सोमवार, 10 दिसंबर 2018

👉 आत्मचिंतन के क्षण 10 Dec 2018

 मनुष्यों पर ऋषियों का भी ऋण है। ऋषि का अर्थ है-वेद। वेद अर्थात् ज्ञान। आज तक जो हमारा विकास हुआ है, उसका श्रेय ज्ञान को है-ऋषियों को है। जिस तरह हम ज्ञान दूसरों से ग्रहण कर विकसित हुए हैं, उसी तरह अपने ज्ञान का लाभ औरों को भी देना चाहिए। यह हर विचारशील व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह समाज के विकास में अपने ज्ञान का जितना अंशदान कर सकता हो, अवश्य करे। 

बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, युद्ध आदि दैवी प्रकोपों को मानव जाति के सामूहिक पापों का परिणाम माना गया है। निर्दोष व्यक्ति भी गेहूँ के साथ घुन की तरह पिसते हैं। वस्तुतः वे भी निर्दोष नहीं होते। सामूहिक दोषों को हटाने का प्रयत्न न करना, उनकी ओर उपेक्षा दृष्टि रखना भी एक पाप है। इस दृष्टि से निर्दोष दीखने वाले व्यक्ति भी दोषी सिद्ध होते हैं और उन्हें सामूहिक दण्ड का भागी बनना पड़ता है।
 

 समाज में हो रही बुराइयों को रोकने के लिए ईश्वर ने सामूहिक जिम्मेदारी हर व्यक्ति को सौंपी है। उसका कर्त्तव्य है कि अनीति जहाँ कहीं भी हो रही है, उसे रोके, घटाने का प्रयत्न करे, विरोध करे, असहयोग बरते। जो भी तरीका उसको अनुकूल जँचे उसे अपनाये, पर कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि उस बुराई में अपना सहयोग प्रत्यक्ष और परोक्ष किसी भी रूप में न हो।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 कायर नहीं कहाऊँगा (Kavita)

भारत माँ का सुत हूँ मैं तो, निज कर्तव्य निभाऊँगा,
चाहे प्राण भले ही जायें, कायर नहीं कहाऊँगा॥

इस जीवन के दीर्घ पथों पर जब चौराहें आते हैं।
लक्ष्य हीन नर मार्ग भ्रमित हो भटक भटक मर जाते हैं॥

भ्राँति दूर कर पथ शूलों को फूल समझ मुसकाऊँगा।
चाहे प्राण भले ही जायें कायर नहीं कहाऊँगा॥

चौराहे पर सही दिशा ले जो आगे बढ़ जाते हैं।
हर उलझन को सुलझा कर वे अविरत बढ़ते जाते हैं॥

जीवन के सब संघर्षों में नित ही भिड़ता जाऊँगा।
चाहे प्राण भले ही जायें निज कर्तव्य निभाऊँगा॥

भरतपुत्र हूँ शेर खिलाता हुलसित होकर आँगन में।
सीने पर हूँ खड्ग झेलता पुलकित होकर के मन में॥

भारत माँ के चरणों में निज जीवन सुमन चढ़ाऊँगा॥
चाहे प्राण भले ही जायें, कायर नहीं कहाऊँगा॥

ज्वलित ज्योति उर देश प्रेम की, भरित शौर्य सुषमा तनमें।
बल पौरुष पीयूष छलकता नव चेतन मय यौवन में॥

दानवता के दलन हेतु शिव प्रलयंकर बन जाऊँगा।
चाहे प्राण भले ही जायें निज कर्तव्य निभाऊँगा॥

मैं न भार हूँ भारत भू पर, हार सुशोभित जननी का।
देता हार सदा दुश्मन को, मातृ भाल का जय टीका॥

नवलसृजन पथ से भारत को श्रेय शिखर पहुँचाऊँगा।
चाहे प्राण भले ही जायें, कायर नहीं कहाऊँगा॥

पहले अपनी सेवा और सहायता करो

इस संसार में अनेक प्रकार के पुण्य और परमार्थ हैं। शास्त्रों में नाना प्रकार के धर्म अनुष्ठानों का सविस्तार विधि विधान है और उनके सुविस्तृत महात्म्यों का वर्णन है। दूसरों की सेवा सहायता करना पुण्य कार्य है, इससे कीर्ति आत्म संतोष तथा सद्गति की प्राप्ति होती है।

पर इन सबसे बढ़ कर भी एक पुण्य परमार्थ है और वह है-आत्म निर्माण। अपने दुर्गुणों को, कुविचारों को, कुसंस्कारों को, ईर्ष्या, तृष्णा, क्रोध, डाह, क्षोभ, चिन्ता, भय एवं वासनाओं को विवेक की सहायता से आत्मज्ञान की अग्नि में जला देना इतना बड़ा यज्ञ है जिसकी तुलना सशस्त्र अश्वमेधों से नहीं हो सकती।

अपने अज्ञान को दूर करके मन मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाना भगवान की सच्ची पूजा है। अपनी मानसिक तुच्छता, दीनता, हीनता, दासता, को हटाकर निर्भयता, सत्यता, पवित्रता एवं प्रसन्नता की आत्मिक प्रवृत्तियाँ बढ़ाना करोड़ मन सोना दान करने की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।

हर मनुष्य अपना-अपना आत्म निर्माण करे तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है। फिर मनुष्यों को स्वर्ग जाने की इच्छा करने की नहीं, वरन् देवताओं के पृथ्वी पर आने की आवश्यकता अनुभव होगी। दूसरों की सेवा सहायता करना पुण्य है, पर अपनी सेवा सहायता करना इससे भी बड़ा पुण्य है। अपनी शारीरिक मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक स्थिति को ऊँचा उठाना, अपने को एक आदर्श नागरिक बनाना इतना बड़ा धर्म कार्य है जिसकी तुलना अन्य किसी भी पुण्य परमार्थ से नहीं हो सकती।

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