गुरुवार, 19 अक्टूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 19 Oct 2023

यदि सचमुच ही आनन्दित रहने की इच्छा हो तो फूलों से कुछ सीखो। वे स्वयं खिलते हैं और जो उधर से निकलता है, उसके होठों को खिलाते हैं। अपना सौरभ उदारतापूर्वक वायुमण्डल में बखेरते हैं। यह नीति अपनाकर कोई भी भीतरी आत्म-सन्तोष और बाहरी सम्मान का भाजन बन सकता है। मधु मक्षिकाएँ अनवरत श्रम करती हैं। वे उसका लाभ नहीं उठातीं। उपभोग तो दूसरे ही करते हैं, पर इस श्रम में संलग्न उनकी कर्मनिष्ठा सहज ही आनन्द का उपहार देती रहती है। यदि ऐसा न होता तो दूसरों द्वारा मधु निचोड़ लिये जाने के उपरान्त वे दूसरे दिन फिर क्यों उसी प्रयास में संलग्न होतीं। उद्देश्यपूर्ण सत्कर्मों की प्रतिक्रिया ही आनन्द के रूप में अनुभव की जाती है। जिन्हें सरसता की खोज है, उन्हें इसी राह पर चलना पड़ेगा।

आनन्द का चिन्तन बुरा नहीं, पर उसे बीज की तरह गलना और उगना चाहिए अन्यथा नयनाभिराम वट वृक्ष की छाया में बैठकर सरसता का आस्वादन संभव न हो सकेगा। ध्यान और योग की अपनी उपयोगिता है, पर उतने भर से सच्चिदानन्द का सान्निध्य सम्भव नहीं। भगवान का कोई स्थिर रूप नहीं, वे सक्रियता के रूप में गतिशील हो रहे हैं। इस विश्व की शोभा, स्वच्छता जिस दिव्य गतिशीलता पर निर्भर है। हम उसका अनुसरण करके ही प्रभु प्राप्ति के राजमार्ग पर चल सकते हैं। चिन्तन इसके लिए प्रेरणा देता है, लक्ष्य तक पहुँचने के लिए चलना तो पैरों को ही पड़ेगा। भावनाओं में प्राणों की प्रतिष्ठापना कर्मनिष्ठा ही काम करती है। सत्कर्मों में निरत हुए बिना आनन्द की अनुभूति आज तक किसी को भी नहीं हो सकी है।

नीरसता क्या है? निष्क्रियता, उद्विग्नता क्या है? अनर्थ में अभिरुचि। हमारे जन्मजात आनन्द अधिकार को इन दो ने ही छीना है। जीवन नीरस लगता है क्योंकि सत्प्रयोजन की दिशा में हम निष्क्रिय बने रहते हैं। हम उद्विग्न रहते हैं क्योंकि अकर्म और कुकर्म करके आत्मा को चिढ़ाते और बदले में चपत खाते हैं। यदि आनन्द अभीष्ट हो− तो निरानन्द की दिशा में चल रही अपनी दिग्भ्रांत यात्रा का क्रम बदलना पड़ेगा। एक क्षण के लिए रुकें और देखें कि जो चाहते हैं उसे पाने की दिशा और चेष्टा सही भी है कि नहीं। चिन्तन के फलस्वरूप आनन्द की प्राप्ति का जो माहात्म्य बताया गया है उसका आधार यही है कि वस्तु स्थिति को नये सिरे से समझें और जीवन−नीति का नये सिरे से निर्धारण करें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य



👉 क्या मैं शरीर ही हूँ-उससे भिन्न नहीं? (अंतिम भाग)

मैं काया हूँ। यह जन्म के दिन से लेकर-मौत के दिन तक मैं मानता रहा। यह मान्यता इतनी प्रगाढ़ थी कि कथा पुराणों की चर्चा में आत्मा काया की पृथकता की चर्चा आये दिन सुनते रहने पर भी गले से नीचे नहीं उतरती थी। शरीर ही तो मैं हूँ-उससे अलग मेरी सत्ता भला किस प्रकार हो सकती है? शरीर के सुख-दुख के अतिरिक्त मेरा सुख-दुख अलग क्यों कर होगा? शरीर के लाभ और मेरे लाभ में अन्तर कैसे माना जाय? यह बातें न तो समझ में आती थीं और न उन पर विश्वास जमता था। परोक्ष पर प्रत्यक्ष कैसे झुठलाया जाय? काया प्रत्यक्ष है-आत्मा अलग है, उसके स्वार्थ, सुख-दुःख अलग हैं, यह बातें कहने सुनने भर की ही हो सकती हैं। सो रामायण गीता वाले प्रवचनों की हाँ में हाँ तो मिलाता रहा पर उसे वास्तविकता के रूप में कभी स्वीकार न किया।

पर आज देखता हूँ कि वह सचाई थी जो समझ में नहीं आई और वह झुठाई थी जो सिर पर हर घड़ी सवार रही। शरीर ही मैं हूँ। यही मान्यता-शराब की खुमारी की तरह नस-नस में भरी रही। बोतल पर बोतल छानता रहा तो वह खुमारी उतरती भी कैसे? पर आज आकाश में उड़ता हुआ वायुभूत-एकाकी-’मैं’ सोचता हूँ। झूठा जीवन जिया गया। झूठ के लिए जिया गया, झूठे बनकर जिया गया। सचाई आँखों से ओझल ही बनी रही। मैं एकाकी हूँ, शरीर से भिन्न हूँ। आत्मा हूँ। यह सुनता जरूर रहा पर मानने का अवसर ही नहीं आया। यदि उस तथ्य को जाना ही नहीं-माना भी होता तो वह अलभ्य अवसर जो हाथ से चला गया, इस बुरी तरह न जाता। जीवन जिस मूर्खता पूर्ण रीति-नीति से जिया गया वैसा न जिया जाता।

शरीर मेरा है-मेरे लिए है, मैं शरीर नहीं हूँ। यह छोटी-सी सच्चाई यदि समय रहते समझ में आ गई होती तो कितना अच्छा होता। तब मनुष्य जीवन जैसे सुर-दुर्लभ सौभाग्य का लाभ लिया गया होता, पर अब क्या हो सकता है। अब तो पश्चाताप ही शेष है। भूल भरी मूर्खता के लिए न जाने कितने लम्बे समय तक रुदन करना पड़ेगा?

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1972 पृष्ठ 5

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