मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

👉 दुनियां क्या कहेगी...

एक साधू किसी नदी के पनघट पर गया और पानी पीकर पत्थर पर सिर रखकर सो गया।

पनघट पर पनिहारिन आती-जाती रहती हैं तो तीन-चार पनिहारिनें पानी के लिए आईं तो एक पनिहारिन ने कहा- "आहा! साधु हो गया, फिर भी तकिए का मोह नहीं गया...
पत्थर का ही सही, लेकिन रखा तो है।"

पनिहारिन की बात साधु ने सुन ली... उसने तुरंत पत्थर फेंक दिया... दूसरी बोली,"साधु हुआ, लेकिन खीज नहीं गई.. अभी रोष नहीं गया, तकिया फेंक दिया।" तब साधु सोचने लगा, अब वह क्या करें ?

तब तीसरी पनिहारिन बोली,"बाबा! यह तो पनघट है, यहां तो हमारी जैसी पनिहारिनें आती ही रहेंगी, बोलती ही रहेंगी, उनके कहने पर तुम बार-बार परिवर्तन करोगे तो साधना कब करोगे?"

लेकिन एक चौथी पनिहारिन ने बहुत ही सुन्दर और एक बड़ी अद्भुत बात कह दी- "साधु, क्षमा करना, लेकिन हमको लगता है, तूमने सब कुछ छोड़ा लेकिन अपना चित्त नहीं छोड़ा है, अभी तक वहीं का वहीं बने हुए है। दुनिया पाखण्डी कहे तो कहे, तूम जैसे भी हो, हरिनाम लेते रहो।" सच तो यही है, दुनिया का तो काम ही है कहना...

आप ऊपर देखकर चलोगे तो कहेंगे... "अभिमानी हो गए।"
नीचे देखकर चलोगे तो कहेंगे... "बस किसी के सामने देखते ही नहीं।"
आंखे बंद कर दोगे तो कहेंगे कि... "ध्यान का नाटक कर रहा है।"
चारो ओर देखोगे तो कहेंगे कि... "निगाह का ठिकाना नहीं। निगाह घूमती ही रहती है।"

और परेशान होकर आंख फोड़ लोगे तो यही दुनिया कहेगी कि... "किया हुआ भोगना ही पड़ता है।"

ईश्वर को राजी करना आसान है, लेकिन संसार को राजी करना असंभव है।
दुनिया क्या कहेगी, उस पर ध्यान दोगे तो आप अपना ध्यान नहीं लगा पाओगे...

👉 आज का सद्चिंतन 4 December 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 4 December 2018


👉 प्रेम का रहस्य

जिस दिन किसी वस्तु पर अथवा किसी प्राणी पर आपका प्रेम होगा फिर चाहे वह स्त्री हो, पुत्र हो अथवा दूसरा कोई हो, उस दिन आपको विश्वव्यापी प्रेम का रहस्य मालूम हो जावेगा। इन्द्रिय सुख के लिए प्रेम करने वाले मनुष्य का लक्ष बहुधा जड़ विषय के आगे नहीं जाता। हम कहते हैं कि अमुक पुरुष का अमुक स्त्री पर प्रेम हुआ, परन्तु वास्तव में प्रेम उस स्त्री के शरीर पर होता है। वह उसके भिन्न भिन्न अंगों का चिन्तन करता है। अर्थात् जड़ विषयों में जो आकर्षण रहता है, उस आकर्षण का ही स्वरूप प्रेम नाम से पहचाने जाने वाले विकार के स्वरूप हैं।

सच्चा प्रेम करने वाले, इस प्रकार के दो मनुष्य एक दूसरे से चाहे हजारों मील के अन्तर पर हों, पर उनके प्रेम में फर्क नहीं पड़ता। वह नष्ट नहीं होता और न उससे कभी दुख की उत्पत्ति होती है।

हम निग्रहित होते हैं, बन्धन में पड़ते हैं, कैसे इसलिये नहीं कि हम कुछ देते हैं बल्कि इसलिए कि कुछ चाहते हैं। प्रेम करके हम दुख पाते है। परन्तु दुख हमें इसलिए नहीं मिलता कि प्रेम किया है। दुख का कारण यह है कि हम प्रेम के बदले प्रेम प्राप्त करना चाहते हैं। जहाँ इच्छा नहीं है चाह नहीं है, वहाँ दुख, क्लेश भी नहीं है। निस्वार्थ भाव से दूसरों को देते रहो, तभी सुखी हो सकोगे यह प्रकृति का अखण्ड नियम है।

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति दिसंबर 1941 पृष्ठ 11

👉 The Roots of Fulfillment

Most thinkers, philosophers of the world opine that self-evolution is a natural desire, and tendency of every living being. In fact this is what lies behind one’s quest for progress and joy… All efforts, all competitions and struggles for worldly possessions, sensual pleasures, ego-satisfaction emanate from this rootcause in the deepest depth, though we don’t realize it because of our extrovert attitude and illusions of letting the worldly substances and circumstances as the keys to a treasure of joy.

One earns money with hard work and keeps saving it to get more and more. Why? Because, he ‘feels’ it like a source of joy. But the same fellow might spend his savings in gorgeous arrangements of his child’s marriage? Why? Because that might give him a ‘feeling’ of greater pleasure of making his child happy or gaining prestige in the society or what not…! A dacoit risks his life in bringing huge wealth in loot, but what does he do of it? He might just throw it in drinking liquor; because for him that might appear to be a greater source of pleasure than saving the money or using it some other ways. If the savings are consumed in religious alms or treatment of a disease, one does not feel as bad as one would, if the same amount was lost due to burglary.

So what we see common in all these examples and perhaps in every action of our life is that one opts for what he or she feels or thinks as more satisfying, although this satisfaction or joy might be just circumstan tial, illusory and short-lived. Deeper thinking would indicate that the root of this quest for joy or fulfillment lies beneath the sublime core of eternal quest of the self for ascent, for betterment, for unbounded evolution… Then we would then attempt for the absolute unalloyed bliss, ultimate fulfillment.

📖 Akhand Jyoti, June 1940

👉 आत्मिक तृप्ति का आधार

संसार के प्रमुख दार्शनिकों का मत है कि जीव की स्वाभाविक इच्छा और अभिलाषा आत्मिक उन्नति की है। भौतिक सुविधाओं को लोग इकट्ठा करते हैं, इंद्रियों के विषय भोगते हैं, पर बारीक दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि ये सब कार्य भी आत्मिक तृप्ति के लिए किये जाते हैं। यह दूसरी बात है कि धुँधली दृष्टि होने के कारण लोग नकल को ही असल समझ बैठें। आपने बड़े परिश्रम से धन इकट्ठा किया है, किंतु विवाह में उसे बड़ी उदारता के साथ खर्च कर देते हैं।

उस दिन एक पैसे के लिए प्राण दिये करते थे, आज आप अशर्फियाँ क्यों लुटा रहे हैं? इसलिए कि आज आप धन संचित रखने की अपेक्षा उसे खर्च कर डालने में अधिक सुख का अनुभव करते हैं। डाकू जिस धन को जान हथेली पर रखकर लाया थ, उसे मदिरा पीने में इस तरह क्यों उड़ा रहा है? इसलिए कि वह मदिरा पीने के आनंद को धन जोड़ने की अपेक्षा अधिक महत्त्व देता है।

बीमारी में, धर्म-कार्यों में, या अन्य बातों में काफी पैसा खर्च हो जाता है, किन्तु मनुष्य कुछ भी रंज नहीं करता। यही पैसा यदि चोरी में चला गया होता तो उसे बड़ा दु:ख होता। इन उदाहरणों में आप देखते हैं कि जिनका अमूल्य जीवन धन-संचय में खर्च हुआ जा रहा है, वे अपने उस जीवनरस को भी एक समय बड़ी लापरवाही के साथ उड़ा देते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि उन खर्चीले कामों में आदमी अधिक आनंद का अनुभव करता है।

📖 अखण्ड ज्योति- जून 1940

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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