शुक्रवार, 22 मई 2020

👉 युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण (भाग १)

सूर्योदय पूर्व दिशा से होता है। उषा काल की लालिमा उसकी पूर्व सूचना लेकर आती है। कुक्कुट उस पुण्य बेला की अग्रिम सूचना देने लगते हैं। तारों की चमक और निशा कालिमा की सघनता कम हो जाती है। इन्हीं लक्षणों से जाना जाता है कि प्रभात काल समीप आ गया और अब सूर्योदय होने ही वाला है।

नव जागरण का, युग परिवर्तन का सूर्योदय भी इसी क्रम से होगा। यह सार्वभौम प्रश्न है, विश्व मानव से सम्बन्धित समस्या है। एक देश या एक जाति की नहीं। फिर भी उदय का क्रम पूर्व से ही चलेगा। कुछ चिरन्तन विशेष परम्परा ऐसी चली आती है कि विश्व मानव ने जब भी करवट ली है तब उसका सूत्र संचालन सूर्योदय की भाँति ही पूर्व दिशा से हुआ है। यों पाश्चात्य देशवासी भारत को पूर्व मानते हैं, पर जहाँ तक आध्यात्मिक चेतना का प्रश्न है निस्संदेह यह श्रेय सौभाग्य इसी देश को मिला है, वह विश्व की चेतनात्मक हलचलों का उत्तरदायित्व अग्रिम पंक्ति में खड़ा होकर वहन करे, इस बार भी ऐसा ही होने जा रहा है। युग परिवर्तन का प्रकाश इसी पुण्य भूमि से आरंभ हो चुका अब वह कुछ ही समय में विश्व व्यापी बनने जा रहा है।
  
विश्व जड़ और चेतन दो भागों में विभक्त है। जड़ प्रकृति से सम्बन्धित प्रगति को सम्पदा के रूप में देखा जा सकता है और चेतन प्रकृति के विकास को विचारणा एवं भावना के रूप में समझा जायेगा। सुविधा और संपदा की अभिवृद्धि भौतिक प्रगति कहलाती है और चेतना की उत्कृष्टता को आत्मिक उत्कर्ष कहा जाता है, जहाँ तक भौतिक प्रगति का सम्बन्ध है वहाँ तक उसके लिए राजतन्त्र, अर्थतन्त्र, विज्ञान तन्त्र और शिक्षा तन्त्र का उत्तरदायित्व है कि वे अधिकाधिक सुविधा एवं सम्पदा उत्पन्न करके सुख साधनों को आगे बढ़ायें।

आत्मिक प्रगति के लिए ज्ञान तन्त्र उत्तरदायी है। इसे दूसरे शब्दों में दर्शन, धर्म, अध्यात्म एवं कला के नाम से जाना जा सकता है। चेतना की भूख इन्हीं से बुझती है, उसे इन्हीं से दिशा और प्रेरणा मिलती है। परिवर्तन एवं उत्कर्ष भी इन्हीं आधारों को लेकर सम्भव होता है। अस्तु यह अनिवार्य है कि यह चेतनात्मक प्रगति आवश्यक हो तो ज्ञान तन्त्र को प्रखर बनाना पड़ेगा। सच तो यह है जब कभी ज्ञान तन्त्र शिथिल पड़ता है, विकृत होता है तभी व्यक्ति का स्तर लड़खड़ाता है और उस अस्त- व्यस्तता में भौतिक जगत की समस्त गतिविधियाँ उलझ जाती हैं। तत्त्वदर्शी सदा से यह कहते रहे है कि सम्पदा नहीं विचारणा प्रमुख है। यदि विचारणा सही रही तो सम्पदा छाया की तरह पीछे- पीछे फिरेगी, पर यदि सम्पदा को ही सब कुछ माना गया और चेतना स्तर की उत्कृष्टता उपेक्षित की गई तो बढ़ी हुई सम्पदा दूध पीकर परिपुष्ट हुए सर्प की तरह सर्वनाश करने पर उतारू हो जायेगी। यह शाश्वत तथ्य है इसे इतिहास ने लाखों बार आजमाया है और करोड़ों बार आजमाया जा सकता है।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 Do Not Panic or Perplex

Life is full of challenges and testing moments! Many a times the adverse circumstances are so intense that one just can’t bear them, he loses patience, gets anxious and panicked; cries on his destiny and helplessness… But this doesn’t solve the problem. The only source of definite support in such cases is – prudence and patience.

Ups and downs, good and bad experiences are natural phases of human life. We must remember this fact and convince ourselves of the truth that wisdom and pure knowledge (gyana) are the only keys to conquer the agonies caused by the tides of adversities or tragedies. Firm faith in God’s grace and justice is a must in such testing moments of sufferings. We must understand that our knowledge is too limited to grasp the system of God. Whether we realize it at that time or not, the circumstances and experiences that appear so painful to us also occur in fact for our welfare only.

Because of our half or illusory knowledge and narrow attitude, we cannot grasp the real cause or purpose behind the happenings in our life. We must accept it that major cause of our agonies and anxiety is our ignorance; we want everything to conform to our expectation, our favor. But the course of life has many dimensions, beyond our perception. Faith in absolute justice and mercy of the Omniscient God is all the more important in the moments of hardships and pains. This gives us instant courage and light and helps maintain our calm without which we can’t even think properly. All religious scriptures preach the importance of the feeling of content and peace in all circumstance. It is indeed the nectar source of annulling all worries and panics even in the difficult, tragic situations. Adoption of peace, patience and satisfaction does not mean that you should not transact your duties or progress in your life. Rather, it implies that you should complete all your tasks, all duties, with mental stability and calm and a sense of inner faith in all circumstances.

📖 Akhand Jyoti, April 1943

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👉 Akhand Jyoti Pariwar अखण्ड-ज्योति परिवार

कष्ट पीड़ित, कामनाग्रस्त, ऋद्धि सिद्धि के आकाँक्षी, स्वर्ग मुक्ति के फेर में पड़े हुए, विरक्त , निराश व्यक्ति भी हमारे संपर्क में आते रहते हैं। ऐसे कितने ही लोगों से हमारे सम्बन्ध भी हैं, पर उनसे कुछ आशा हमें नहीं रहती। जो अपने निजी गोरखधन्धे में इतने अधिक उलझे हुए हैं कि ईश्वर, देवता, साधु, गुरु किसी का भी उपयोग अपने लाभ के लिए करने का ताना-बाना बुनते रहते हैं, वे बेचारे सचमुच दयनीय हैं। जो लेने के लिए निरन्तर लालायित हैं, उन गरीबों के पास देने के लिए है ही क्या? देगा वह—जिसका हृदय विशाल है, जिसमें उदारता और परमार्थ की भावना विद्यमान है। समाज, युग, देश, धर्म, संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदायित्व की जिसमें कर्तव्य-बुद्धि जम गई होगी—वही लोक-कल्याण की बात सोच सकेगा और वही वैसा कुछ कर सकेगा। आज के व्यक्ति वादी, स्वार्थ परायण युग में ऐसे लोग चिराग लेकर ढूँढ़ने पड़ेंगे। पूजा उपासना के क्षेत्र में अनेक व्यक्ति अपने आपको अध्यात्म-वादी कहते मानते रहते हैं पर उनकी सीमा अपने आप तक ही सीमित है। इसलिए तत्वतः वे भी संकीर्ण व्यक्ति वादी ही कहे जा सकते हैं।

हमारी परम्परा पूजा उपासना की अवश्य है पर व्यक्ति बाद की नहीं। अध्यात्म को हमने सदा उदारता, सेवा और प्रस्ताव की कसौटी से कसा है और स्वार्थी को खोटा एवं परमार्थी को खरा कहा है। अखण्ड-ज्योति परिवार में दोनों ही प्रकार के खरे-खोटे लोग मौजूद हैं। अब इनमें से उन खरे लोगों की तलाश की जा रही है जो हमारे हाथ में लगी हुई मशाल को जलाये रखने में अपना हाथ लगा सकें, हमारे कंधे पर लदे हुए बोझ को हलका करने में अपना कंधा लगा सकें। ऐसे ही लोग हमारे प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होंगे। इस छाँट में जो लोग आ जावेंगे उनसे हम आशा लगाये रहेंगे कि मिशन का प्रकाश एवं प्रवाह आगे बढ़ाते रहने में उनका श्रम एवं स्नेह अनवरत रूप से मिलता रहेगा। हमारी आशा के केन्द्र यही लोग हो सकते हैं। और उन्हें ही हमारा सच्चा वात्सल्य भी मिल सकता है। बातों से नहीं काम से ही किसी की निष्ठा परखी जाती है और जो निष्ठावान् हैं उनको दूसरों का हृदय जीतने में सफलता मिलती है। हमारे लिए भी हमारे निष्ठावान् परिजन ही प्राणप्रिय हो सकते हैं।

लोक सेवा की कसौटी पर जो खरे उतर सकें, ऐसे ही लोगों को परमार्थी माना जा सकता है। आध्यात्मिक पात्रता इसी कसौटी पर परखी जाती है। हमारे उस देव ने अपनी अनन्त अनुकम्पा का प्रसाद हमें दिया है। अपनी तपश्चर्या और आध्यात्मिक पूँजी का भी एक बड़ा अंश हमें सौंपा है। अब समय आ गया जब कि हमें भी अपनी आध्यात्मिक कमाई का वितरण अपने पीछे वालों को वितरित करना होगा। पर यह क्रिया अधिकारी पात्रों में ही की जायगी, यह पात्रता हमें भी परखनी है और वह इसी कसौटी पर परख रहे हैं कि किस के मन में लोक सेवा करने की उदारता विद्यमान है। इसी गुण का परिचय देकर किसी समय हमने अपनी पात्रता सिद्ध की थी अब यही कसौटी उन लोगों के लिए काम आयेगी जो हमारी आध्यात्मिक पूँजी के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत करना चाहेंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1964 पृष्ठ 50-51


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