यदि सचमुच ही आनन्दित रहने की इच्छा हो तो फूलों से कुछ सीखो। वे स्वयं खिलते हैं और जो उधर से निकलता है, उसके होठों को खिलाते हैं। अपना सौरभ उदारतापूर्वक वायुमण्डल में बखेरते हैं। यह नीति अपनाकर कोई भी भीतरी आत्म-सन्तोष और बाहरी सम्मान का भाजन बन सकता है। मधु मक्षिकाएँ अनवरत श्रम करती हैं। वे उसका लाभ नहीं उठातीं। उपभोग तो दूसरे ही करते हैं, पर इस श्रम में संलग्न उनकी कर्मनिष्ठा सहज ही आनन्द का उपहार देती रहती है। यदि ऐसा न होता तो दूसरों द्वारा मधु निचोड़ लिये जाने के उपरान्त वे दूसरे दिन फिर क्यों उसी प्रयास में संलग्न होतीं। उद्देश्यपूर्ण सत्कर्मों की प्रतिक्रिया ही आनन्द के रूप में अनुभव की जाती है। जिन्हें सरसता की खोज है, उन्हें इसी राह पर चलना पड़ेगा।
आनन्द का चिन्तन बुरा नहीं, पर उसे बीज की तरह गलना और उगना चाहिए अन्यथा नयनाभिराम वट वृक्ष की छाया में बैठकर सरसता का आस्वादन संभव न हो सकेगा। ध्यान और योग की अपनी उपयोगिता है, पर उतने भर से सच्चिदानन्द का सान्निध्य सम्भव नहीं। भगवान का कोई स्थिर रूप नहीं, वे सक्रियता के रूप में गतिशील हो रहे हैं। इस विश्व की शोभा, स्वच्छता जिस दिव्य गतिशीलता पर निर्भर है। हम उसका अनुसरण करके ही प्रभु प्राप्ति के राजमार्ग पर चल सकते हैं। चिन्तन इसके लिए प्रेरणा देता है, लक्ष्य तक पहुँचने के लिए चलना तो पैरों को ही पड़ेगा। भावनाओं में प्राणों की प्रतिष्ठापना कर्मनिष्ठा ही काम करती है। सत्कर्मों में निरत हुए बिना आनन्द की अनुभूति आज तक किसी को भी नहीं हो सकी है।
नीरसता क्या है? निष्क्रियता, उद्विग्नता क्या है? अनर्थ में अभिरुचि। हमारे जन्मजात आनन्द अधिकार को इन दो ने ही छीना है। जीवन नीरस लगता है क्योंकि सत्प्रयोजन की दिशा में हम निष्क्रिय बने रहते हैं। हम उद्विग्न रहते हैं क्योंकि अकर्म और कुकर्म करके आत्मा को चिढ़ाते और बदले में चपत खाते हैं। यदि आनन्द अभीष्ट हो− तो निरानन्द की दिशा में चल रही अपनी दिग्भ्रांत यात्रा का क्रम बदलना पड़ेगा। एक क्षण के लिए रुकें और देखें कि जो चाहते हैं उसे पाने की दिशा और चेष्टा सही भी है कि नहीं। चिन्तन के फलस्वरूप आनन्द की प्राप्ति का जो माहात्म्य बताया गया है उसका आधार यही है कि वस्तु स्थिति को नये सिरे से समझें और जीवन−नीति का नये सिरे से निर्धारण करें।
आनन्द का चिन्तन बुरा नहीं, पर उसे बीज की तरह गलना और उगना चाहिए अन्यथा नयनाभिराम वट वृक्ष की छाया में बैठकर सरसता का आस्वादन संभव न हो सकेगा। ध्यान और योग की अपनी उपयोगिता है, पर उतने भर से सच्चिदानन्द का सान्निध्य सम्भव नहीं। भगवान का कोई स्थिर रूप नहीं, वे सक्रियता के रूप में गतिशील हो रहे हैं। इस विश्व की शोभा, स्वच्छता जिस दिव्य गतिशीलता पर निर्भर है। हम उसका अनुसरण करके ही प्रभु प्राप्ति के राजमार्ग पर चल सकते हैं। चिन्तन इसके लिए प्रेरणा देता है, लक्ष्य तक पहुँचने के लिए चलना तो पैरों को ही पड़ेगा। भावनाओं में प्राणों की प्रतिष्ठापना कर्मनिष्ठा ही काम करती है। सत्कर्मों में निरत हुए बिना आनन्द की अनुभूति आज तक किसी को भी नहीं हो सकी है।
नीरसता क्या है? निष्क्रियता, उद्विग्नता क्या है? अनर्थ में अभिरुचि। हमारे जन्मजात आनन्द अधिकार को इन दो ने ही छीना है। जीवन नीरस लगता है क्योंकि सत्प्रयोजन की दिशा में हम निष्क्रिय बने रहते हैं। हम उद्विग्न रहते हैं क्योंकि अकर्म और कुकर्म करके आत्मा को चिढ़ाते और बदले में चपत खाते हैं। यदि आनन्द अभीष्ट हो− तो निरानन्द की दिशा में चल रही अपनी दिग्भ्रांत यात्रा का क्रम बदलना पड़ेगा। एक क्षण के लिए रुकें और देखें कि जो चाहते हैं उसे पाने की दिशा और चेष्टा सही भी है कि नहीं। चिन्तन के फलस्वरूप आनन्द की प्राप्ति का जो माहात्म्य बताया गया है उसका आधार यही है कि वस्तु स्थिति को नये सिरे से समझें और जीवन−नीति का नये सिरे से निर्धारण करें।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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