इतिहास अपनी पुनरावृत्ति कर रहा है। अपना परिवार एक ईश्वरीय महान् प्रयोजन की पूर्ति में सहायक बनने के लिए पुनः इकट्ठा हुआ है। अच्छा हो हम अपने को पहचानें और अतीत काल की सूखी स्मृतियों को फिर हरी कर लें। निश्चित रूप से हम एक अत्यन्त घनिष्ठ और निकटवर्ती आत्मीय परिवार के चिर आत्म्ीय सदस्य रहते चले आ रहे हैं।
ध्वसं एक आपत्ति धर्म है और सृजन सनातन प्रक्रिया। इसलिए ध्वंस को रूकना पड़ता है, थककर लेट जाना और सो जाना पड़ता है। तब सृजन को दुहरा काम करना पड़ता है। एक तो स्वाभाविक सृष्टि संचालन की रचनात्मक प्रक्रिया का संचालन और दूसरे ध्वंस के कारण हुई विशेष क्षति की विशेष पूर्ति का आयोजन।
जिसके भीतर जितनी ईश्वरीय प्रयोजनों में सहयोगी बनने की तड़फन है, वह उतना ही दिव्य आत्मा है। तड़फन पानी के स्रोतों की तरह है जो पहाड़ जैसी कठोरता को चीरकर बाहर निकल आती है। साधारण परिस्थिति के लोग भी उपयुग अवसर पर अपनी तड़फन क्रियान्वित करने का साहस कर बैठते हैं तब वह साहस ही ईश्वरीय अवतरण के रूप में उन्हें सूर्य-चंद्रमा की तरह चमका देता है। तड़फन का फूट पड़ना इसी का नाम अवतरण है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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