सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ४

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को  सजीव बनाइये      

आप चाहते हैं कि हमारे चारों ओर प्रिय ही प्रिय तत्त्व जमा रहें तो इसका एक ही उपाय है कि आत्मभाव को उन सबसे संबंधित कर दें। सोए हुए निष्क्रिय तत्त्वों के रहते हुए भी अंधकार बना रहता है पर जैसे ही बिजली की धारा उन बल्वों तक पहुँची, वैसे ही वे क्षण भर में दीप्तमान हो उठते हैं और अपने प्रकाश से निकटवर्ती स्थानों को जगमगा देते हैं। अपने निकटवर्ती लोगों पर यदि आप आत्मीयता की भावनाएँ आरोपित कर दें तो वे सब आपको प्रिय, आनंददायक, मनोहर और प्रसन्नता बढ़ाने वाले प्रतीत होने लगेंगे। जो लोग अल्पज्ञ और अपराधी हैं वे भी कपड़ों पर मल-मूत्र त्याग देने वाले अपने बालक के समान आनंदप्रद ही लगेंगे। क्रोध, चिडचिडाहट, द्वेष, घृणा की जो अग्नि शिखाएँ दिन- रात मन में जलती रहती हैं और खून सुखाती रहती हैं वे अनायास ही शांत हो जावेंगी।

प्रिय वस्तुओं का चारों ओर एकत्रित रहना यही तो स्वर्ग है। स्वर्ग की बडी महिमा गाई गई है, कथा-पुराणों में उसका बहुत विस्तृत वर्णन मिलता है, उस सारे वर्णन का सार यह है कि यहाँ सब प्रिय ही वस्तुएँ हैं, जैसे स्थानों में रहना चाहते हैं वह सब वहाँ मौजूद हैं। ऐसा स्वर्ग आप स्वयं बना सकते हैं, इसी जीवन में उसका आनंद लूट सकते हैं, दूर जाने की जरूरत नहीं, जिस स्थान पर रह रहे हैं, वहीं उसकी रचना हो सकती है, क्या आप सचमुच ऐसा चाहते हैं? क्या अपनी ओंखों से इस जीवन में ही उस स्वर्ग की झाँकी करने के लिए सचमुच उत्सुक हैं? यदि हैं तो सच्चे हृदय से तैयार हो जाइए। अपने आत्मभाव को संकुचित मत रखिए वरन उसे निकटवर्ती लोगों के ऊपर बिना भेद-भाव के बिखेर दीजिए। धारा का स्पर्श करते ही अचेतन पडे हुए बल्व जगमगाने हैं, आपके आत्मभाव का स्पर्श होते ही समस्त संबंधित जन प्रेम पात्र बन जाएँगे, प्रिय लगने लगेंगे, उन प्रियजनों के बीच रहकर आप स्वर्ग जैसा आनंद अनुभव करेंगे।

संबंधित लोगों को अपना समझिए उनमें अपनापन रखिए। इस प्रकार उनमें यदि कुछ दोष भी होंगे तो वे प्रिय रूप में दृष्टिगोचर होंगे। अपनों के लिए स्वभावत: उनके दोषों को छिपाने और गुणों को प्रकट करने की वृत्ति रहती है, अपने प्यारे पुत्र के दोषों को कौन पिता प्रकट. करता है? वह तो उसकी प्रशंसा के ही पुल बाँधता रहता है। दुर्गुणी बालक को कोई न तो मार डालता है और न ही जेल पहुँचा देता है वरन सारी शक्तियों के साथ यह प्रयत्न किया जाता है कि किसी सरल उपाय से उसके दुर्गुण दूर हो जाएँ या कम हो जाएँ। यदि ऐसी ही वृत्ति अपने परिजनों के साथ रखें तो उनके अंदर जो बुरे तत्त्व विद्यमान हैं, वे घट जाएँगे, कम-से-कम आपके लिए वे निस्तेज हो ही जाएँगे। डाकू, हत्यारे, ठग, व्यभिचारी आदि लोग भी अपने सी, पुत्र, भाई, बहिन आदि के साथ अपने स्वभावों का उपयोग नहीं करते, सिंह अपने बाल-बच्चों को नहीं फाड़ खाता, इसी प्रकार जिनके प्रति आप आत्मभाव रखते हैं वे भी कम से कम आपके लिए तो दुखदायी न रहेंगे। महात्मा इमरसन कहा करते थे कि ' यदि मुझे नरक में रखा जाए तो मैं अपने सद्गुणों के कारण वहाँ भी स्वर्ग बना लूँगा। आप में यदि विवेक हो वे कुटुंबी, जिनके साथ आपका दिन-रात कलह होता है, आसानी से प्रेम पात्र बन सकते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ६

👉 भक्तिगाथा (भाग १०७)

एक शून्य निवेदन है भक्ति

महर्षि कहोड़ के स्वर सभी के हृदयसरोवर में भाव बनकर थिरक रहे थे, लेकिन फिर भी स्थिरता थी। भावउर्मियों के इन तीव्र स्पन्दनों के बावजूद सब ओर बाहर-भीतर निःस्पन्दता थी। स्वरों के रव में नीरव संव्याप्त हो रहा था। एक अद्भुत समां था। भक्ति का अनुभवरस बरस रहा था और सब लोग उसमें सब तरफ से भीग रहे थे। ऋषि कहोड़ कह रहे थे- ‘‘भक्त का न तो कोई कर्त्तृत्व होता है और न कोई व्यक्तित्व। भक्त तो बस मौन है, एक शून्य निवेदन है।’’ महर्षि के इस कथन के साथ पूर्व दिशा की लालिमा सघन होकर सूर्योदय में परिवर्तित होने लगी थी। आज का भक्तिसंगम ब्रह्मबेला में की जाने वाली गायत्री उपासना के बाद तत्काल प्रारम्भ हो गया था।
शास्त्र कहते हैं- प्रातः सन्ध्या का विधान-

उत्तमा तारकोयेता मध्यमा लुप्ततारका।
कनिष्ठा सूर्य सहिता प्रातः संध्या त्रिधा स्मृता॥१॥

प्रातःकाल की उत्तम संध्या का समय तब है, जब आकाश में तारागण हों, जबकि तारागणों के लुप्त हो जाने पर इस समय को प्रातः संध्या के लिए मध्यम माना जाता है। यदि आकाश में सूर्यदेव उदित हो जायें तो यह समय प्रातः संध्या के लिए कनिष्ठ कहा जाता है।

इस समागम में प्रायः सभी शास्त्रों का सम्यक अनुसरण करने वाले ही नहीं बल्कि शास्त्रमर्मज्ञ और शास्त्रों के रचयिता भी थे। सो ऐसे में भला किससे और कहाँ शास्त्रों की उपेक्षा व अवहेलना होती। सभी ने प्रातःकाल की संध्या इसके लिए निर्धारित सर्वोत्तम समय पर कर ली थी। इसके तुरन्त बाद आज का भक्तिसमागम प्रारम्भ हो गया था। सभी महर्षि कहोड़ के अनुभव अमृत में भीग रहे थे। इस अनुभव अमृत की सुगन्धि कुछ ऐसी दिव्य थी कि इससे आज का सूर्योदय भी सुवासित हो गया। सूर्योदय के इन क्षणों में सभी ने पक्षियों के मनोहारी कलरव संगीत के साथ गायत्री महामन्त्र का सस्वर उच्चारण करते हुए भगवान् भुवन भास्कर का नमन-अभिनन्दन किया।

इस नमन में भक्ति की सम्पूर्ण झलक थी। वैसे भी ऋषि कहोड़ की गायत्रीभक्ति अनूठी थी। उनकी सम्पूर्ण चेतना गायत्रीमय थी। महर्षि अपने कथन की कड़ियों को जोड़ते हुए कह रहे थे कि ‘‘भक्ति के अनुभव की सघनता व सम्पूर्णता अतिविरल है। यदि जीवन में यह किसी तरह से आ भी जाय तो इसे कहना बताना सम्भव नहीं हो पाता।’’ इतना कहकर वे बोले-

शून्य नहीं होता परिभाषित
रहता मात्र नयन में
मन्वंतर, संवत्सर, वत्सर
कब बंधते लघु क्षण में
रहते सभी अनाम न कोई
कभी पुकारा जाता
रह जाती अभिव्यक्ति अधूरी
जीवन शिशु तुतलाता।

भक्ति की भावनाओं में असीम-अनन्त परमात्मा की सचेतन संवेदनाएँ लहराती हैं। इस अनन्त-असीम को भला सामान्य बुद्धि-मन-वाणी कैसे कहे? लेकिन यदा-कदा अपवाद भी घटित होते हैं। कहीं किसी विरले भक्त की भक्ति से परमेश्वर प्रकट होने लगता है। ऋषि कहोड़ के इस कथन ने देवर्षि नारद को थोड़ा सचेष्ट-सचेत किया और किञ्चित चौंकाया भी। और अनायास उनके मुख से एक सूत्र स्वरित हुआ-

‘प्रकाशते क्वापि पात्रे’॥ ५३॥
किसी विरले योग्य पात्र में ऐसा प्रेम प्रकट भी होता है।

देवर्षि के मुख से अनायास निकले इस सूत्र ने ऋषि कहोड़ को पुलकित कर दिया। उन्होंने बड़े स्नेहिल नेत्रों से नारद की ओर देखा और कहा- ‘‘ऋषि नारद भक्तिमर्मज्ञ हैं। उनका कथन सर्वथा सत्य है। कभी-कभी कोई सौभाग्यशाली ऐसा महापात्र होता है कि उसमें परमात्मा प्रकाशित होता है लेकिन जरा यह भेद तनिक समझने योग्य है। अभिव्यक्त नहीं प्रकाशित। किसी विरले भक्त में भक्ति इतनी बह उठती है कि उनके पात्र के ऊपर से बहने लगता है परमात्मा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१३

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...