तित नहीं होता। फिर भला ऐसा हो भी क्यों न? जिसकी सारी चिन्ताओं का भार स्वयं भगवान वहन करें, वह क्यों चिन्तित हो। वैसे भी भक्त का दायित्व अपने भगवान का सतत चिन्तन करना है, व्यर्थ की चिन्ता करना नहीं। इन्हीं विचार वीथियों में सभी की मानसिक चेतना देर तक भ्रमण करती रही। इन भक्ति तरंगों के संग-संग ऋषिमण्डल व देवमण्डल सहित अन्य जनों ने भी अपना सन्ध्या वन्दन सम्पन्न किया। ऐसा करते हुए भगवान् सूर्यदेव धरती के दूसरी छोर पर प्रकाश, प्रखरता एवं पवित्रता का वितरण करने के लिए प्रस्थान कर गए। उनके प्रस्थान करते ही नील गगन में निशा देवी के धीमे पगों की आहट सुनायी देने लगी। इसी के साथ उनका तारों जड़ा श्याम परिधान समूचे नभमण्डल पर छा गया।

क्षण बीते-पल बीते। इसी के साथ नभ में चन्द्रोदय हो गया और तब भगवती निशा का श्याम परिधान धवल चन्द्रिका में नहा उठा। यह सर्वथा अनूठा व अनोखा दृश्य था। हिमालय के रजत शृंगों पर निशानाथ राशि की राशि चाँदनी उड़ेलने लगे। आस-पास के पर्वत शिखरों से प्रवाहित होने निर्झर, चन्द्रदेव की चन्द्रिका को अपनी जलराशि में समेटने-घोलने एवं प्रवाहित करने लगे। ऋषियों-देवों, सिद्धों व गन्धर्वों का समुदाय इस मनमोहक दृश्य को निहार रहा था। यह मनोहर दृश्य उनके भावों में और भी अधिक पुलकन उत्पन्न कर रहा था। देवर्षि नारद को अभी भी अपने प्रिय प्रह्लाद की स्मृतियाँ घेरे थीं। इन्हीं स्मृतियों में एक मीठी सी याद ब्राह्मण कुमार श्रुतसेन की भी उभरी। उन्हें याद आने लगा कि श्रुतसेन सदा प्रह्लाद के साथ अपना समय व्यतीत करते थे। नारायण नाम संकीर्तन में सबसे आगे थे। भार्गव शुक्राचार्य का शिष्य होने के बावजूद उसमें तमस व रजस का लेश भी न था। उसमें थी तो केवल शुद्ध सात्त्विकता।

भगवान श्रीनारायण के नाम का सत्प्रभाव कहें या फिर पिछले जन्मों के शुभ संस्कारों से मिली प्रतिभा अथवा भार्गव शुक्राचार्य जैसे महामनस्वी आचार्य के सान्निध्य का सुफल, वह देवशास्त्र, दर्शन, उपनिषद् आदि के साथ अन्य सभी विद्याओं व कलाओं में पारंगत हो गया। शुक्राचार्य चाहते थे कि श्रुतसेन अपने जीवन की सभी उपलब्धियों को उनकी कृपा माने। जाने-अनजाने बार-बार वह यह प्रयास भी करते पर श्रुतसेन बार-बार विनम्रतापूर्वक दुहरा देता, गुरुदेव सभी कुछ आपके आशीष एवं भगवान् नारायण की मंगलमय कृपा से सम्भव हो सका है। श्रुतसेन के इस कथन से शुक्राचार्य का अहं आहत हो जाता। यहाँ तक कि वह अपने चोटिल अहं के साथ श्रुतसेन का अनिष्ट करने पर विचार करने लगते।
देवर्षि को अभी भी वे सारी बातें याद थीं। बल्कि यूं कहें कि वे सारी बातें उनके मन के क्षितिज पर अपने आप ही उभर रही थीं। देवर्षि इन्हीं में स्वयं को पता नहीं कब तक भूले रहते, यदि महर्षि पुलह ने उन्हें टोका न होता। महर्षि उन्हें काफी देर से देखे जा रहे थे। कुछ देर तक यूं ही देखते रहने के बाद उन्होंने धीमे स्वर में कहा- ‘‘किस चिन्तन में खोये हैं देवर्षि!’’ ऋषिश्रेष्ठ पुलह के इस तरह टोकने पर देवर्षि कुछ बोल तो नहीं पाये बस मुस्करा दिए। तभी महात्मा सत्यधृति ने विनम्र स्वर में कहा- ‘‘हम सबको आपके अगले सूत्र की प्रतीक्षा है।’’ ‘‘यह सत्य है।’’ ऐसा कहते हुए अनेकों ने सत्यधृति का समर्थन किया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४३

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शनिवार, 23 अप्रैल 2022

👉 कर्मफल हाथों-हाथ

अहंकार और अत्याचार संसार में आज तक किसी को बुरे कर्मफल से बचा न पाये। रावण का असुरत्व यों मिटा कि उसके सवा दो लाख सदस्यों के परिवार में दीपक जलाने वाला भी कोई न बचा। कंस, दुर्योधन, हिरण्यकशिपु की कहानियाँ पुरानी पड़ गयीं। हिटलर, सालाजार, चंगेज और सिकन्दर, नैपोलियन जैसे नर-संहारकों को किस प्रकार दुर्दिन देखने पड़े, उनके अन्त कितने भयंकर हुए, यह भी अब अतीत की गाथाओं में जा मिले हैं। नागासाकी पर बम गिराने वाले अमेरिकन वैमानिक फ्रेड ओलीपी और हिरोशिमा के विलेन (खलनायक) मेजर ईथरली का अन्त कितना बुरा हुआ, यह देखकर सुनकर सैंकड़ों लोगों ने अनुभव कर लिया कि संसार संरक्षक के बिना नहीं है। शुभ-अशुभ कर्मों का फल देने वाला न रहता होता, तो संसार में आज जो भी कुछ चहल-पहल, हंसी खुशी दिखाई दे रही है, वह कभी की नष्ट हो चुकी होती।

इन पंक्तियों में लिखी जा रही कहानी एक ऐसे खलनायक की है जिसने अपने दुष्कर्मों का बुरा अन्त अभी-अभी कुछ दिन पहले ही भोगा है। जलियावाला हत्याकाँड की जब तक याद रहेगी तब तक जनरल डायर का डरावना चेहरा भारतीय प्रजा के मस्तिष्क से न उतरेगा। पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि डायर को भी अपनी करनी का फल वैसे ही मिला जैसे सहस्रबाहु, खर-दूषण, वृत्रासुर आदि को।

पंजाब में जन्मे, वहीं के अन्न और जल से पोषण पा कर अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में सिख धर्म में दीक्षित होकर भी जनरल डायर ने हजारों आत्माओं को निर्दोष पिसवा दिया था, उसे कौन नहीं जानता। इंग्लैंड उसकी कितनी ही प्रशंसा करता पर वह भगवान के दण्ड-विधान से उसी प्रकार नहीं बच सकता था, जैसे संसार का कोई भी व्यक्ति अपने किये हुए का फल भोगने से वंचित नहीं रहता। भगवान की हजार आँखें, हजार हाथ और कराल दाढ़ से छिपकर बचकर कोई जा नहीं सकता। जो जैसा करेगा, उसे वैसा भरना ही पड़ेगा। यह सनातन ईश्वरीय नीति कभी परिवर्तित न होगी।

हंटर कमेटी ने उसके कार्यों की सार्वजनिक निन्दा की, उससे उसका मन अशान्त हो उठा। तत्कालीन भारतीय सेनापति ने उसके किये हुए काम को बुरा ठहराकर त्यागपत्र देने का आदेश दिया। फलतः अच्छी खासी नौकरी हाथ से गई, पर इतने भर को नियति की विधि-व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। आगे जो हुआ, प्रमाण तो वह है, जो यह बताता है कि करने के फल विलक्षण और रहस्यपूर्ण ढंग से मिलते हैं।

सन 1921 में जनरल डायर को पक्षाघात हो गया, उससे उसका आधा शरीर बेकार हो गया। प्रकृति इतने से ही सन्तुष्ट न हुई फिर उसे गठिया हो गया। उसके मित्र उसका साथ छोड़ गये। उसके संरक्षक माइकेल ओडायर की हत्या कर दी गई। उसे तो चलना-फिरना तक दूभर हो गया। ऐसी ही स्थिति में एक दिन उसके दिमाग की नस फट गई और लाख कोशिशों के बावजूद वह ठीक नहीं हुई। डायर सिसक-सिसक कर, तड़प-तड़प कर मर गया। अन्तिम शब्द उसके यह थे-

मनुष्य को परमात्मा ने यह जो जीवन दिया है, उसे बहुत सोच-समझ कर बिताने वाले ही व्यक्ति बुद्धिमान होते हैं, पर जो अपने को मुझ जैसा चतुर और अहंकारी मानते हैं, जो कुछ भी करते न डरते हैं न लजाते हैं, उनका क्या अन्त हो सकता है? यह किसी को जानना हो तो इन प्रस्तुत क्षणों में मुझसे जान ले।’

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९७० पृष्ठ २३

गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २०

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

इस ईश्वरीय प्रयोजन पर विश्वास करिए आत्मा की प्रगतिशीलता पर भरोसा करिए आप सतोगुणी हैं उन्नतिशील हैं सफलता के अधिकारी हैं, विजय यात्रा के लिए निर्वाध गति से आगे बढ़ रहे हैं।

आइए अब एक पेचीदा प्रश्न पर कुछ विचार-विमर्श करें। कई व्यक्तियों में साधारण योग्यताएँ होते भी उनकी कीर्ति बहुत विस्तृत होती है और कईयों में अधिक  योग्यता होते हुए भी उन्हें कोई नहीं पूछता,कोई दुर्गुणी होते हुए भी श्रेष्ठ समझे जाते हैं, कोई सद्गुणी होते हुए भी बदनाम हो जाते हैं, आपने विचार किया कि इस अटपटे परिणाम का क्या कारण है? शायद आप यह कहें कि-' ' दुनियाँ मूर्ख है, उसे भले-बुरे की परख नहीं '' तो आपका कहना न्याय संगत न होगा क्योंकि अधिकांश मामलों में उसके निर्णय ठीक होते हैं। आमतौर से भलों के प्रति भलाई और बुरों के प्रति बुराई ही फैलती है, ऐसे अटपटे निर्णय तो कभी-कभी ही होते हैं।

कारण यह कि वही वस्तुएँ चमकती हैं जो प्रकाश में आती हैं। सामने वाला भाग ही दृष्टिगोचर होता है। जो चीजें रोशनी में खुली रखी हैं वे साफ-साफ दिखाई देती हैं, हर कोई उनके अस्तित्व पर विश्वास कर सकता है परंतु जो वस्तुएँ अंधेरे में, पर्दे के पीछे, कोठरी में बंद रखी हैं उनके बारे में हर किसी को आसानी से पता नहीं लग सकता। बहुत खोजने वाले, खासतौर से ध्यान देने वाले, तीक्षा परीक्षक बुद्धि वाले लोग ही उन अप्रकट वस्तुओं के संबंध में थोडा- थोडा जान सकते हैं, सर्वसाधारण के लिए वह जानकारी सुलभ नहीं है। दुनियाँ में हर एक मनुष्य के सामने उसकी निजी परिस्थितियाँ और समस्याएँ भी पर्याप्त मात्रा में सुलझाने को पडी रहती हैं, सारा समय लगाकर वे ही कठिनाई से हल हो पाती हैं, इतनी फुरसत किसे है जो दूसरों को गहराई से देखकर तब उस पर कुछ मत निश्चित करे। आमतौर से यही होता है कि जो बात जिस रूप में सामने आ गई, उसे वैसे ही रूप में मान लिया गया। डॉक्टर लोग अपनी दुकानों को सजाने के लिए खाली बोतलों में रंगीन पानी भर कर रख लेते हैं, ग्राहक उन्हें दवाएँ ही समझते हैं, किसे इतनी फुरसत है कि उन बोतलों की जाँच करता फिरे कि इनमें पानी है या दवा? कोई कोई कंजूस लोग बहुत धन-दौलत जमा किए होते हैं,
 
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३०

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👉 भक्तिगाथा (भाग १२२)

शान्ति और परमानन्द का रूप है भक्ति

इतना कहने के बाद देवर्षि ने वहाँ उपस्थित जनों की ओर देखा और बोले- ‘‘यदि आप सब श्रेष्ठजन अनुमति दें तो भक्तश्रेष्ठ प्रह्लाद का कथाप्रसंग कहूँ।’’ प्रह्लाद का नाम सुनकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ तथा विश्वामित्र तो रोमांचित हो उठे। वे दोनों लगभग एक साथ ही बोले- ‘‘भक्त प्रह्लाद धन्य हैं, उनके स्मरण से ही मन पावन हो जाता है। उनके बारे में कहना-सुनना जन्म व जीवन को धन्य करता है।’’ वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के कथन ने देवर्षि नारद को उत्साहित किया। वे कहने लगे- ‘‘भक्त प्रह्लाद का जन्म मेरे ही आश्रम में हुआ था। मैं जानता हूँ कि जीवन की जटिलताएँ व समस्याएँ उनके जन्म से पहले ही उनके जीवन में थीं। अलौकिक चमत्कारी सिद्धियों एवं प्रचण्ड तान्त्रिक शक्तियों के स्वामी भार्गव शुक्राचार्य एवं त्रिलोकविजयी परम समर्थ सम्राट हिरण्यकश्यप ने उनसे अकारण वैर पाल रखा था।

निर्दोष प्रह्लाद उनकी दृष्टि में दोषी थे। यदि उनका कोई दोष था तो वह थी केवल उनकी भक्ति की भावना। नारायण नाम के स्मरण में लीन रहने वाले प्रह्लाद को विनष्ट करने के लिए ये दोनों कृतसंकल्पित थे। इनकी अनेकों समर्थ शक्तियों के सामने प्रह्लाद के पास केवल प्रभुनाम व प्रभुभक्ति का सहारा था। उनका विश्वास उनकी निष्ठा, उनकी श्रद्धा, उनकी आस्था- बस यही भक्त प्रह्लाद की दिव्य शक्तियाँ थीं। प्रह्लाद इन्हीं को अपना अमोघ कवच मानते थे। जबकि भार्गव शुक्राचार्य एवं उनके शिष्य सम्राट हिरण्यकश्यप दोनों इनका उपहास उड़ाते थे। मृतसंजीवनी विद्या के आचार्य शुक्र को अपनी अलौकिक शक्तियों एवं तंत्र विज्ञान पर भरोसा था। उनकी सोच थी कि उनकी प्रचण्ड शक्तियों के सामने यह भोला-मासूम बालक भला क्या कर लेगा?

इसी सोच के बलबूते अपनी शक्ति के दम्भ में उन्मत्त भार्गव शुक्राचार्य प्रह्लाद पर एक के बाद एक कड़े प्रहार करने लगे। कभी तो वह पुत्तलिका प्रयोग करते, तो कभी वह कृत्या का विनाशक प्रयोग करते। इधर सम्राट हिरण्यकश्यप भी पीछे न था। उसने राक्षसों को प्रह्लाद को यातनाएँ देने के लिए नियुक्त कर रखा था। ये राक्षस कभी तो प्रह्लाद को पर्वत की ऊँचाई से गिरा देते। कभी वे उन्हें समुद्र में फिकवा देते। कभी वे इन्हें हाथियों के झुण्ड के पाँवों के नीचे डाल देते। इन महासमर्थ एवं अति पराक्रमी तथा अजेय समझे जाने वाले इन गुरु-शिष्य के कृत्यों को जो देखता वही सहम जाता। पर नारायण नाम को अपना आश्रय मानने वाले प्रह्लाद सर्वथा निर्भय एवं निश्चिन्त थे। उन्हें न तो कोई चिन्ता थी और न डर।

उनकी माता कयाधू सदा अपने लाडले के लिए चिन्तित एवं भयभीत रहती। प्रह्लाद जब-तब उसे समझाया करते, माता चिन्ता की कोई बात नहीं। भगवान नारायण हैं न। मेरे प्रभु सदा भक्तवत्सल हैं। रही बात विपदाओं-विपत्तियों की तो ये केवल भक्त की ही परीक्षा नहीं लेती, इन क्षणों में परीक्षा भगवान की भी होती है। भक्त की परीक्षा इस बात की होती है कि भक्त की निष्ठा, श्रद्धा, आस्था कितनी सच्ची व अडिग है। भगवान की परीक्षा इस बात की होती है कि वे कितने भक्तवत्सल एवं कितने समर्थ हैं। ये बातें अपनी माता को समझाते हुए प्रह्लाद हँस देते और कहते- माता कोई भी विपदा भगवान से बड़ी नहीं होती। मेरे ऊपर आचार्यश्री एवं पिताश्री ने अब तक जो भी विनाशक प्रहार किए हैं, उससे यही प्रमाणित हुआ है। इसीलिए मैं सर्वथा शान्त एवं परमानन्द में मग्न रहता हूँ। मुझे चिन्ता तो बस पिताश्री के लिए होती है कि कहीं सर्वसमर्थ प्रभु उनके इस आचरण के लिए उन पर कुपित न हो जाएँ।

प्रह्लाद की इन बातों को सुनकर उनकी माता कयाधू को थोड़ी आश्वस्ति मिलती, लेकिन थोड़ी देर बाद वे पुनः चिन्ता में पड़ जातीं। कई बार ऐसा भी हुआ कि उन्होंने मुझे बुलवाया अथवा वह स्वयं मुझसे मिलने आयीं। जब भी वे मुझसे मिलतीं, उनकी चिन्ता पराकाष्ठा पर होती। उनकी इस चिन्ता को देखकर मैं सर्वदा उनसे कहता- चिन्ता न करो महारानी! भगवान कभी भी अपने प्रिय भक्त को अकेला नहीं छोड़ते। भक्त सदा-सर्वदा अपने इष्ट-आराध्य की गोद में रहता है। यह किसी को दिखे अथवा न दिखे परन्तु सत्य यही है। सम्राट हिरण्यकश्यप एवं भार्गव शुक्राचार्य इसे भले न देख सकें लेकिन प्रह्लाद हमेशा ही अपने नारायण की गोद में हैं। इतना ही नहीं मैंने उन्हें यह भी बताया कि एक सत्य यह भी जान लें महारानी कि केवल प्रह्लाद के हृदय में ही नारायण नहीं बसते, भगवान नारायण के हृदय में भी अपने प्रिय प्रह्लाद का वास है।

भगवान का अपने भक्त से सतत जुड़ाव ही भक्त को सर्वथा शान्त एवं परमानन्द में मग्न रहता है। महारानी कयाधू मेरी बातें सुनतीं एवं मौन रहतीं। हाँ! उनकी चिन्ता भय एवं निराशा जरूर कम हो जाते पर प्रह्लाद तो सर्वथा निश्चिन्त थे। समय बीतता गया सम्राट एवं आचार्य के अत्याचार बढ़ते गए और एक दिन भक्त प्रह्लाद की आस्था ने स्तम्भ को फाड़कर नृसिंह रूप में स्वयं को प्रकट कर दिया। भगवान नृसिंह के विकराल रूप एवं भयावह गर्जन के सामने हिरण्यकश्यप तो मूर्छित सा हो गया। रही बात भार्गव शुक्राचार्य की तो वे भय के मारे कहीं जा छुपे। परन्तु प्रह्लाद तो अपने भगवान को सम्मुख पा हर्षित थे। भगवान ने पल भर में अपने भक्त की सभी समस्याएँ मिटा दीं। इसलिए जो भक्तिपथ पर चलता है उसे किसी भी समस्या के बारे में चिन्तित नहीं होना पड़ता।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४१

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मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

👉 आसक्ति

प्रभु को यदि पाना है तो सब आसक्तियों को छोड़कर निर्वैर हो जाओ।

भक्ति रसामृत सिंधु में आता है कि कामना ही राक्षसी है, ये जानता हुआ भक्त भगवान् या  भगवान् की भक्ति के अलावा और कोई भी कामना नहीं करता।  प्रभु को यदि पाना है तो सब आसक्तियों व कामनाओं को छोड़कर निर्वैर हो जाओ, प्रभु शीघ्र मिल जायेंगे। 

जिसे एक गिलास पानी की भी आवश्यकता न हो, और न ही किसी से बात करने या बोलने की अपेक्षा हो, वो भक्त शान्त और निर्भय हो जाता है।  जैसे वर्षा पड़ने पर घास स्वतः उत्पन्न हो जाती है, उसी तरह आसक्तियों व कामनाओं को छोड़ने पर चारों ओर फिर प्रभु ही दिखाई देंगे। बिना आसक्ति छोड़े भगवद् भजन नहीं होता। 

आसक्ति की रस्सी दिखाई नहीं देती है, परन्तु वह इतनी लम्बी होती है कि उसकी कोई सीमा नहीं है। आप अमेरिका में बैठे हैं, और आसक्ति की रस्सी वहीं से बाँधकर आपको ले आयेगी।  साधक को अपनी वृत्तियों को बचाकर रखना चाहिए।  यदि वृत्तियाँ  बँट गयीं तो साधक लुट जायेगा।  वृत्तियों के बँटने के बाद कुछ भी जप, तप व पाठ आदि करते रहो, कुछ नहीं मिलने वाला।  अपनी वृत्तियों को सब जगह से हटाकर एक श्री कृष्ण में लगा दो। जब तक कहीं भी आसक्ति है, चाहे थोड़ी ही क्यों न हो, तब तक वहाँ श्री कृष्ण प्रेम नहीं होता है।  

प्रेम की उत्पत्ति तब ही होती है, जब जीव सब आसक्तियों को छोड़ देता है। इसलिए गोपियों ने श्री कृष्ण से कहा था कि हम सब कुछ छोड़कर तुम्हारे पास आयीं हैं। अपनी सब आसक्तियों को छोड़कर आयीं हैं। क्यों छोड़कर आयीं हैं ? तुम्हारी उपासना की आशा से। 

मैवं विभो अहर्ति.....   भजते मुमुक्षून्||  श्रीमद्भागवत 10-29-31
देवहूति जी ने कहा-

संगो  य:  संसृते..... .... कल्पते||   श्रीमद्भागवत 03-23-55

आसक्ति बहुत ख़राब है, परन्तु आसक्ति से अच्छी वस्तु भी कोई नहीं। यदि आसक्ति महापुरुषों में हो जाय तो निश्चित कल्याण हो जाता है। यदि ये आसक्ति संसार से नहीं छूटती है तो इसको महापुरुषों से बाँध दो। तुम्हारा अवश्य कल्याण हो जायेगा। 

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👉 आपत्तिकाल का अध्यात्म

नए युग का जन्म होने जा रहा है। दो बातें होनी हैं— एक युग-निर्माण की, दूसरा निर्माण से पहले ध्वंस होना है। ध्वंस भी होना है। इमारत जब बनाई जाती है, तब जमीन की खुदाई करनी पड़ती है। पीछे मिटटी डालकर कुटाई-पिटाई भी करते हैं और गड्ढे को ठीक करके तब दीवार की चिनाई की जाती है।

भगवान के जब अवतार होते हैं, तब एक ही कार्य नहीं करते, मात्र धर्म की स्थापना करते हुए नहीं आते, वरन अनीति, बुराई का ध्वंस करते हुए भी आते हैं। वे शांति लेकर आयेंगे तो सही, पर यह भी ध्यान में रखिये की वे लाखों-करोड़ों के लिए रोना-पीटना और हाहाकार भी लेकर आयेंगे। वे दया बरसाएंगे. तो क्रोध भी बरसाएंगे।

परिवर्तन की इस संधिबेला में आपको न तो कोई विशेष समय की मांग दिखाई दिखाई पड़ती है, न कर्तव्यों की पुकार सुनाई पड़ती है। चारों ओर क्या हो रहा है, आपको दिखाई पड़ना चाहिए। अगर आप विमूढ़ ही बने रहे, रोटी खाने और पैसा कमाने से लेकर बच्चे पैदा करने तक के चक्र में पड़े रहे तो फिर मैं क्या कह सकता हूँ!

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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सोमवार, 18 अप्रैल 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १९

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

हमारा तात्पर्य यह नहीं कि आप भूलों, त्रुटियों और गलतियों की ओर से ओंखें बंद कर लें और बार-बार उनको दुहराते चलें, आपको चाहिए कि ' भूलों को दूर करने की और पुनरावृत्ति रोकने का भरसक प्रयत्न करें। फिर भी यदि कभी ठोकर खाकर गिर पड़े, प्राचीन बुरे संस्कारों के खिंचाव से परास्त होकर कोई गलती कर बैठें तो उसकी विशेष चिंता न करें। सच्चा पश्चाताप यही है कि दुबारा वैसी गलती न करने का प्रण किया जाए उपवास आदि से आत्मशुद्धि की जाए जिसे हानि पहुँचती है उसकी या उसके समक्ष की क्षति पूर्ति कर दी जाए मन पर जो बुरी छाप पड़ी है अच्छे कार्य की छाप द्वारा हटाया जाए। साबुन से मैला कपडा स्वच्छ किया जाता है, भूलों का परिमार्जन, श्रेष्ठ कार्यों द्वारा करने के लिए खुला द्वार आपके सामने मौजूद है, फिर की अप्रिय स्मृतियों को जगा-जगा कर नित्य दु रू भ्र्राल स्थ्य? व क्या प्रयोजन? यदि सदैव अपने ऊपर दोषारोपण ही करते रहेंगे, अपने को कोसते ही रहेंगे, भर्त्सना, ग्लानि और तिरष्कार में जलते रहेंगे तो अपनी बहुमूल्य योग्यताओं को खो बैठेंगे, अपनी कार्यकारिणी शक्तियों नष्ट कर डालेंगे। अपने को अयोग्य मत मानिए। ऐसा विश्वास मत कीजिए कि आपमें मूर्खता, दुर्भावना, कमजोरी के तत्त्व अधिक हैं।
 
इस प्रकार की मान्यता को मन में स्थान देना झूँठा,भ्रमपूर्ण गिराने वाला और आत्मघाती है। यह किसी भी प्रकार नहीं माना जा सकता कि मानव शरीर के इतने ऊँचे स्थान पर चढ़ता आ आ पहुँचने वाला जीव अपने में बुराइयाँ अधिक भरे हुए हैं। यदि सचमुच ही वह नीची श्रेणी की योग्यताओं वाला होता तो किसी कीट-पतंग या पक्षी की योनि में समय बिताता होता। उन योनियों को उत्तीर्ण करके मनुष्य योनि में, विचार पूर्ण भूमिका में प्रवेश करने का अर्थ ही यह है कि मानवोचित सद्गुणों का पर्याप्त मात्रा में विकास हो गया है। भले ही आप अन्य सद्गुणी लोगों से कुछ पीछे हों पर इसी कारण अपने को पतित क्यों समझें? एक से एक आगे है, एक से एक पीछे है। इसलिए इस प्रकार तो बडे भारी बुद्धिमान को भी कहा जा सकता है क्योंकि उससें भी अधिक बुद्धिमान भी कोई न कोई निकल ही आवेगा। आप अपने को बुद्धिमान और सद्गुणी मानें इसके लिए एक आधार है कि बहुत से लोग आप से भी कम योग्यता वाले हैं। जब इस दुनियाँ में आप से भी कम अच्छाइयों के मनुष्य हैं तो यह मान्यता सत्य है कि आप अधिक बुद्धिमान हैं,अधिक अच्छे हैं,अधिक धर्मनिष्ठ हैं। इस सत्य को खुले ह्रदय से स्वीकार करके गहरे अंतःस्थल में उतार लीजिये कि आपकी सुयोग्यता बढ़ी हुई है,आप श्रेष्ठ हैं,सक्षम है,उन्नतिशील हैं।
 
चौरासी लाख बडे-ब,डे मोर्चे फतह कर चुके हैं, अंतिम मोर्चे पर विजयी होने की तैयारी कर रहे हैं, फिर छोटे- छोटे जीवन प्रसंगों का तो कहना ही क्या? छुट-पुट समस्याएँ जो प्रतिदिन स्वभावत: सामने आया ही करती हैं उनको हल कर लेना, उन पर विजय प्राप्त करना भला यह भी कोई बडी बात है? दस-पाँच असफलताओं के कारण खिन्न मत हूजिएं अपने बारे में गिरे हुए विचार मत रखिए असंख्य सफलताएं प्रतिदिन प्राप्त करते हैं, इससे भी अधिक आगे प्राप्त करेंगे। आप विजय की मूर्तिमान प्रतिमा हैं सफलताएँ आपके लिए बनाई गई है। बढ़ना, उन्नति करना और विजय प्राप्त करना-इन तीन क्रियाओं से आपका भूतकाल का इतिहास भरा पड़ा है, यह क्रम आज भी जारी है और आगे भी जारी रहेगा।
 
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २८

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👉 भक्तिगाथा (भाग १२१)

शान्ति और परमानन्द का रूप है भक्ति

गन्धर्वराज चित्रकेतु की जिज्ञासा और महात्मा सत्यधृति के उत्तर ने सभी के अन्तस को स्पन्दित किया। प्रायः सभी के मानससरोवर में विचारों की अनेकों उर्मियाँ उठीं और विकीर्ण हो गयीं। इन विचारउर्मियों की अठखेलियों से घिरे गन्धर्व श्रुतसेन सोच रहे थे कि भक्ति भावों को परिष्कृत करती है, व्यवहार में व्यक्ति को अपेक्षाकृत अधिक उदार व सहिष्णु बनाती है, यहाँ तक तो ठीक है लेकिन जीवन की परिस्थितियाँ यहीं तक सीमित नहीं हैं। इनकी जटिलता और समस्याओं के संकट जब-तब जिन्दगी को क्षत-विक्षत करते हैं। अनगिनत प्रश्नों के कंटक रह-रहकर चुभते रहते हैं। इनकी चुभन की टीस से कैसे छुटकारा मिले। वैसे भी दुनिया की रीति बड़ी अजब है। यहाँ शक्तिसम्पन्न को सर्वगुणसम्पन्न माना जाता है जबकि भावनाशील गुणसम्पन्न जनों को ठोकर खाते अपमानित होता देखा जाता है।

गन्धर्व श्रुतसेन अपनी इन्हीं विचारवीथियों में विचरण कर कर थे। उनका ध्यान किसी अन्य ओर न था, जबकि कुछ अन्य जन उनके मुख पर आने वाले भावों के उतार-चढ़ावों को ध्यान से देख रहे थे। इन ध्यान देने वालों में गन्धर्वराज चित्रसेन भी थे। उन्होंने इन्हें हल्के से टोका भी, ‘‘क्या सोचने लगे श्रुतसेन? कोई समस्या है तो कहो? यह महर्षियों, सन्तों, भक्तों व समर्थ सिद्धजनों की सभा है। यहाँ सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है।’’ गन्धर्वराज चित्रसेन के इस कथन पर श्रुतसेन ने बड़ी विनम्रता से कहा- ‘‘आपका कथन सर्वथा सत्य है महाराज। मैं आपसे पूर्णतया सहमत हूँ, साथ ही मैं यह भी जानता हूँ कि यह महासभा न केवल समर्थ जनों की है, बल्कि अन्तर्यामी जनों की भी है। यहाँ विराजित महर्षि जन, सन्त और भगवद्भक्त सभी अन्तर्मन की वेदना एवं अरोह-अवरोह को जानने में समर्थ हैं। उनकी इस क्षमता पर भरोसा करके ही मैंने कुछ नहीं कहा।’’
श्रुतसेन के इस कथन पर देवर्षि नारद हल्के से मुस्करा दिये और बोले- ‘‘यदि आप सब की आज्ञा हो तो मैं अपना अगला सूत्र प्रस्तुत करूँ।’’ ‘‘अवश्य!’’ सभी ने प्रायः एक साथ कहा। इसी के साथ देवर्षि नारद की मधुर वाणी से यह सूत्र उच्चारित हुआ-

‘शान्तिरूपात्परमानन्द रूपाच्च’॥ ६०॥
भक्ति शान्तिरूपा और परमानन्दरूपा है।

इस सूत्र के उच्चारण के साथ देवर्षि नारद ने गन्धर्व श्रुतसेन को देखा और फिर मुस्करा दिए। इसके बाद वह दो क्षण रूके और बोले- ‘‘जीवन की जटिलताएँ व समस्याओं के संकट शान्ति छीनते हैं और यह सच तो जग जाहिर है कि जिसकी शान्ति छिन गयी वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता। जबकि भक्त की स्थिति थोड़ा सा अलग है। जिन्दगी की कोई जटिलता या समस्या उसकी शान्ति नहीं छिन सकती।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३९

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शनिवार, 16 अप्रैल 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १८

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए
 
नैपोलियन के बचपन में कोई यह नहीं कहता था कि बड़ा होकर यह किसी काम का निकलेगा। डॉक्टर कैलमर्स और डॉक्टर कुक को उनके अध्यापकों ने स्कूल में से यह कहकर निकाल दिया था कि इन पत्थरों से सिर मारना बेकार है। ' यह उदाहरण बताते हैं कि दूसरे लोग किसी के संबंध में जो कहते हैं वह पूर्णत: सत्य नहीं होता। आमतौर से चंद घटनाओं या बातों से प्रभावित होकर किसी के भले या के हनि का अनुमान लगाया जाता है। इस जल्दबाजी के निर्णय में गलती की बहुत बड़ी संभावना विद्यमान रहती है।

यदि आपको उपरोक्त भावों की तरह लोगों की ओर से निराशा, भर्त्सना, उपेक्षा मिलती है, आपको बुरा या असफल कहा जाता है तो इससे तनिक भी विचलित न हूजिए, मन को जरा भी गिरने न दीजिए। सर्दी, गर्मी के घातक प्रभावों से वस्रों द्वारा अपनी रक्षा करते हैं, मलेरिया या हैजा के कीटाणुओं को दवा के द्वारा शरीर में से मार भगाते हैं, इसी प्रकार आत्मविश्वास द्वारा उन प्रभावों को अपने मस्तिष्क में से निकाल बाहर करिए जो आपको नीच, असफल और मूर्ख ठहराते हैं। यह प्रभाव चाहे आपने स्वयं किया हो या किन्हीं अन्य महानुभावों ने अपनी तुच्छ बुद्धि के कारण संचरित कराया हो, जितनी जल्दी इन निराशाप्रद संक्रामक कीटाणुओं को मस्तिष्क में से मार कर भगा सके भगा दीजिए क्योंकि यह आस्तीन के साँप यदि प्रत्यक्षत: दिखाई नहीं पड़ते तो भी वे आपकी सारी उन्नति के मार्ग को रोक कर भारी विघ्न-बाधा के रूप में खड़े रहते हैं।

कहने वाला कोई कितना ही बडा, कितना ही धनवान, कितना ही प्रतिष्ठित क्यों न हो आप यह मानने को कदापि तत्पर मत हुजिए कि आपके ऊपर ' बुराइयों ने कब्जा जमा लिया है, दुर्भावना से ग्रसित हो गए हैं, 'योग्यता खो बैठे हैं, पाप में डूबे हुए हैं। यह हो सकता है कि अन्य लोगों की भांति आप में भी कुछ दोष हों। यह त्रुटियाँ ऐसी नहीं है जो दूर न हो सकें। भूतकाल में' कुछ ऐसे काम जरूर बन पड़े होंगे जो प्रतिष्ठा को घटाने वाले समझे जाते हों और आगे भी ऐसे अवसर बन पड़ने की संभावना है क्योंकि पूर्णता की मंजिल  क्रमश: पार होती है।
 
फसल अपनी अवधि पर पकती है, आपको ' हटाकर पूर्णता प्राप्त करने के लिए कुछ समय चाहिए पारे को शुद्ध करके रसायन बना देने में वैद्य को कुछ समय लगता है, आपको भी निर्दोष मनोस्थिति तैयार करने के लिए कुछ अवकाश चाहिए यह समय एक जन्म से अधिक भी हो सकता है। पथरीले मार्ग को पार करने में ठोकरें लगने की आशंका रहेगी ही, जिस दुर्गम पर्वत पर आप चढ रहे हैं, उसमें कंकड़- पत्थर पड़े हुए हैं, बहुत बार ठोकरें लगने का क्रम चलता रहेगा।  यदि हर ठोकर पर वेदना प्रकट करने की नीति ग्रहण करेंगे तो यह मार्ग रुदन और पीड़ाओं से भरा हुआ, आनंद रहित हो जाएगा। इसलिए समभूमि, चट्टान, पथरीले मार्ग का हर्ष-विषाद न करते हुए प्रधान लक्ष्य की ओरे आगे बढते चलिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २७

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