🔷 क्रोध शक्ति की कमी का परिचायक है। मानसिक शक्ति की कमी हो जाने पर क्रोध का वेग विवेक से रुकता नहीं। जब क्रोध आता है तब विवेक दूर भाग जाता है जैसे कि उन्मत्त हाथी जब जंजीर तोड़ लेता है, तो महावत दूर भाग जाता है। क्रोध के द्वारा मानसिक शक्ति का ह्रास भी होता है। कारण और कार्य एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। मानसिक शक्ति की कमी से क्रोध आता है और क्रोध से मानसिक शक्ति की कमी भी होती है। साधारणतया क्रोध दूसरे पर प्रकाशित होता है। उसका लक्ष्य दूसरों की हानि करना होता है।
🔶 जब वह अपने लक्ष्य में सफल होता है, तो मानसिक शक्ति के ह्रास का शीघ्र पता नहीं चलता किन्तु जिस समय वह अपने लक्ष्य में सफल नहीं होता, वह अपने प्रति ही झीखने लगता है। इस स्थिति में मनुष्य अपने आप को कोसने लगता है। अपनी कमजोरी को बड़ी तीव्रता से अनुभूति करने लगता है। यह अनुभूति आत्म निर्देश बन जाती है जिसके कारण मनुष्य वास्तव में कमजोर और निराशावादी बन जाता है।
🔷 क्रोध का आवेश एक बार आने पर साधारण चतुराई के विचारों से वह नियन्त्रित नहीं होता। क्रोध की अवस्था में मनुष्य विक्षिप्त मन हो जाता है, उसकी चतुराई उसके काम नहीं आती। चतुराई साँसारिक दृष्टि का नाम है। क्रोध इससे अधिक प्रबल होता है। क्रोध के रोकने के लिये विशेष दृष्टि की आवश्यकता है। क्रोध उसके रोकने अथवा निराकरण के पूर्व अभ्यास से रुकता है। क्रोध का निराकरण विरक्ति और प्रेम से होता है। यदि संसार के प्रति अमोह का व्यवहार तथा उसके प्राणियों के प्रति मैत्री भावना का अभ्यास मनुष्य ने पहले किया है तो वह अभ्यास क्रोध आने की अवस्था में उसे अविवेकयुक्त काम करने से रोक देता है।
📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 6
🔶 जब वह अपने लक्ष्य में सफल होता है, तो मानसिक शक्ति के ह्रास का शीघ्र पता नहीं चलता किन्तु जिस समय वह अपने लक्ष्य में सफल नहीं होता, वह अपने प्रति ही झीखने लगता है। इस स्थिति में मनुष्य अपने आप को कोसने लगता है। अपनी कमजोरी को बड़ी तीव्रता से अनुभूति करने लगता है। यह अनुभूति आत्म निर्देश बन जाती है जिसके कारण मनुष्य वास्तव में कमजोर और निराशावादी बन जाता है।
🔷 क्रोध का आवेश एक बार आने पर साधारण चतुराई के विचारों से वह नियन्त्रित नहीं होता। क्रोध की अवस्था में मनुष्य विक्षिप्त मन हो जाता है, उसकी चतुराई उसके काम नहीं आती। चतुराई साँसारिक दृष्टि का नाम है। क्रोध इससे अधिक प्रबल होता है। क्रोध के रोकने के लिये विशेष दृष्टि की आवश्यकता है। क्रोध उसके रोकने अथवा निराकरण के पूर्व अभ्यास से रुकता है। क्रोध का निराकरण विरक्ति और प्रेम से होता है। यदि संसार के प्रति अमोह का व्यवहार तथा उसके प्राणियों के प्रति मैत्री भावना का अभ्यास मनुष्य ने पहले किया है तो वह अभ्यास क्रोध आने की अवस्था में उसे अविवेकयुक्त काम करने से रोक देता है।
📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 6