🔷 हमें जिस महान् परम्परा का उत्तराधिकार मिला है, वह ऐसा ही है, जिसमें तृष्णा-वासना की पूर्ति जैसा कुछ नहीं है। श्रम और झंझट बहुत है, फिर भी गम्भीरतापूर्वक देखने से यह प्रतीत होता है कि जो लोग सारी जिन्दगी धन तथा भोग के लिए पिसते-पिलते रहने के पश्चात जो पाते हैं, उससे हमारी उपलब्धियाँ किसी प्रकार कम नहीं। ठीक है, अमीरों जैसे ठाठ नहीं बन सके, पर जो कुछ मिल सका है, वह उतना बड़ा है कि उस पर पहाड़ों जैसी अमीरी न्यौछावर की जा सकती है। सामान्य बुद्धि इस उपलब्धि का मूल्याँकन नहीं कर पाती, पर जो थोड़ी गम्भीरता से समझ और देख सकता है, वह यह विश्वास करेगा ही कि अमीरी की तुलना में यह आध्यात्मिक उपलब्धियाँ भी कम महत्व की, कम मूल्य की नहीं हैं।
🔶 हमने जो पाया है, वही हम अपने उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ जाना चाहते हैं। हमें भी इसी परम्परा के अनुसार कुछ मिला है। हर पुत्र को पिता की सम्पत्ति में हिस्सा मिलता है। जो हमारे निकटतम आत्मीय होंगे, उन्हें हमारी संयमित पूँजी का भी लाभ मिलना चाहिए, मिलेगा भी। गाँधी की संग्रहित पूँजी का बिनोवा, नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद आदि अनेकों ने भरपूर लाभ उठाया। यदि वे लोग गाँधी जी के संपर्क से दूर रहते और अपने दूसरे चतुर लोगों की तरह भौतिक कमाई में जुटे रहते तो वह सब कहाँ से पाते, जो उन लोगों ने पाया। हम गाँधी तो नहीं, पर इतने निरर्थक, दरिद्र एवं खाली हाथ भी नहीं हैं कि जिनके निकट संपर्क में आने वाले को कुछ न मिले। यह खुला रहस्य है कि लाखों व्यक्ति साधारण संपर्क का लाभ उठाकर अपनी स्थिति में जादुई मोड़ दे सकने में सफल हुए हैं और इस संपर्क की सराहना करते हैं। भविष्य में जिन पर हमें अपना उत्तराधिकार सौंपना है, उन्हें वर्तमान स्थिति में ही पड़ा रहना पड़े, ऐसा नहीं हो सकता। वे सहज ही ऐसा कुछ पा सकेंगे, जिसके लिए चिर-काल तक प्रसन्नता एवं सन्तोष अनुभव करते रह सकें।
🔷 आध्यात्मिक महानता की, सत्पात्रता की कसौटी के सम्बन्ध में हम इस तथ्य को अनेकों बार प्रस्तुत कर चुके हैं कि व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव का उत्कृष्ट होना ही उसकी आन्तरिक महानता का परिचायक है। इसी आधार पर संसार में, इसी आधार पर परलोक में और इसी आधार ईश्वर के समक्ष किसी का वजन एवं मूल्य बढ़ता है। अपने दैनिक-जीवन में हम कितने संयमी, सदाचारी, शाँत, मधुर, व्यवस्थित, परिश्रमी, पवित्र, संतुलित, शिष्ट कृतज्ञ एवं उदार हैं, इन सद्गुणों का दैनिक-जीवन में कितना अधिक प्रयोग करते हैं, यह देख, समझकर ही किसी को, उसकी आन्तरिक वस्तु-स्थिति को जाना जा सकता है। जिसका दैनिक-जीवन फूहड़पनों से भरा हुआ है वह कितना ही जप, ध्यान, पाठ, स्नान करता हो, आध्यात्मिक स्तर की कसौटी पर ठूँठ या छूँछ ही समझा जायगा।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1966 पृष्ठ 46-47
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/May/v2.24
🔶 हमने जो पाया है, वही हम अपने उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ जाना चाहते हैं। हमें भी इसी परम्परा के अनुसार कुछ मिला है। हर पुत्र को पिता की सम्पत्ति में हिस्सा मिलता है। जो हमारे निकटतम आत्मीय होंगे, उन्हें हमारी संयमित पूँजी का भी लाभ मिलना चाहिए, मिलेगा भी। गाँधी की संग्रहित पूँजी का बिनोवा, नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद आदि अनेकों ने भरपूर लाभ उठाया। यदि वे लोग गाँधी जी के संपर्क से दूर रहते और अपने दूसरे चतुर लोगों की तरह भौतिक कमाई में जुटे रहते तो वह सब कहाँ से पाते, जो उन लोगों ने पाया। हम गाँधी तो नहीं, पर इतने निरर्थक, दरिद्र एवं खाली हाथ भी नहीं हैं कि जिनके निकट संपर्क में आने वाले को कुछ न मिले। यह खुला रहस्य है कि लाखों व्यक्ति साधारण संपर्क का लाभ उठाकर अपनी स्थिति में जादुई मोड़ दे सकने में सफल हुए हैं और इस संपर्क की सराहना करते हैं। भविष्य में जिन पर हमें अपना उत्तराधिकार सौंपना है, उन्हें वर्तमान स्थिति में ही पड़ा रहना पड़े, ऐसा नहीं हो सकता। वे सहज ही ऐसा कुछ पा सकेंगे, जिसके लिए चिर-काल तक प्रसन्नता एवं सन्तोष अनुभव करते रह सकें।
🔷 आध्यात्मिक महानता की, सत्पात्रता की कसौटी के सम्बन्ध में हम इस तथ्य को अनेकों बार प्रस्तुत कर चुके हैं कि व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव का उत्कृष्ट होना ही उसकी आन्तरिक महानता का परिचायक है। इसी आधार पर संसार में, इसी आधार पर परलोक में और इसी आधार ईश्वर के समक्ष किसी का वजन एवं मूल्य बढ़ता है। अपने दैनिक-जीवन में हम कितने संयमी, सदाचारी, शाँत, मधुर, व्यवस्थित, परिश्रमी, पवित्र, संतुलित, शिष्ट कृतज्ञ एवं उदार हैं, इन सद्गुणों का दैनिक-जीवन में कितना अधिक प्रयोग करते हैं, यह देख, समझकर ही किसी को, उसकी आन्तरिक वस्तु-स्थिति को जाना जा सकता है। जिसका दैनिक-जीवन फूहड़पनों से भरा हुआ है वह कितना ही जप, ध्यान, पाठ, स्नान करता हो, आध्यात्मिक स्तर की कसौटी पर ठूँठ या छूँछ ही समझा जायगा।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1966 पृष्ठ 46-47
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/May/v2.24