स्वाध्याय और मनन मानसिक परिष्कार के दो साधन
(भाग 1)
मन बैसाखी गधे की तरह है जिसे नहला धुला देने पर भी मलीनता प्रिय लगती है और दूसरे ही दिन धूलि में लौटकर फिर पहले जैसी गंदगी में लिपट जाता है। हाथी की आदत भी ऐसी ही होती है। नदी तालाब में बैठा स्वच्छ होता रहेगा पर जब बाहर निकलेगा तो सूँड़ में रेत भर कर सारे बदन पर डाल लेगा। न जाने गंदगी में इन्हें क्या मजा आता है?
मन की आदत भी ऐसी ही गंदी है। स्वाध्याय और सत्संग के सम्पर्क में आकर कुछ समय के लिए ऐसा सज्जन बन जाता है मानो सन्त हो। रामायण गीता सुनते समय आँखों में आँसू आते हैं। नरक की पीड़ायें जानकर पश्चाताप भी होता है और मृत्यु की जब याद दिलाई जाती है जब डर भी लगता है कि मौत के दिन समीप आ पहुँचे। जिंदगी बीत चली। अब बचे कूचे दिनों का तो सदुपयोग कर ले। पर यह ज्ञान देर तक नहीं ठहरता किसी मुर्दे की जलाने जाते हैं तब मरघट में श्मशान वैराग्य’ उठता है। काया नाशवान् होने की बात सूझती है और लगता है इस क्षणभंगुर जीवन के लिए क्या बुराइयाँ ओढ़नी क्या पाप करने। क्या अहंकार करना- किस बात पर इतराना। उस समय तो यही ज्ञान जंचता है पर घर आते आते वह वैराग्य न जाने कहाँ हवा में उड़ जाता है और उसी पुराने ढर्रे पर गाड़ी के पहिये लुढ़कने लगते हैं।
यही स्थिति सदा बनी रहे तो ज्ञान, परमार्थ की बात बेकार है। चिकने घड़े की तरह यदि श्रेष्ठता भीतर घुसे ही नहीं तो बाहर की लीपा-पोती से क्या काम चलेगा। ज्ञान की सार्थकता तो तब है जब उसका प्रभाव अन्तः करण पर पढ़े और जीवन की रीति- नीति बदले। ऐसा न हो सका तो पढ़ने सुनने के - पोथी के बेंगने भूख को कहाँ बुझाते हैं।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 43
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1973/January.43
(भाग 1)
मन बैसाखी गधे की तरह है जिसे नहला धुला देने पर भी मलीनता प्रिय लगती है और दूसरे ही दिन धूलि में लौटकर फिर पहले जैसी गंदगी में लिपट जाता है। हाथी की आदत भी ऐसी ही होती है। नदी तालाब में बैठा स्वच्छ होता रहेगा पर जब बाहर निकलेगा तो सूँड़ में रेत भर कर सारे बदन पर डाल लेगा। न जाने गंदगी में इन्हें क्या मजा आता है?
मन की आदत भी ऐसी ही गंदी है। स्वाध्याय और सत्संग के सम्पर्क में आकर कुछ समय के लिए ऐसा सज्जन बन जाता है मानो सन्त हो। रामायण गीता सुनते समय आँखों में आँसू आते हैं। नरक की पीड़ायें जानकर पश्चाताप भी होता है और मृत्यु की जब याद दिलाई जाती है जब डर भी लगता है कि मौत के दिन समीप आ पहुँचे। जिंदगी बीत चली। अब बचे कूचे दिनों का तो सदुपयोग कर ले। पर यह ज्ञान देर तक नहीं ठहरता किसी मुर्दे की जलाने जाते हैं तब मरघट में श्मशान वैराग्य’ उठता है। काया नाशवान् होने की बात सूझती है और लगता है इस क्षणभंगुर जीवन के लिए क्या बुराइयाँ ओढ़नी क्या पाप करने। क्या अहंकार करना- किस बात पर इतराना। उस समय तो यही ज्ञान जंचता है पर घर आते आते वह वैराग्य न जाने कहाँ हवा में उड़ जाता है और उसी पुराने ढर्रे पर गाड़ी के पहिये लुढ़कने लगते हैं।
यही स्थिति सदा बनी रहे तो ज्ञान, परमार्थ की बात बेकार है। चिकने घड़े की तरह यदि श्रेष्ठता भीतर घुसे ही नहीं तो बाहर की लीपा-पोती से क्या काम चलेगा। ज्ञान की सार्थकता तो तब है जब उसका प्रभाव अन्तः करण पर पढ़े और जीवन की रीति- नीति बदले। ऐसा न हो सका तो पढ़ने सुनने के - पोथी के बेंगने भूख को कहाँ बुझाते हैं।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 43
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1973/January.43