चाहत नहीं, तड़प जगे
यह साधना की गति के अनुसार ही होगा। इस संदर्भ में परम पूज्य गुरुदेव का एक कथन बड़ा ही बोधप्रद है। एक बार परस्पर की चर्चा में किसी शिष्य ने उनसे जानना चाहा कि गुरुदेव साधना से सिद्धि के बीच कितने समय का फासला है। उन्होंने जवाब दिया- बेटा! यह तो फासला तय करने वाले पर निर्भर है। इसी के साथ उन्होंने उससे एक प्रतिप्रश्न किया- अच्छा, चल तू यह बता कि हरिद्वार से रामेश्वरम् कितनी देर में पहुँचा जा सकता है। पास बैठे शिष्य ने कहा- गुरुदेव लगभग तीन-चार दिन लग सकते हैं। बस-ट्रेन बदलते हुए इतना समय तो लग ही जाएगा। क्यों, यह समय कम-ज्यादा भी तो हो सकता है। इस वाक्य के साथ ही उन्होंने अपनी बात का खुलासा किया। यदि अपना सफर हवाईजहाज या हेलीकाप्टर से तय करें, तो यह समय अपने आप ही कम हो जाएगा। इसके विपरीत यदि सफर पैदल तय किया जाय, तो यह समय कई गुना बढ़ जाएगा।
सुनने वाले को गुरुदेव की बात का मर्म समझ में आ गया। पर अभी वह इसे और भी स्पष्ट करना चाहते थे। सो उन्होंने कहा- बेटा! साधना से सिद्धि का सफर इस पर निर्भर करता है कि साधना के कर्म, विचार व भाव में त्वरा एवं तीव्रता कितनी है। जिनकी गति मन्द है, उनके लिए यह फासला जन्मों लम्बा हो सकता है। जिनकी गति मध्यम है, वे घिसते, पिटते जीवन के अन्तिम छोर में सिद्धि के दर्शन कर पाएँगे। पर कुछ ऐसे भी महावीर, परम पराक्रमी होते हैं, जो अपने विचार एवं भाव तीर की तरह बना लेते हैं और इन्हें कर्म के धनुष पर चढ़ाकर इस गति से लक्ष्य की ओर बढ़ाते हैं कि सिद्धि मिलने में देर नहीं लगती। ऐसों के लिए जीवन का हर पल, हर क्षण, हर कर्म, हर विचार, हर भाव साधना का ही पर्याय बन जाता है। इनके लिए कुछ भी-कहीं भी असम्भव नहीं है। जो सच्चे साधक हैं, वे इस सच्चाई को अनुभव करते हैं कि गुनगुने-गुनगुने होकर रहने का नाम तप नहीं है। यह तो खौलते हुए, उबलते हुए जीने का नाम है। ऐसे व्यक्ति अपने स्थूलता जीवन की सीमाएँ लाँघ कर पलक झपकते सूक्ष्म व कारण के द्वार खोल लेता है।
परम पूज्य गुरुदेव की इन बातों को सुनकर सुनने वाले को स्वामी विवेकानन्द के जीवन की एक घटना का स्मरण हो आया। स्वामी जी अपने एक भाषण में बता रहे थे कि यदि कोई अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का समग्र नियोजन कर सके, तो छह मास के भीतर आत्मज्ञान पाया जा सकता है। इस भाषण को सुनने वाले अनेकों थे। सभी ने इस वाक्य को अपने-अपने ढंग से सुना। कइयों ने तो इसे सुनकर भी अनसुना कर दिया। एक व्यक्ति ऐसा भी था, जिसे इस वाक्य में महावाक्य का बोध नजर आया। वह उठकर खड़ा हुआ और बोला- स्वामी जी, इज़ इट पासिबल? स्वामी जी का उत्तर था- यस इट इज़।
बस, उसने वहीं खड़े-खड़े उन्हें प्रणाम किया। और उस प्रवचन सभा से अपने कदम बढ़ाए। उसके मुख मण्डल पर संकल्प एवं समर्पण का मिश्रित तेज था। इस तेज को उस समय स्वामी जी को छोड़कर कोई नहीं देख पाया। दूसरों ने जो देखा, वह केवल इतना भर था कि वह व्यक्ति फिर अगले दिनों प्रवचन सभाओं में दिखाई नहीं पड़ा। रोज आने वाले लोग उसे भूल भी गए। इस क्रम में छह मास कब बीते पता ही न चला। हाँ, इस अवधि के बीतते-बीतते वह स्वयं एक दिन आ पहुँचा। अब की बार उसके मुख का आत्म ज्योति प्रकाशित थी। उसे देखते ही स्वामी जी ने उसे अपनी बाँहों में ले लिया और बोले- स्टर्डी, आफ्टर ऑल यू डिड दिस। हाँ स्वामी आपके आशीष से यह हो सका—ई.टी. स्टर्डी का उत्तर था। तो आपकी साधना से सिद्धि की समय अवधि आप पर निर्भर है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ९४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या