गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

👉 वर्तमान दुर्दशा क्यों? (भाग १)

आज हम चारों ओर भयंकर दावानल सुलगती हुई देखते हैं। महायुद्ध का दानव लाखों मनुष्यों को अपनी कराल दाढ़ों के नीचे कुचल कुचल कर चबाते जा रहा है। खून से पृथ्वी लाल हो रही है। आकाश से ऐसी अग्नि वर्षा हो रही है जिससे सहस्रों निरपराध प्राणी अकारण ही चबाने की तरह जल-भुन रहे हैं। कराह और चीत्कारों से सारा आकाश मण्डल गुँजित हो उठा है। नन्हें नन्हें बालक अपने माता पिताओं के लिए बिलख रहे हैं। माताएं अपने पुत्रों के लिए और पत्नियाँ अपने पतियों के लिए, अश्रुपात कर रहीं हैं। कितने घरों में, किस प्रकार करुण क्रन्दन हो रहें हैं, इन मर्म कथाओं को यदि प्रत्यक्ष रूप से प्रकट किया जाये तो वज्र का भी कलेजा फटने लगेगा।

अकेला युद्ध ही क्यों महामारियों का प्रचंड प्रकोप आप देखिए। अनेक प्रकार के नये-नये अश्रुत पूर्व रोग उठ खड़े हुए हैं। चिकित्सा करने वाले परेशान हैं, उपचार हतवीर्य साबित होते हैं, अर्धमृत या मृत लाशों के ढेर घर एवं मरघटों में आसानी से देखे जा सकते हैं। रोगी और उनकी परिचर्या करने वाले सभी की बेचैनी बढ़ती चली जा रही है। जीवन भर बने हुए हैं, जो साँसें बीत रही हैं वह भारी और कष्टकर प्रतीत होती हैं। दवा के लिए पैसा नहीं, पथ्य के लिए पैसा नहीं, असहायवस्था में पड़े हुए लोग बेबसी आँसू घूँट रहे हैं।
महंगी का तो कुछ कहना ही नहीं, हर चीज पर चौगुने आठ गुने दाम बढ़ते जा रहे हैं। पैसा खर्च करने पर भी वस्तुएं प्राप्त होती नहीं। अच्छा अब नसीब नहीं, खाद्य पदार्थों का लोप होता जाता है। व्यापार चौपट हो रहे हैं, उद्योग धंधे बढ़ते नहीं, बेकारी में कमी नहीं होती खर्च बढ़ रहे हैं पर आमदनी नहीं बढ़ती आधे पेट खाने वालों और आधे अंग ढकने वालो की संख्या बढ़ती जा रही है। जी तोड़ परिश्रम करने पर भी भोजन वस्त्र की आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पाती। कुछ अमीरों या युद्ध सम्बन्धी कोई व्यवसाय प्राप्त कर लेने वाले भाग्यवानों की बात अलग है, किन्तु साधारण जनता की जीवन निर्वाह समस्या दिन-दिन गिरती चली जा रही है, तिल तिल करके अभावों की ज्वाला में लोगों को झुलसना पड़ रहा है।

आये दिन जो अज्ञात विपत्तियाँ सामने आती रहती हैं, उनकी भयंकरता भी कम नहीं। राजनैतिक संघर्षों के कारण जनता के कष्टों में वृद्धि होती है, कोई उपद्रव करता है दण्ड किसी को सहना पड़ता है। निर्दोष व्यक्ति का भी कलेजा काँपता रहता है कि कही अकारण ही कोई चपेट मुझे न लग जाये। देवी प्रकोप का भी पूरा जोर है। इस साल नदियों में बड़ी भारी बाढ़ें आईं, जिससे हजारों गाँव का नुकसान हुआ लाखों बीघा कृषि नष्ट हो गई, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूचाल, तूफान, अंधड़ के कारण बहुत भारी क्षति उठानी पड़ी। गुँडे बदमाशों का जोर बढ़ने से आये दिन अपराध बढ़ते रहते हैं। आज का दिन किसी प्रकार कट गया हो कल के लिए आशंका बनी रहती है कि कही कोई नई विपत्ति न टूट पड़े। शान्ति, स्थिरता, संतोष में कमी होती जाती है और बेचैनी बढ़ती जाती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1943 पृष्ठ 4

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/January/v1.4

👉 वर्तमान संकट और हमारा कर्तव्य (भाग १)

वर्तमान काल में मनुष्य जाति पर जो विपत्तियाँ आई हैं, उनके तात्कालिक कारण अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, परन्तु इन सब के मूल में एक ही कारण काम कर रहा है वह यह है ‘धर्म के प्रति उपेक्षा।’ आत्मा का स्वाभाविक धर्म यह है कि सेवा बुद्धि से लोक कल्याणार्थ कर्तव्य करें। सब भूतों में ईश्वर की भावना रखकर उनकी क्रियात्मक पूजा करना, प्रेम, सहायता, सहयोग करना, सच्चा धर्म है। ईश्वर भक्ति का और धर्म पालन का एक ही सच्चा मार्ग है और वह यह कि अन्य प्राणियों के उत्थान के निमित्त निजी स्वार्थों का त्याग किया जाये। दया, उदारता, भ्रातृभाव, त्याग, सेवा, सहायता की उपकारी सद्भावनायें धर्म के प्रत्यक्ष चिन्ह हैं। अपने लिये कम लेने और दूसरों को अधिक देने का स्वभाव धर्मात्मा होने के प्रधान लक्षण हैं।

इस सत्य धर्म को लोगों ने त्याग दिया और जैसे भी बने वैसे नीति या अनीति से दूसरों की वस्तु को अपहरण करके अपनी भोगेच्छाओं को पूरा करने की प्रथा को अपना लिया। अपहरण को पाप और सेवा को पुण्य कहा जाता है, लेने की इच्छा को मोह, देने की इच्छा को प्रेम कहा जाता है। आत्मा को लोभ में गिराने को असत्य और भोग छोड़कर तप करने को सत्य बताया गया है। शक्ति को सहायता में लगाना न्याय, और संचय एवं परपीड़न में लगाना अन्याय कहा गया है। हम दृष्टि पसार कर देखते हैं, कि संसार में धर्म को, पुण्य को, सत्य को, प्रेम को, न्याय को, लोगों ने छोड़ दिया है और उसके स्थान पर अधर्म, पाप, असत्य, मोह एवं अन्याय को गर्वपूर्वक अपनायें फिर रहें हैं। एक दूसरे को लूटने की तरकीबें सोचने में व्यस्त हैं। एक भेड़िया दूसरे भेड़िये का माँस नोंच खाने के लिये अपने तीक्ष्ण दाँतों को और भी तेज करने में, मजबूत करने में, लगा हुआ है। ऐसी भावनायें जब उग्र रूप धारण करके सर्वत्र फैल रही हैं तो उसका यह एक ही परिणाम होना संभव है, कि सारी मनुष्य जाति घोर विपत्तियों के दलदल में फँस जाय। वह परिणाम हमारे सामने उपस्थित है। हम लोग नाना प्रकार की आधि व्याधियों में पड़े हुए कराह रहे हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1943 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/January/v1

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (अंतिम भाग)

जिनकी आत्मा अपनी इन्द्रियों के विषयों-खान-पान, चटकीले वस्त्र, दिखावा, विलासप्रियता, श्रृंगार, झूठी शान, बचपन की रंग रेलियाँ, सिनेमा की अभिनेत्रियों के जीवन या सामाजिक विकारों में ही लगा रहता है और स्वार्थ, क्रोध, ईर्ष्या, मोह, दगाबाजी-बेईमानी के कलुषित विचारों में रमा हुआ है, ऐसी नशोन्मुख आत्माओं का अवलोकन कर कौन पश्चाताप न करेगा?

ऐसी विनाशकारी वृत्ति का एक उदाहरण पं. रामचंद्र शुक्ल ने दिया है। आपने मकदूनिया के बादशाह डेमेट्रियस के विषय में लिखते हुए निर्देश किया है कि वह कभी-कभी राज्य का सब कार्य त्याग कर अपने ही मेल के दस-पाँच साथियों को लेकर विषय वासना में लिप्त रहा करता था। एक बार बीमारी का बहाना करके, वह इसी प्रकार अपने दिन काट रहा था। इसी बीच उसका पिता उससे मिलने के लिए गया। उसने एक हंसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते हुए देखा। जब पिता कोठरी के बाहर निकला, तब डेमेट्रियस ने कहा - “ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।” पिता ने उत्तर दिया, “हाँ! ठीक है, वह दरवाजे पर मुझे मिला था।”

कुसंग का ज्वर ऐसा ही भयानक होता है। एक बार युवक इसके पंजे में फंस कर मुक्त नहीं हो पाता। अतः प्रत्येक युवक को अपने मित्रों, स्थानों, दिलचस्पियों, पुस्तकों इत्यादि का चुनाव बड़ी सतर्कता से करना चाहिए।

इसके विपरीत सत्संग एक ऐसा आध्यात्मिक साधन है जिससे मनुष्य की सर्वतोमुखी उन्नति हो सकती है। संसार में एक से एक पवित्र आत्माएं पुस्तकों के रूप में आपके साथ रह सकती हैं। उनके विचारों की विद्युत आपके चारों ओर रह कर सब प्रकार की गंदगी को, अशुभ विचारों को दूर भगाती है। उत्तम पुस्तकों को घर में रखने, उनका अध्ययन, मनन तथा सहवास करने से मनुष्य सबसे बुद्धिमान आत्माओं के सहवास में हो सकता है।

इसके अतिरिक्त विद्वान, साहित्य सेवियों, दर्शन शास्त्रियों, सम्पादकों, सन्तों के संपर्क में रह कर भी आध्यात्मिक जीवन व्यतीत किया जा सकता है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 26

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.26

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