मंगलवार, 7 सितंबर 2021

👉 सच्चे शौर्य और सत्साहस की कसौटी (अंतिम भाग)

अनीति को मिटाने के लिए-अनाचार से जूझने के लिए-कोई शूरवीर ही खड़ा हो सकता है। असुरता- अवाँछनीय मार्ग पर चलकर आक्रमणकारी साधनों से सम्पन्न हो जाती है। उसके प्रहार बड़े क्रूर होते हैं। वह किसी पर भी- किसी भी बहाने कितना ही बड़ा अत्याचार कर सकती है। उससे सर्वत्र भय और आतंक छाया रहता है। जो विरोध के लिये उठता है वही पिसता है। ऐसे समय में अग्रणी बनकर अनाचार का प्रतिरोध करना सहज नहीं होता। उसके लिए सच्चा साहस चाहिए। आत्म रक्षा और आक्रमण के समुचित साधन पास में रहने पर लड़ सकना सरल है क्योंकि उसमें सुरक्षा और विजय की आशा बनी रहती है। पर जहाँ अपने साधन स्वल्प और विरोधी अति समर्थ हों, वहाँ तो संकट ही संकट सामने रहता है। इन विभीषिकाओं के बीच भी जो साहसपूर्वक आगे बढ़ सकता है। अनीति की चुनौती स्वीकार कर सकता है, उसे वीरता की कसौटी पर सही उतरा समझना चाहिए।

भारत के हजार वर्ष लम्बे स्वतंत्रता संग्राम में अगणित शूरवीरों ने अपने प्राण दिये। वे विजयी नहीं हुए- पराजित रहे पर उनकी वीरता को विजयी ही माना जाता- और कोई कोई विजेताओं पर निछावर किया जाता रहेगा। रावण की असुर सेना से लड़ने की हिम्मत जिन रीछ, वानरों ने दिखाई उन्हें संसार के अग्रगामी योद्धाओं की पंक्ति में रखते हुए अनन्त काल तक अभिनंदनीय माना जायेगा। प्रहलाद की तरह जिन्होंने सत्य को सर्वोत्तम शस्त्र माना उन्हीं की वीरता खरी है।

योद्धा का काम मात्र लड़ना-तोड़ना-बिगाड़ना ही नहीं, निर्माण करना भी है। तोड़ना सरल है बनाना कठिन है। एक लोहे की कील से किसी के प्राण लिये जा सकते हैं पर एक सुविकसित और सुसंस्कृत मनुष्य का निर्माण करना कठिन है। किसी बड़ी इमारत को थोड़े समय में स्वल्प प्रयत्नों से गिराया जा सकता है पर उसका निर्माण करने के साधन जुटाना कठिन है। कपास के गोदाम को एक दियासलाई जला सकती है पर उतनी कपास उगाने के लिए कितना श्रम और कितने साधन की आवश्यकता पड़ेगी ? किसी को कुमार्ग पर लटका देना सरल है पर कुमार्गगामी को सन्मार्ग की ओर उन्मुख करना कठिन है। पानी ऊपर से नीचे की ओर सहज ही बहता है पर नीचे से ऊपर चढ़ाने के लिए कितने साधन जुटाने पड़ते हैं। ध्वंस में नहीं सृजन में मनुष्य का शौर्य परखा जाता है।

उत्कर्ष के अभियान में जिसका जितना बड़ा योगदान है उसे उतना ही बड़ा बहादुर माना जायेगा। लड़ाई, क्रोध और आवेश में लड़ी जा सकती है। उत्तेजना तो नशे से भी पैदा हो सकती है। किसी का अहंकार भड़काकर अथवा विजय के बड़े लाभ का प्रलोभन देकर किसी को लड़ने के लिये आसानी से तैयार किया जा सकता है। पर सृजन के लिए बड़ी सूझ-बूझ की, सन्तुलित एवं निष्ठा सम्पन्न परिपक्व मनोभूमि की जरूरत पड़ती है। उस महत्ता की पौध पहले भीतर उगानी पड़ती है और जब वह जम जाती है तब उसे कार्यक्षेत्र में आरोपित किया जाता है। ऐसी निष्ठा शूरवीर में ही पाई जाती है। मित्रों के बीच विग्रह पैदा कर देना किसी भी धूर्त, चुगलखोर या षड्यंत्रकारी के लिए बाएं हाथ का खेल हो सकता है, पर शत्रुता मित्रता में परिणत कर देना किसी शालीन सज्जन और विवेकवान के लिए ही सम्भव हो सकता है।

बहादुर वह है जिसने अपनी अहन्ता, स्वार्थपरता और संकीर्णता पर विजय प्राप्त कर ली। जिसने संकीर्णता के सीमित दायरे को तोड़कर विशालता को वरण कर लिया। अपने ऊपर विजय प्राप्त करना विश्व विजय से बढ़कर है। जो वासना और तृष्णा की कीचड़ से निकल कर आदर्शवादिता और उत्कृष्टता की गतिविधि अपनाने में सफल हो गया उसे दिग्विजय का श्रेय दिया जायेगा जो अपने ऊपर शासन कर सकता है वह चक्रवर्ती शासक से बढ़कर है और जिसने नीति का समर्थन- अनीति का विरोध करने में कुछ भी कष्ट सहने का संकल्प कर लिया उसे शूरवीरों का शिरोमणि कहा जायेगा। ऐसे शूरवीरों का यश गान करते हुए ही इतिहास अपने को धन्य बनाता रहा है।

✍🏻 पं श्री राम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1972 पृष्ठ ३१

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६०)

हम विश्वात्मा के घटक

पृथ्वी का मात्र सूर्य से अथवा अपने ही उपग्रह चन्द्र से ही अन्तर्सम्बन्ध नहीं है। प्रोफेसर ब्राउन ने मंगल, शुक्र, बृहस्पति आदि ग्रहों का अध्ययन कर यह सिद्ध किया है कि इनकी गतियों और स्थितियों के परिवर्तन से पृथ्वी भी प्रभावित होती है। ये सभी सूर्य सन्तति ही तो हैं और जुड़वां बच्चों वाला सिद्धान्त यहां भी घटित होता है, तो आश्चर्य ही क्या?
रूसी वैज्ञानिक चीजेवस्की ने 1920 में ही यह सिद्ध कर दिया था कि सूर्य पर प्रति ग्यारहवें वर्ष होने वाले आणविक विस्फोट से पृथ्वी पर युद्ध एवं क्रान्तियों का उद्भव-विकास होता है। उनका कहना था कि पृथ्वी पर घटित होने वाले प्रत्येक प्रमुख परिवर्तन का सम्बन्ध सूर्य से होता है।

ऐसे ही निष्कर्षों के विस्तृत अध्ययन व इस दिशा में व्यापक अनुसन्धान प्रयासों के लिए 1950 में वैज्ञानिक जियोजारजी गिआर्डी ने ब्रह्माण्ड रसायन को जन्म दिया। गिआर्डी के अनुसार समूचा ब्रह्माण्ड एक शरीर है और इसके सभी अंग इससे सम्पूर्णतः एकात्म हैं। इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक नक्षत्र पिण्ड फिर वह कितनी भी दूरी पर क्यों न हो पृथ्वी के जीवन को प्रभावित करता है।

भारत में इसी तत्वदर्शन के अनुरूप अतीत में ज्योतिर्विज्ञान का विकास हुआ था। आर्यभट्ट का ज्योतिष सिद्धान्त, कालक्रिया पाद, गोलपाद, और सूर्य सिद्धान्त, फिर नारदेव, ब्रह्मगुप्त आदि द्वारा उन सिद्धान्तों का संशोधन-परिवर्धन, भाष्कराचार्य का महाभाष्करीय आदि ग्रन्थ उस महत् प्रयास के कुछ सुलभ अवशिष्ट परिणाम हैं। बाद में इस विशुद्ध विज्ञान का जो दुरुपयोग हुआ, उसे जातीय-जीवन क्रम के ह्रास-काल की अराजकता समझते हुए उसके मूल सिद्धान्त सूत्रों तथा संकेतों के आधार पर इस दिशा में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

भारतीय तत्व मनीषी हजारों वर्ष पूर्व इस तथ्य से परिचित थे कि जड़ता वस्तुतः कहीं है नहीं। वह हमारी स्थूल दृष्टि की ‘एपियरेन्स’ या आभास मात्र है। यथार्थतः सर्वत्र आत्मचेतना ही विद्यमान है। यह सर्वव्यापी चैतन्यसत्ता ही विश्वात्मा है। विश्वात्मा के साथ आत्मा की जितनी समीपता घनिष्ठता होती है उसी अनुपात से उसे विशिष्ट अनुदान प्राप्त होते हैं।
भारतीय मनीषियों की मान्यता है कि सृष्टि के आरम्भ में एक मूल द्रव्य हिरण्यगर्भ था। उसी के विस्फोट से आकाश गंगायें विनिर्मित हुईं। इस विस्फोट की तेजी कुछ तो धीमी हुई है पर अभी भी उस छिटकाव की चाल बहुत तीव्र है। अनन्त आकाश में यों आकाश गंगाएं अपनी अपनी दिशा में द्रुतगति से दौड़ती जा रही हैं। इस संदर्भ में अपनी आकाश गंगा की चाल 24,300 मील प्रति सैकिंड नापी गयी है।

यह विश्व अनन्त है और उसके सम्बन्ध में जानकारियां प्राप्त करने का क्षेत्र भी असीम है। इस असीम और अनन्त की खोज के लिए बिना निराश हुए मनुष्य की असीमता किस उत्साह के साथ अग्रगामी हो रही है यह देख कर विश्वास होता है कि मानवी महत्ता अद्भुत है और यदि वह सही राह पर चले तो न केवल प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करने में वरन् उन्हें करतलगत करने में भी समर्थ हो सकती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ९६
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६०)

कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ है भक्ति

नारद के इस कथन पर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ कहने लगे- ‘‘जब मैं महर्षि मतंग के आश्रम में पहुँचा था, तब वह शबरकन्या मुझे प्रणाम करने आयी थी। वह कितनी भोली, सरल, निश्छल व निर्दोष थी यह उससे मिलकर ही जाना जा सकता था। भक्ति का साकार विग्रह थी वह। महर्षि मतंग ने मुझे उसके बारे में बताया- यह एक वनवासी शबर की कन्या है। इसके पिता अपने कबीले के सरदार हैं। यह कन्या बचपन से ही सरल सात्त्विक थी। वनवासियों की प्रथा के मुताबिक इसकी शादी शीघ्र ही तय होगी। प्रथा के मुताबिक उसके विवाह में अनेकों पशुओं की बलि दी जानी थी। अनेकों पशुओं को मारकर उनके मांस के भोज्य पदार्थ बनने थे।
    
मेरे कारण इतने निर्दोष पशु मारे जाएँगे, यह सोचकर यह शबर कन्या घर से भाग आयी और मेरे आश्रम के पास आकर रहने लगी। यहाँ रहते हुए यह नित्य प्रति आश्रम से सरोवर तक का मार्ग साफ करती। चुपचाप आश्रम में आकर समिधा के लिए लकड़ी रख जाती। एक दिन प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में सरोवर जाते समय मैंने इसे मार्ग बुहारते हुए देखा। मेरे पुकारने पर वह भय से सहमकर मेरे पास खड़ी हो गयी और बहुत आग्रह करने पर उसने मुझे अपनी आपबीती सुनायी। उसकी बातें सुनकर मैं इसे अपने साथ आश्रम ले आया। अब वह मेरी पुत्री भी है और शिष्या भी।’’
    
इतना कहकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ रुक गए। काफी देर चुप रहकर वह शून्य की ओर ताकते रहे फिर बोले- ‘‘आगे की कथा मुझे वत्स लक्ष्मण ने सुनायी थी। इस बीच कई घटनाएँ घट चुकी थीं और महर्षि मतंग ने शरीर छोड़ दिया था। शरीर छोड़ते समय उन्होंने शबरी से कहा था कि तुम्हें यहीं रहकर भगवान् को पुकारना है, वे स्वयं चलकर तुम्हारे पास आएँगे। महर्षि मतंग के जाने के बाद, वहाँ पास रहने वाले लोगों ने उसे बहुत सताया। इनमें से कई ऐसे भी थे, जो स्वयं को ज्ञानी, योगी और कर्मकुशल कहते थे परन्तु शबरी अविचल भाव से अपने राम को पुकारती रही। वह नियमित उनके लिए मार्ग बुहारती, उनके लिए मीठे फल लाती। उसकी पुकार गहरी होती गयी।
    
और एक दिन वत्स रामभद्र के रूप में भगवान् साकार रूप धर कर अपनी इस प्रिय भक्त को खोजने चल दिए। शबरी की पुकार, उसके आँसू, उसका रुदन उसकी साधना बन गया। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, मेरे वत्स रामभद्र, वत्स लक्ष्मण के साथ पहुँच गए- अपनी इस प्रिय भक्त के पास। वत्स लक्ष्मण ने मुझे बताया कि भ्राता राम उसके पास जाते समय कितने भावविह्वल थे, इसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता। वह विकल और व्याकुल थे- भक्त शबरी को मिलने के लिए। उन्होंने शबरी के आश्रम जाकर उसके झूठे बेर खाये। अपने को ज्ञानी, योगी एवं कर्म-परायण कहने वालों की ओर उन्होंने देखा भी नहीं। जबकि शबरी उन्हीं के सामने समाधि लीन हुई। उसका अन्तिम संस्कार भी स्वयं उन्होंने किया। अपने मुख से श्रीराम ने अनेकों बार उसकी महिमा गायी। और यह प्रमाणित कर दिया कि भक्ति ज्ञान से, कर्मयोग से और योगसिद्धि से श्रेष्ठतर है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १०७

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