मंगलवार, 20 जून 2017

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 118)

🌹  हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ

🔵 सम्पदा एकत्रित होती है, तो उसका प्रभाव परिलक्षित होता है। शरीर से स्वस्थ मनुष्य बलिष्ठ और सुंदर दीखता है। सम्पदा वालों के ठाठ-बाठ बढ़ जाते हैं। बुद्धिमानों का वैभव वाणी, रहन-सहन में दिखाई पड़ता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक सम्पदा बढ़ने पर उसका प्रभाव भी स्पष्ट उदीयमान होता है दृष्टिगोचर होता है। साधना से सिद्धि का अर्थ होता है, असाधारण सफलताएँ। साधारण सफलताएँ तो सामान्य जन भी अपने पुरुषार्थ और साधनों के सहारे प्राप्त करते रहते हैं और कई तरह की सफलताएँ अर्जित करते रहते हैं। अध्यात्म क्षेत्र बड़ा और ऊँचा है, इसलिए उसकी सिद्धियाँ भी ऐसी होनी चाहिए जिन्हें सामान्यजनों के एकाकी प्रयास से न बन पड़ने वाली, अधिक ऊँचे स्तर की मानी जा सके।

🔴 इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि आध्यात्मिकता का अवमूल्यन होते-होते वह बाजीगरी स्तर पर पहुँच गई है और सिद्धियों का तात्पर्य लोग किसी ऐसे ही अजूबे से समझने लगे हैं, जो कौतुक-कौतूहल उत्पन्न करता हो। दर्शकों को अचम्भे में डालता हो। भले ही वे अचरज सर्वथा निरर्थक ही क्यों न हो? बालों में से खाल निकाल लेना कोई ऐसा काम नहीं है कि जिसके बिना किसी का काम रुकता हो या फिर किसी का उससे बहुत बड़ा हित होने वाला हो। असाधारण कृत्य, चकाचौंध में डालने वाले करतब ही बाजीगर लोग दिखाते रहते हैं।

🔵 इसी के सहारे वाहवाही लूटते और पैसा कमाते हैं, किन्तु इनके कार्यों में से एक भी ऐसा नहीं होता कि जिससे जन-हित का कोई प्रयोजन पूरा होता हो। कौतूहल दिखाकर अपना बड़प्पन सिद्ध करना उनका उद्देश्य होता है। इसके सहारे वे अपना गुजारा चलाते हैं। सिद्ध पुरुषों में भी कितने ही ऐसे होते हैं, जो ऐसी कुछ हाथों की सफाई दिखाकर अपनी सिद्धियों का विज्ञापन करते रहते हैं। हवा में हाथ मारकर इलायची या मिठाई मँगा देने, नोट दूने कर देने जैसे कृत्यों के बहाने चमत्कृत करके कितने ही भोले लोगों को ठग लिए जाने के समाचार आए दिन सुनने को मिलते रहते हैं। लोगों का बचपना है, जो बाजीगरी-कौतुकी और अध्यात्म क्षेत्र की सिद्धियों का अंतर नहीं कर पाते। बाजीगरों और सिद्ध पुरुषों के जीवन क्रम में स्तर में जो मौलिक अंतर रहता है, उसे पहचानना आवश्यक है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/hamari

👉 आज का सद्चिंतन 21 June 2017


प्रेरणादायक प्रसंग 21 June 2017


👉 "जिम्मेदार कौन"

🔵 बहु को जलाकर मार डालने वाले सास, ससुर और पति को जब पुलिस गिरफ्तार करके ले जाने लगी तो सुबकती हुई छोटी बहन अचानक ही इंस्पेक्टर को रोककर बोली-

🔴 "इन्हें भी गिरफ्तार करिये इंस्पेक्टर साहब। दीदी की मौत के लिए ये लोग भी बराबर के जिम्मेदार हैं।"

🔵 "क्या आपके माँ-बाप?" इंस्पेक्टर ने आश्चर्य से पूछा।

🔴 वहाँ उपस्थित सभी लोग स्तब्ध रह गए एक बेटी का माँ-बाप पर ऐसा आरोप सुनकर।

🔵 "तू पागल हो गयी है क्या? अरे हम खुद उसकी मौत के दुःख में अधमरे हो रहे हैं। भला कोई माँ-बाप अपनी बेटी को कभी मार सकते हैं क्या? हे भगवान" माँ अपना माथा पीटने लगी।

🔴 "दीदी शादी के कुछ समय बाद से ही बराबर आप लोगों को अपनी परेशानी बता रही थी कि उसके ससुराल वाले उसके साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं। जीजा और सास मारपीट करते थे। उसे खाना नहीं देते थे। कितनी मिन्नत करती थी वो आपसे कि मुझे बचा लो इन दरिंदों के हाथ से। ये लोग मुझे मार डालेंगे।" छोटी ने बताया।

🔵 "हम तो उसका घर-परिवार बचाना चाहते थे। कौन माँ-बाप नहीं चाहते कि लड़की अपने घर में सुखी रहे।" पिता ने अपनी दलील दी।

🔴 "सुखी?" छोटी गुस्से से बोली "ये जानने के बाद भी कि उसकी सास और पति की निगाह एक अमीर आदमी की दौलत पर है जो पैसों के बूते पर अपनी बदनाम हो चुकी बेटी की शादी जीजाजी से जल्द से जल्द करवाना चाहता है। और इस लालच में जीजा और उसकी माँ दीदी की जान लेने की पूरी तैयारी में है, क्योंकि तलाक तो आप लेने नहीं देते दीदी को।"

🔵 "हम तो समझौता चाहते थे..." माँ ने कुछ कहना चाहा।

🔴 "अरे दरिंदों से कैसा समझौता माँ। कितना रोयी थी दीदी हाथ जोड़कर आप लोगों के सामने कि माँ एक कोने में इज़्ज़त से पड़े रहने दो बस। अपनी रोटी मैं आप कमा लूँगी। लेकिन आपने कभी समाज की, कभी अपने बुढ़ापे को बदनामी से बचाने की दुहाई देकर दीदी का मुँह बन्द कर दिया हर बार कि शादी के बाद लड़कियां ससुराल में ही अच्छी लगती हैं। काश आप समाज और इज़्ज़त की परवाह करने की जगह अपनी बेटी की परवाह करते।" छोटी हिकारत से बोली। सबको साँप सूंघ गया। इंस्पेक्टर गहरी साँस लेकर रह गया।

🔵 "सच है, बेटियों को मारने में ससुराल वाले जितने जिम्मेदार होते है, उससे अधिक जिम्मेदारी मायके वालों की उपेक्षा और बेटियों के विवाह के बाद, अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझकर गंगा नहा लेने वाली मानसिकता की होती है। अगर माँ-बाप बेटियों को घर में बराबर का दर्जा और साथ दें तो ससुराल में वो यूँ बली न चढ़ाई जा सकेंगीं।"

👉 आप किसी से ईर्ष्या मत कीजिए। (भाग 1)

🔵 ईर्ष्या वह आन्तरिक अग्नि है जो अन्दर ही अन्दर दूसरे की उन्नति या बढ़ती देखकर हमें भस्मीभूत किया करती है। दूसरे की भलाई या सुख देखकर मन में जो एक प्रकार की पीड़ा का प्रादुर्भाव होता है, उसे ईर्ष्या कहते हैं।

🔴 ईर्ष्या एक संकर मनोविकार है जिसकी संप्राप्ति आलस्य, अभिमान और नैराश्य के संयोग या जोड़ से होती है। अपने आपको दूसरे से ऊँचा मानने की भावना अर्थात् मनुष्य का ‘अहं’ इसके साथ संयुक्त होता है।

🔵 ईर्ष्या मनुष्य की हीनत्व भावना से संयुक्त है। अपनी हीनत्व भावना ग्रन्थि के कारण हम किसी उद्देश्य या फल के लिए पूरा प्रयत्न तो कर पाते, उसकी उत्तेजित इच्छा करते रहते हैं। हम सोचते हैं-”क्या कहें हमारे पास अमुक वस्तु या चीज होती? हाय! वह चीज उसके पास तो है, हमारे पास नहीं? वह वस्तु यदि हमारे पास नहीं है तो उसके पास भी न रहे।’

🔴 ईर्ष्या व्यक्तिगत होती है। इसमें मनुष्य दूसरे की बुराई अपकर्ष, पतन, बुराई, त्रुटि की भावनाएँ मन में लाता है। स्पर्धा ईर्ष्या की पहली मानसिक अवस्था है। स्पर्धा की अवस्था में किसी सुख, ऐश्वर्य, गुण, या मान से किसी व्यक्ति विशेष को संपन्न देख अपनी त्रुटि पर दुःख होता है, फिर प्राप्ति की एक प्रकार की उद्वेग पूर्ण इच्छा उत्पन्न होती है। स्पर्धा वह वेगपूर्ण इच्छा या उत्तेजना है, जो दूसरे से अपने आपको बढ़ाने में हमें प्रेरणा देती है। स्पर्धा बुरी भावना नहीं। यह वस्तुगत है। इसमें हमें अपनी कमजोरियों पर दुःख होता है। हम आगे बढ़कर अपनी निर्बलता को दूर करना चाहते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति- जून 1949 पृष्ठ 19
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1949/June/v1.19

👉 इस धरा का पवित्र श्रृंगार है नारी (भाग 3)

🔴 पत्नी के रूप में उसका महत्व कुछ कम नहीं हैं नारी पुरुष की अर्धांगिनी हैं पत्नी के बिना पति का व्यक्तित्व पूरा नहीं होता। उसी की महिमा के कारण पुरुष गृहस्थ होने का गौरव पाता है और पत्नी ही वह माध्यम है जिसके द्वारा किसी की वंश परम्परा चलती है। यह पत्नी की ही तो उदारता है कि वह पुरुष के पशुत्व को पुत्र में बदल कर उसका सहारा निर्मित कर देती है। पुरुष के प्यार, स्नेह तथा उन्मुक्त आवेगों को अभिव्यक्त करने में पत्नी का कितना हाथ है इसे सभी जानते है।

🔵 परेशानी, निराशा, आपत्ति अथवा जीवन के निविड़ अंधकार में वह पत्नी के सिवाय कौन है जो अपनी मुस्कानों से उजाला कर दिया करे अपने प्यार तथा स्नेह से हृदय नवजीवन जगाकर आश्वासन प्रदान करती रहे। पत्नी का सहयोग पुरुष के सुख में चार चाँद लगा देता और दुःख में वह उसकी साझीदार बनकर हाथ बँटाया करती हैं दिन भर बाहर काम करके और तरह-तरह के संघर्षों से थककर आने पर भोजन स्नान तथा आराम-विश्राम की व्यवस्था पत्नी के सिवाय और कौन करेगा।

🔴 पुरुष एक उद्योगी उच्छृंखल इकाई है। परिवार बसाकर रहना उसका सहज स्वभाव नहीं हैं यह नारी की ही कोमल कुशलता है जो इसे पारिवारिक बनाकर प्रसन्नता की परिधि में परिभ्रमण करने के लिये लालायित बनाये रखती है। पत्नी ही पुरुष को उद्योग उपलब्धियों की व्यवस्था एवं उपयोगिता प्रदान करती हैं पुरुष पत्नी के कारण ही गृहस्थ तथा प्रसन्न चेता बनकर सामाजिक भद्र जीवन बिताया करता पत्नी रहित पुरुष का समाज में अपेक्षाकृत कम आदर होता है।

🔵 परिवारों में सामाजिकता के आदान-प्रदान उन्हीं के बीच होता हैं पारिवारिकता तथा पत्नी की परिधि पुरुष को अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों से बचाये रहती है। पत्नी के रूप में नारी का यह महत्व कुछ कम नहीं है। यदि आज संसार में नारी का सर्वथा अभाव हो जाये तो कल से ही पुरुष पशु हो उठे, सारी समाज व्यवस्था उच्छृंखल हो उठे, और सृष्टि का व्यवस्थित स्वरूप अस्त-व्यस्त हो जाये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति- अगस्त 1995 पृष्ठ 25
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1995/August/v1.25

👉 कायाकल्प का मर्म और दर्शन (भाग 5)

🔴 बगुले और हंस सफेद होते हैं दोनों; लेकिन प्रकृति में अंतर होता है। आकृति में क्या फरक होता है! आप दूर से फोटो खींच लीजिए, आकृति में थोड़ा-सा ही फर्क दिखाई पड़ेगा। कौए और कोयल की प्रकृति नहीं मिल सकती। कौए और कोयल की प्रकृति तो एक जैसी ही है। आप फोटो खींच लीजिए, दोनों एक-से ही मालूम पड़ेंगे तो फिर कौआ, कोयल कैसे हो जाता है? यहाँ आकृति बदलने की बात नहीं है, प्रकृति बदलने की ओर इशारा है।

🔵 यह कायाकल्प का वर्णन है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कायाकल्प का वर्णन ऐसे ही रूप में किया है। आपको यहाँ अपना कायाकल्प करने की तैयारी करनी चाहिए। शरीर कल्प नहीं, मनःकल्प। मनःकल्प आप किस तरह करें? इस तरह कीजिए कि आपका क्षुद्रता का दायरा, महानता के दायरे में बदल जाए। आपका दाया बहुत छोटा है। कूपमण्डूक के तरीके से, कुएँ के मेढक के तरीके से पेट भरेंगे, रोटी कमाएँगे, बेटे को खिलाएँगे, बेटी को खिलाएँगे, एक छोटे-से दायरे में गूलर के भुनगे के तरीके से आप भी सारी चीजों को सीमाबद्ध किए हुए हैं। आप असीम बन जाइए। आप महान बन जाइए। आप सीमित रहने से इनकार कर दीजिए।

🔴 आप पिंजड़े के पक्षी की तरह जिंदगी मत व्यतीत कीजिए और आप उड़ने की तैयारी कीजिए। कितना बड़ा आकाश है, इसमें स्वच्छन्द विचरण करने के लिए उमंगें एकत्रित कीजिए और पिंजड़े की कारा में कैद होने से इनकार कर दीजिए। आपको मालूम पड़ता है कि पिंजड़े की कीलियों में हम सुरक्षित हैं, यहाँ हमको चारा, दाना मिल जाता है; लेकिन कभी आपने खुली हवा में साँस ली नहीं है और आपने अपने पंखों के साथ उड़ाने का, आसमान में आनंद लिया नहीं है। आप ऐसा कीजिए, आप यहाँ से अपने आपको बंधन-मुक्त करने की कोशिश कीजिए। आप भव-बंधनों में जकड़े हुए आदमी मत रहिए। आप मुक्त आदमी की तरह विचार कीजिए। आप नर से नारायण बनने की महत्त्वाकांक्षा तैयार कीजिए।

🔵 आप उसी क्षुद्र महत्त्वाकांक्षा में उलझे रहेंगे क्या? कौन-सी? लोकेषणा, वित्तैषणा, पुत्रैषणा। नहीं, आप कुछ और बड़ी महत्त्वाकांक्षा को लाइए। आप पुरुष से पुरुषोत्तम बनिए, आप नर से नारायण बनने की बात विचार कीजिए, आप कामनाओं की आग में जलने की अपेक्षा भावनाओं के स्वर्ग और शांति में प्रवेश कीजिए। कामनाओं में ही लगे रहेंगे क्या? आप माँगते ही रहेंगे क्या? भिखारी ही बने रहेंगे क्या? नहीं, आप भिखारी बनने से इनकार कर दीजिए। अब आप यहाँ से दानी बनकर जाइए। जिंदगी भर आपने अपेक्षाएँ की हैं, इसकी अपेक्षा उसकी अपेक्षा; गणेश जी हमको ये दे देंगे, साँई बाबा ये दे देंगे, औरत हमको यह देगी, बच्चा हमको यह कमाकर देगा; आपका सारा जीवन भिखमंगे की तरह, अपेक्षा करने वालों की तरह व्यतीत हो गया। अब आप कृपा कीजिए और अपना ढर्रा बदल दीजिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 17)

🌹  इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।

🔴 दस इंद्रियों में दो प्रमुख हैं, जिनमें से एक जिह्वा तथा दूसरी जननेन्द्रिय है। जिसने इनको वश में कर लिया, समझो उसने शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त कर लिया है। जिह्वा संयम से शारीरिक स्वास्थ्य तथा जननेन्द्रिय के संयम से मनोबल अक्षुण्ण रहता है। जिह्वा का शरीरगत स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। जिह्वा स्वाद को प्रधानता देकर ऐसे पदार्थों को खाती रहती है, जो अनावश्यक ही नहीं, हानिकारक भी होते हैं। स्वाद- स्वाद में भोजन की मात्रा बढ़ने से पेट खराब तथा असंख्य रोग हो जाते हैं।
  
🔵 समय संयम में शिथिलता रहने से मनुष्य निश्चित रूप से आलसी और प्रमादी बनता है। नियमितता न रहने से जो किया जाता है, वह आधा- अधूरा रहता है। समय का सदुपयोग, सुनियोजित श्रम से ही किया जा सकता है। आलस्य का अर्थ है- शारीरिक श्रम से बचना तथा प्रमाद, मानसिक जड़ता का नाम हे। शरीर बलवान होते हुए भी व्यक्ति श्रम से जी चुराए, तो उसे प्रमाद कहा जाता है। हमारे सबसे समीपवर्ती शत्रु आलस्य और प्रमाद ही हैं। जो समय देवता की अवहेलना करते हैं, वे जीवन को निरर्थक बिता कर चलते बनते हैं। समय के असंयमी ही अल्पजीवी कहलाते हैं, भले ही उनकी आयु कुछ भी हो। समय ईश्वर प्रदत्त सम्पदा है। उसे श्रम में मनोयोगपूर्वक नियोजित करके विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियाँ अर्जित की जा सकती हैं। जो समय गँवाता है, उसे जीवन गँवाने वाला ही समझा जाता है।
 
🔴 समय की तरह ही विचार प्रवार को भी सत्प्रयोजनों में निरत रखा जाए। उत्कृष्ट उपयोगी विचारों को मर्यादा में सीमाबद्ध रखने से वे सृजनात्मक प्रयोजनों में लगते हैं और महत्त्वपूर्ण प्रतिफल उत्पन्न करते हैं। मनोनिग्रह के अभ्यास से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त करते हैं। नित्य विचारों की अनगढ़ता अस्त- व्यस्तता से बचना चाहिए। विचारों को सुनियोजित कर लक्ष्य विशेष से जोड़कर लौकिक व आत्मिक जगत में लाभान्वित होना चाहिए। व्यक्ति जो भी कार्य करता है, वह विचारों की परिणति है। ‘‘जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही करता है।’’ इस उक्ति को सदैव स्मरण रखना चाहिए।
  
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.25

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Sankalpaa/sence.1

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