शनिवार, 29 अप्रैल 2023

👉 आवेशग्रस्त न रहें, सौम्य जीवन जियें (भाग 2)

शहरी आबादी की पिच-पिच, गन्दगी, शोर व्यस्तता एवं अभक्ष्य-भक्षण के कारण लोग तनावजन्य रोगों से ग्रसित होते हैं। इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत दृष्टिकोण, स्वभाव एवं जीवन-यापन का क्रम भी इस विपत्ति को बढ़ाने में बड़ा कारण बनता है। क्रोध, आवेश, चिन्ता, भय, ईर्ष्या, निराशा की मनःस्थिति ऐसी उत्तेजना उत्पन्न करती है जिसके कारण तनाव रहने लगे। इस स्थिति में नाड़ी संस्थान और माँस पेशियों के मिलन केन्द्रों पर ‘सोसिटिल कोलेन’ नामक पदार्थ बढ़ने और जमने लगता है।

कार्बन और कोगल की मात्रा बढ़ने से लचीलापन घटता है और अवयव अकड़ने जकड़ने लगते हैं। यह एक प्रकार की गठिया के चिन्ह हैं जिसके कारण हाथ पैर साथ नहीं देते और कुछ करते-धरते नहीं बन पढ़ता। इन दिनों हर स्तर का व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों से घिरा रहता है जिससे उसका मनःसंस्थान खिन्न उद्विग्न रहने लगे।

बच्चे अभिभावकों से समुचित स्नेह प्राप्त नहीं कर पाते और असुरक्षा अनुभव करके निराश एवं खीजते रहते हैं। युवा वर्ग के सामने कामाचार की ललक- रोजगार की अनिश्चितता तथा पारिवारिक सामंजस्य की समस्याएँ उद्विग्नता बनाये रहती हैं। यार दोस्तों की धूर्तता से भी वे परेशान रहते हैं। बूढ़ों की शारीरिक अशक्तता, रुग्णता ही नहीं परिजनों द्वारा बरती जाने वाली अवमानना भी कम कष्टदायक नहीं होती। वे कमा तो कुछ सकते नहीं। बेटों के आश्रित रहते हैं। अपनी कमाई पर से भी स्वामित्व खो बैठते हैं।

मित्रता भी इस स्थिति में किसी को हाथ नहीं लगती। फलतः वे एकाकीपन से ऊबे और भविष्य के सम्बन्ध में निराश रहते हैं। मौत की समीपता अधिकाधिक निकट आती प्रतीत होती है। किसी अविज्ञात के अन्धकार में चले जाने और दृश्यमान संसार सम्बन्ध छूट जाने की कल्पना भी उन्हें कम त्रास नहीं देती। इन परिस्थितियों में यदि तनाव का आक्रमण हर किसी पर छाया दीखता है तो इसमें आश्चर्य भी क्या है?

संवेगों में स्नेह, क्रोध और भय प्रमुख हैं। इनकी विकृति मोह, आक्रमण एवं हड़कम्प के रूप में देखी जाती है।

भय के वास्तविक कारण कम और काल्पनिक अधिक होते हैं। भूत, चोर, साँप, बिच्छू आदि की उपस्थिति एवं आक्रामकता के कल्पित चित्र इतना परेशान करते हैं मानो वे सचमुच ही सामने उपस्थित हों और बस हमला ही करने जा रहे हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1984 पृष्ठ 39

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 29 April 2023

विवाहों को मँहगा बनाना अपनी बच्चियों के जीवन विकास पर कुठाराघात करना है। जिन्हें अपनी या दूसरों की बच्चियों के प्रति मोह-ममता न हो, जिन्हें इस दो दिन की धूमधाम की तुलना में नारी जाति की बर्बादी उपेक्षणीय लगती हो, वे ही विवाहोन्माद का समर्थन कर सकते हैं। जब तक विवाह को भी नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत की तरह एक बहुत ही सरल, स्वाभाविक, सादा और कम खर्च का न बनाया जाएगा तब तक नारी जाति की उन्नति और सुख-शान्ति की आशा दुराशा मात्र ही रहेगी।

पूर्णतः पाक साफ, दूध का धुला हुआ कोई नहीं होता। भूलें, बुराइयाँ, पाप हो जाना मनुष्य की स्वाभाविक कमजोरी है। प्रत्येक मनुष्य पैदा होने से मरने तक कोई न कोई बुरा काम कर ही बैठता है। गिरकर उठने में, बुराई से भलाई की ओर आगे बढ़ने में ही मनुष्य की श्रेष्ठता है।

जिन्दगी को ठीक तरह जीने के लिए एक ऐसे साथी की आवश्यकता रहती है जो पूरे रास्ते हमारे साथ रहे, रास्ता बतावे, प्यार करे, सलाह दे और सहायता की शक्ति तथा भावना दोनों से ही संपन्न हो। ऐसा साथी मिल जाने पर जिन्दगी की लम्बी मंजिल बड़ी हँसी-खुशी और सुविधा के साथ पूरी हो जाती है। ऐसे सबसे उपयुक्त साथी जो निरन्तर मित्र, सखा, सेवक, गुरु, सहायक की तरह हर घड़ी प्रस्तुत रहे और बदले में कुछ भी प्रत्युपकार न माँगे, केवल एक ईश्वर ही हो सकता है।

घरेलू और सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि क्रोध के विनाशक परिणामों पर ध्यान दें और उनके उन्मूलन का संपूर्ण शक्ति से प्रयत्न करें। इससे सदैव हानि ही होती है प्रायः देखा गया है कि क्रोध का कारण जल्दबाजी है। किसी वस्तु को प्राप्त करने या इच्छापूर्ति में कुछ विलम्ब लगता है तो लोगों को क्रोध आ जाता है, इसलिए अपने स्वभाव में धैर्य और संतोष का विकास करना चाहिए।

असत्य से किसी स्थायी लाभ की प्राप्ति नहीं होती। यह तो धोखे का सौदा है, लेकिन खेद का विषय है कि लोग फिर भी असत्य का अवलम्बन लेते हैं। एक दो बार भले ही असत्य से कुछ भौतिक लाभ प्राप्त कर लिया जाय, किन्तु फिर सदा के लिए ऐसे व्यक्ति से दूसरे लोग सतर्क  हो जाते हैं, उससे दूर रहने का प्रयत्न करते हैं। असत्यभाषी को लोकनिन्दा का पात्र बनकर समाज से परित्यक्त जीवन बिताना पड़ता है। धोखेबाज, झूठे, चालाक व्यक्ति का साथ उसके स्त्री-बच्चे भी नहीं देते।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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