मंगलवार, 10 जुलाई 2018

👉 प्रेम और ब्रह्म

🔶 प्रेम ब्रह्म रस की ही अनुभूति है। वह एक आत्मा दूसरे के प्रति करती है और मिलन से उत्पन्न होने वाला दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है। किन्तु जब यह प्रेम शरीर से सम्बन्धित हो जाता है तो काम या मोह बन जाता हैं मोह तुच्छ है उसमें सुख क्षणिक और दुःख बहुत है।

🔷 ब्रह्म एक से अनेक हुआ। इसलिए कि अनेक से एक होने में जो आनन्द है उसका अनुभव करें। एक से उद्भूत हुए अनेक जीव, पुनः अनेक से एक होने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस प्रयत्न में उन्हें जो आनन्द आता है उसे प्रेम कहते हैं। उस एक से मिलने के प्रयत्न में अनेक जीव आपस में भी मिलाते रहते है। जीव के ब्रह्म से पूर्ण मिलन को परमानन्द कहते है, उसी का आँशिक रूप आँशिक मिलन में अनुभव होता हे। एक आत्मा जब सच्चे हृदय से दूसरी आत्मा को प्यार करती है, मिलने को अग्रसर होती है तो उसे परमानन्द की एक झलक देखने का-प्रेम रख के आस्वादन का आनन्द मिलता है। इस संसार में यही सबसे बड़ा आनन्द है।

🔶 ब्रह्म एक से अनेक हुआ। इसलिए कि अनेक से एक होने में जो आनन्द है उसका अनुभव करें। एक से उद्भूत हुए अनेक जीव, पुनः अनेक से एक होने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस प्रयत्न में उन्हें जो आनन्द आता है उसे प्रेम कहते हैं। उस एक से मिलने के प्रयत्न में अनेक जीव आपस में भी मिलाते रहते है। जीव के ब्रह्म से पूर्ण मिलन को परमानन्द कहते हैं, उसी का आँशिक रूप आँशिक मिलन में अनुभव होता हे। एक आत्मा जब सच्चे हृदय से दूसरी आत्मा को प्यार करती है, मिलने को अग्रसर होती है तो उसे परमानन्द की एक झलक देखने का-प्रेम रख के आस्वादन का आनन्द मिलता है। इस संसार में यही सबसे बड़ा आनन्द है।

👉 आज का सद्चिंतन 10 July 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 10 July 2018


👉 उपहासास्पद ओछे दृष्टिकोण

🔶 यों ऐसे भी लोग हमारे संपर्क में आते हैं जो ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिए कुण्डलिनी जागरण, चक्र जागरण और न जाने क्या-क्या आध्यात्मिक लाभ चुटकी मारते प्राप्त करने के लिए अपनी अधीरता व्यक्त करते हैं। ऐसे लोग भी कम नहीं जो ईश्वर दर्शन से कम तो कुछ चाहते ही नहीं और वह भी चन्द घण्टों या मिनटों में। भौतिक दृष्टि से अगणित प्रकार के लाभ प्राप्त करने के लिए लालायित, अपनी दरिद्रता और विपन्न स्थिति से छुटकारा पाने की कामना से इधर¬-उधर भटकते लोग भी कभी-कभी मन्त्र-तन्त्र की तलाश में इधर आ निकलते हैं। इन दीन दुखियों की जो सहायता बन पड़ती है वह होती भी है।

🔷 इस कटौती पर इस प्रकार के लोग खोटे सिक्के ही माने जा सकते है। अध्यात्म की चर्चा वे करते हैं पर पृष्ठभूमि तो उसकी होती नहीं। ऐसी स्थिति में कोई काम की वस्तु उनके हाथ लग भी नहीं पाती, पवित्रता रहित लालची व्यक्ति जैसे अनेक मनोरथों का पोट सिर पर बाँधे यहाँ वहाँ भटकते रहते हैं, ठीक वही स्थिति उनकी भी होती है। मोती वाली सीप में ही स्वाति बूँद का पड़ना मोती उत्पन्न करता है। अन्य सीपें स्वाति बूँदों का कोई लाभ नहीं उठा पातीं। उदात्त आत्माएँ ही अध्यात्म का लाभ लेती हैं। उन्हें ही ईश्वर का अनुग्रह उपलब्ध होता हैं। और उस उदात्त अधिकारी मनो-भूमि की एकमात्र परख है मनुष्यत्त्व में करुणा विगलित एवं परमार्थी होना। जिसके अंतःकरण में यह तत्व नहीं जगा, उसे कोल्हू के बैल तरह साधना पथ का पथिक तो कहा जा सकता है पर उसे मिलने वाली उपलब्धियों के बारे में निराशा ही व्यक्त की जा सकती है।

🔶 अखण्ड-ज्योति परिवार में पचास सौ ऐसे व्यक्ति भी आ फँसते है जो पत्रिका को कोई जादू, मनोरंजन आदि समझते हैं, कोई आचार्यजी को प्रसन्न करने के लिए दान स्वरूप खर्च करके उसे मँगा लेते हैं। विचारों की श्रेष्ठता और शक्ति की महत्ता से अपरिचित होने के कारण वे उसे पढ़ते भी नहीं। ऐसे ही लोग आर्थिक तंगी, पढ़ने की फुरसत न मिलने आदि का बहाना बना कर उसे मँगाना बन्द करते रहते है। यह वर्ग बहुत ही छोटा होता हैं, इसलिए उसे एक कौतूहल की वस्तु मात्र ही समझ लिया जाता है। अधिकाँश पाठक ऐसे है जो विचारों की शक्ति को समझते हैं और एक दो दिन भी पत्रिका लेट पहुँचे तो विचलित हो उठते हैं। न पहुँचने की शिकायत तार से देते हैं। ऐसे लोगों को ही हम अपना सच्चा परिजन समझते हैं। जिनने विचारों का मूल समझ लिया केवल वे ही लोग इस कठिन पथ पर बढ़ चलने में समर्थ हो सकेंगे। जिन्हें विचार व्यर्थ मालूम पड़ते हैं और एक-दो माला फेर कर आकाश के तारे तोड़ना चाहते हैं उनकी बाल-बुद्धि पर खेद ही अनुभव किया जा सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 52


http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/January/v1.52

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