शनिवार, 19 मार्च 2016

स्वाध्याय और मनन मानसिक परिष्कार के दो साधन
(भाग 1)


मन बैसाखी गधे की तरह है जिसे नहला धुला देने पर भी मलीनता प्रिय लगती है और दूसरे ही दिन धूलि में लौटकर फिर पहले जैसी गंदगी में लिपट जाता है। हाथी की आदत भी ऐसी ही होती है। नदी तालाब में बैठा स्वच्छ होता रहेगा पर जब बाहर निकलेगा तो सूँड़ में रेत भर कर सारे बदन पर डाल लेगा। न जाने गंदगी में इन्हें क्या मजा आता है?

मन की आदत भी ऐसी ही गंदी है। स्वाध्याय और सत्संग के सम्पर्क में आकर कुछ समय के लिए ऐसा सज्जन बन जाता है मानो सन्त हो। रामायण गीता सुनते समय आँखों में आँसू आते हैं। नरक की पीड़ायें जानकर पश्चाताप भी होता है और मृत्यु की जब याद दिलाई जाती है जब डर भी लगता है कि मौत के दिन समीप आ पहुँचे। जिंदगी बीत चली। अब बचे कूचे दिनों का तो सदुपयोग कर ले। पर यह ज्ञान देर तक नहीं ठहरता किसी मुर्दे की जलाने जाते हैं तब मरघट में श्मशान वैराग्य’ उठता है। काया नाशवान् होने की बात सूझती है और लगता है इस क्षणभंगुर जीवन के लिए क्या बुराइयाँ ओढ़नी क्या पाप करने। क्या अहंकार करना- किस बात पर इतराना। उस समय तो यही ज्ञान जंचता है पर घर आते आते वह वैराग्य न जाने कहाँ हवा में उड़ जाता है और उसी पुराने ढर्रे पर गाड़ी के पहिये लुढ़कने लगते हैं।

यही स्थिति सदा बनी रहे तो ज्ञान, परमार्थ की बात बेकार है। चिकने घड़े की तरह यदि श्रेष्ठता भीतर घुसे ही नहीं तो बाहर की लीपा-पोती से क्या काम चलेगा। ज्ञान की सार्थकता तो तब है जब उसका प्रभाव अन्तः करण पर पढ़े और जीवन की रीति- नीति बदले। ऐसा न हो सका तो पढ़ने सुनने के - पोथी के बेंगने भूख को कहाँ बुझाते हैं।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 43
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1973/January.43
 जानकारी न होना



एक राजा वन भ्रमण के लिए गया। रास्ता भूल जाने पर भूख प्यास से पीड़ित वह एक वनवासी की झोपड़ी पर जा पहुँचा। वहाँ से आतिथ्य मिला जो जान बची।

चलते समय राजा ने उस वनवासी से कहा- हम इस राज्य के शासक हैं। तुम्हारी सज्जनता से प्रभावित होकर अमुख नगर का चन्दन बाग तुम्हें प्रदान करते हैं। उसके द्वारा जीवन आनन्दनमय बीतेगा।

वनवासी उस परवाने को लेकर नगर के अधिकारी के पास गया और बहुमूल्य चन्दन का उपवन उसे प्राप्त हो गया। चन्दन का क्या महत्व है और उससे किस प्रकार लाभ उठाया जा सकता है, उसकी जानकारी न होने से वनवासी चन्दन के वृक्ष काटकर उनका कोयला बनाकर शहर में बेचने लगा। इस प्रकार किसी तरह उसके गुजारे की व्यवस्था चलने लगी।

धीरे-धीरे सभी वृक्ष समाप्त हो गये। एक अन्तिम पेड़ बचा। वर्षा के कारण कोयला न बन सका तो उसने लकड़ी बेचने का निश्चय किया। लकड़ी का गठ्ठा जब बाजार में पहुँचा तो सुगन्ध से प्रभावित लोगों ने उसका भारी मूल्य चुकाया। आश्चर्यचकित वनवासी ने इसका कारण पूछा तो लोगों ने कहा- यह चन्दन काष्ठ है। बहुत मूल्यवान् है। यदि तुम्हारे पास ऐसी ही और लकड़ी हो तो उसका प्रचुर मूल्य प्राप्त कर सकते हो। वनवासी अपनी नासमझी पर पश्चाताप करने लगा कि उसे इतना बड़ा बहुमूल्य चन्दन वन कौड़ी मोल कोयले बनाकर बेच दिया।

पछताते हुए नासमझ को सान्त्वना देते हुए एक विचारशील व्यक्ति ने कहा-मित्र, पछताओ मत, यह सारी दुनिया, तुम्हारी ही तरह नासमझ है।

जीवन का एक-एक क्षण बहुमूल्य है पर लोग उसे वासना और तृष्णाओं के बदलें कौड़ी मोल में गँवाते रहते हैं। तुम्हारे पास जो एक वृक्ष बचा है उसी का सदुपयोग कर लो तो कम नहीं। बहुत गँवाकर भी कोई मनुष्य अन्त में सँभल जाता है तो वह भी बुद्धिमान ही माना जाता है।
मूर्ति पूजा का औचित्य
 

विदेशों में भारतीय संस्कृति की दिग्विजयी यात्रा से लौटने के बाद स्वामी विवेकानंद की कीर्ति भारत के कोने-कोने में फैल गई। उनको वक्तृत्व शैली और अध्यात्म के तर्क संगत प्रतिपादन से प्रभावित होकर काशी के तत्कालीन नरेश ने स्वागत के लिए आमंत्रित किया।

स्वामी जी अद्वैत-वेदांत के प्रकाण्ड पंडित थे। उनकी विचारधारा के संबंध में बात-चीत चली। नरेश मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे और स्वामी जी प्रबल समर्थक थे। अध्यात्म साधना की प्रथम कक्षा वे मूर्तिपूजा को ही मानते थे परंतु निर्गुणोंपासक और विभिन्न मतवादियों से भी उन्हें कोई विरोध नहीं था। अपने सिद्धांतों का वे प्रतिपादन अवश्य करते थे परन्तु दुराग्रह नहीं।

मूर्तिपूजा की चर्चा छेड़ते हुए काशी नरेश ने कहा- “अद्वैत वेदांत की विचारधारा से मूर्तिपूजा का मेल तो नहीं बैठता है फिर आप इसका समर्थन क्यों करते हैं।"

स्वामी जी ने कहा- परमात्मा शक्ति स्वरूप और शक्ति को कोई आकार नहीं दिया जा सकता है यह बात ठीक है परन्तु मैं खुदी मूर्तिपूजा को आत्म साधना का प्रथम सोपान समझता हूँ

‘आपके विचारों में ही विरोधाभास आपके अनुयायियों में कई भ्रान्तियाँ पैदा कर सकता है इसलिए किसी भी बात को केवल भावना के कारण ही स्वीकार नहीं करना चाहिए- काशी नरेश ने उपदेश दिया।

स्वामी जी बोले- मैंने मूर्ति पूजा में भावना नहीं तथ्य पाया है।’

‘भला इसमें क्या तथ्य। निर्गुण निराकार परमात्मा का कोई आकार कैसे निश्चित किया जा सकता है।’

‘ईश्वर का कोई आकार नहीं परन्तु साधना उपासना की सुगम पद्धति यही है कि मन को स्थिर करने के लिये ईश्वर की धारणा किसी मूर्ति रूप में की जाये।’

‘यह तो मिथ्या संतोष हुआ'- नरेश ने आशंका की-इसके माध्यम से आत्मोन्नति कैसे संभव होगी।

‘वस्तुतः मिथ्या संतोष नहीं है। ईश्वर सर्वव्यापी है तो मूर्ति में क्यों नहीं होगा-स्वामी जी ने समाधान दिया।

स्वामी जी उनके दुराग्रही प्रतिपादन को तोड़ गये थे। महल के भीतर की दीवारों पर अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित वीर पुरुषों के चित्र टाँगे थे। शायद वे उक्त नरेश के पूर्वजों के रहे होंगे।

स्वामी जी ने एक चित्र की इंगित करते हुए कहा- ‘यह चित्र किन का है। जरा इसे उतरवाकर मँगाइये।’

राजा के अनुचरों ने तत्काल वह चित्र उतारा ओर स्वामीजी को दिया। काशी नरेश ने बताया- ‘यह चित्र मेरे परदादा महाराज का है।’

क्या आपने अपने जीवन में इन्हें देखा है- स्वामीजी ने प्रश्न किया।

‘जी नहीं- नरेश ने उत्तर दिया।

‘तो फिर क्या आप इस चित्र पर थूक सकते हैं’- स्वामीजी ने कहा-आपको थूकना चाहिए। थूकिए।’

‘नहीं थूक सकता- नरेश ने कहा- ये हमारे पूजनीय हैं।

स्वामीजी ने कहा- आपने तो इन्हें देखा नहीं है। फिर इन्हें श्रद्धापात्र कैसे मानते हैं और फिर यह तो मात्र चित्र है इन पर थूकने में धृष्टता कैसी होगी।

बात काशी नरेश की भी समझ में आ रही थी परंतु फिर भी वे थूकना नहीं चाहते थे। स्वामी जी बोले-आप इस चित्र के प्रति पूज्यभाव रखते हैं। यद्यपि इस चित्र पर थूकने से आपके परदादा का कुछ नहीं बिगड़ेगा और यह भी प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि यह चित्र पूरी तरह आपके परदादा के शरीर की प्रतिकृति भी नहीं हैं इसी प्रकार प्रतिमा के प्रति अपना विश्वास और श्रद्धा भाव रखना आवश्यक है। ईश्वर शक्ति है, चेतना है पर सामान्य जन का मन ऐसे अमूर्त के प्रति एकाग्र हो पाना दुस्तर है, इसीलिए मैं मूर्तिपूजा में विश्वास रखता हूँ।

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