शक्ति के साथ शान्ति की चाहत भी शिष्यत्व की एक कसौटी है। और इस तरह का मेल भी बड़ा विरल है। क्योंकि दुनियादारी से भरे जीवन में शक्ति अशान्ति का पर्याय बनकर ही आती है। जितनी ज्यादा शक्ति, जितना ज्यादा रूतबा- मर्तबा उतनी ही ज्यादा अशान्ति। इसका कारण एक ही है कि दुनियादारी में शक्ति के मायने अहंता के पोषण के सिवा और कुछ नहीं। और अहंता का पोषण अशान्ति से ज्यादा और कुछ भी नहीं दे सकता।
अहंता- जितनी बढ़ेगी अशान्ति भी उतनी ही बढ़ेगी। परन्तु शिष्यत्व की साधना में ये सारे समीकरण एकदम उलट जाते हैं। शिष्य की शक्ति तो समर्पण की शक्ति की है। अहंता के विसर्जन और विलीनता की शक्ति है। यह शक्ति ज्यों- ज्यों बढ़ती है, त्यों- त्यों शान्ति भी बढ़ती है। क्रमिक रूप में यह सघन और प्रगाढ़ होती जाती है।
इस शक्ति और शान्ति के प्रसार के साथ साधक का अन्तर्मन एवं अन्तःकरण पवित्र एवं निर्मल होता जाता है। शिष्य के जीवन में पवित्रता की बाढ़ आती है। भक्ति का समुद्र उमड़ता है। निर्मल भावनाओं का तूफान उठता है। अन्तःकरण के ऐसे वातावरण में शिष्य की आत्मा उत्तरोत्तर विकसित होती है। उसमें सद्गुरु कृपा का सहज अवतरण होता है। गुरुकृपा की अनुभूति की सहज अवस्था यही है।
इस अवस्था को पाए बिना गुरुकृपा का रहस्य कभी भी अनुभव नहीं हो पाता। यह दुर्लभ अनुभूति जिन्हें हुई है अथवा जिन्हें हो रही है वही हां केवल वही इस सत्य को समझ सकते हैं। बाकी के पल्ले तो केवल बौद्धिक तर्क- वितर्क का संजाल ही पड़ता है।
क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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