🔹 श्रेष्ठता दैवी संपत्ति है। जिसमें सद्गुण हैं, सद्विचार हैं, सद्भाव हैं, वस्तुतः वही सच्चा सम्पत्तिवान् है। हमारी आकांक्षाएँ विचारधाराएँ, चेष्टाँए, अभिलाषएँ, क्रियाएँ, अनुभूतियाँ श्रेष्ठ होनी चाहिए। हम जो कुछ सोचें, जो कुछ करें, वह आत्मा के गौरव के अनुरूप हो। पानी और दूध मिला हुआ हो, तो हंस उसमें दूध को पीता है और पानी को छोड़ देता है, यही कार्य पद्धति हमारी भी होनी चाहिए।
🔸 आत्मबल वृद्धि के लिए उपासना, आत्मशोधन और परमार्थ तीनों का ही समावेश आवश्यक है। भगवान् का नित्य स्मरण करें, अपने दोष- दुर्गुणों से नित्य संघर्ष करें और उन्हें हटावें। सद्गुणों औैैर योग्यताओं को बढ़ाने के लिए नित्य पुरुषार्थ करें। पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरी ईमानदारी और तत्परतापूर्वक निबाहें। तभी जीवनोद्देश्य की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी।
🔹 स्वाध्याय नित्य करना चाहिए। जीवन निर्माण के लिए उपयुक्त सत्साहित्य नित्य पढ़ना चाहिए। मनुष्य पर अनुपयुक्त सत्साहित्य नित्य पढ़ना चाहिए। मनुष्य पर अनुपयुक्त वातावरण की छाप तथा मलीनता को रोज स्वच्छ करने के लिए स्वध्याय तथा सत्संग ही एक मात्र उपाय हैं। सामाजिक विचारशील और चरित्रवान लोगों का सत्संग उनके सत्साहित्य से ही हमारी स्वध्याय की आवश्यकता को पूरा कर सकता है।
🔸 गुरु का स्वरूप मंगलकारी है, वह सदैव शिष्य की हित कामना ही करता है। कई बार शिष्य को गुरु की बात समझ में नहीं आती, किन्तु इस बात को गुरु ही समझ सकता है कि कब, किस तरह शिष्य का कल्याण करना है। अतः शिष्य का श्रेय इसी में है कि बिना मीन- मेख निकाले गुरु की बात को स्वीकार कर ले।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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