सोमवार, 7 मार्च 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १२

त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।

निःसंदेह आत्मा प्रेममय है। उसे सुख अपने विषय में ही प्राप्त होता है। मछली को पानी में आनंद है, इसके अतिरिक्त और कहीं चैन नहीं। प्राणी का मन तब तक शांति लाभ नहीं कर सकता जब तक कि वह प्रेम में निमग्न न हो जाए। जब तक प्यास नहीं बुझती तब तक हम इधर-उधर भटकते हैं और जब मधुर शीतल जल भर पेट पीने को मिल जाता है तो चित्त ठिकाने आ जाता है, संतोष लाभ करके एक स्थान पर बैठ जाते हैं। सर्प का जब पेट भर जाता है तो वह अपने बिल में प्रवेश कर जाता है, बाहर की उसे कुछ जरूरत नहीं रहती। सीप समुद्र के ऊपर उतराती फिरती है, पर जब स्वाति की बूँद उसमें पड़ जाती है तो मोती को प्राप्त करके समुद्र की तली में बैठ जाती है। आत्मा प्रेम का आनंद लूटने इस भूमण्डल पर आई है, अपनी प्रिय वस्तु को ढूँढने के इधर-उधर भटकती फिरती है। जिस दिन उसे इच्छित वस्तुएँ प्राप्त हो जाएँगी उसी दिन तृप्ति लाभ करके अपने परमधाम को लौट जाएँगी। भव भ्रमण और मुक्ति का यही धर्म है।

हमें बार-बार जन्म इसलिए धारण करना पड़ता है कि प्रेम की प्यास बुझा नहीं पाते। मोह-ममता की मृगतृष्णा में मारे-मारे फिरते हैं भव-बंधनों में उलझते फिरते हैं। जिस दिन हमें सद्गुरु की कृपा से यह समझ आ जाएगा कि जीवन का सार प्रेम है, उस दिन हम शाश्वत प्रेम को अपने अंतःकरण में से ढूँढ निकालेंगे।
 
अंतःकरण में जिस दिन प्रेम भक्ति का अविरल  स्त्रोत फूट निकलेगा, जिस दिन प्रेम गंगा में आत्मा स्नान कर लेगी, जिस दिन प्रेम का सागर हमारे चारों ओर लहरावेगा, उसी दिन आत्मा को तृप्ति मिल जाएगी और वह अपने धाम को लौट जाएगी। सच्चा प्रेमी अपने सुखों की भी इच्छा नहीं करता वरन जिस पर प्रेम करता है उसके सुख  पर अपने सुख को उत्सर्ग कर देता है। लेने का उसे ध्यान भी नहीं, देना ही एक मात्र उसका कर्त्तव्य हो जाता है। जिसके हृदय में प्रेम की ज्योति जलेगी वह गोरे चमडे पर फिसल कर अपने चमारपन का परिचय न देगा और न व्यभिचार की कुदृष्टि रखकर अपनी आत्मा को पाप पंक में घसीटेगा। वह किसी स्त्री के रंग, चमक-दमक, हाव-भाव या स्वर कंठ पर मुग्ध नहीं होगा वरन किसी देवी में उज्ज्वल कर्त्तव्य का दर्शन करेगा तो उसको झुककर प्रणाम करेगा। प्रेमी का दम तो बेकाबू हो सकता है पर दिमाग काबू में रहेगा। वह दूसरों के सुख के लिए त्याग करने में अपने को बेकाबू पावेगा परतु किसी को पतन के मार्ग पर घसीटने का स्मरण आते ही उसकी आत्मा कांप जाएगी। इस दशा में उसका एक कदम भी आगे नहीं बढ सकता। अपने प्रेम पात्र को बदनामी, पतन, दुख, भ्रम और नरक में घसीटने वाला व्यक्ति किसी भी प्रकार प्रेमी नहीं कहा जा सकता, वह तो नरक का कीड़ा है जो अपनी विषय ज्वाला में जलाने के लिए प्रेम पात्र को फँसाकर काँटों में घसीटता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १९

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👉 भक्तिगाथा (भाग ११४)

भक्ति की श्रेष्ठतम अवस्था

भक्त विमलतीर्थ की भक्तिगाथा को सुनाते हुए महात्मा सत्यधृति को ऐसी कितनी ही बीती स्मृतियों ने उन्हें घेर लिया। इन क्षणों में उनके आस-पास बैठा हुआ ऋषियों-महर्षियों एवं देवगणों का समुदाय प्रतीक्षा कर रहा था कि महात्मा सत्यधृति कुछ कहें। लेकिन इस समय तो वह स्वयं में लीन थे। यह स्थिति काफी देर तक बनी रही। कोई कुछ नहीं बोला, बस चतुर्दिक मौन पसरा रहा। नीरवता की सघनता सब ओर व्याप्त रही। यह स्थिति पता नहीं कितनी देर तक और बनी रहती, परन्तु ब्रह्मर्षि क्रतु के शब्दों ने नीरव में रव घोल दिया। उन्होंने सत्यधृति को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘‘महात्मन्! हम सभी आपके अनुभवों को ग्रहण करने के लिए उत्सुक हैं।’’

ब्रह्मर्षि क्रतु के इस कथन पर महात्मा सत्यधृति पहले तो मुस्कराए, फिर हल्के हास्य के साथ बोले- ‘‘हे ऋषिश्रेष्ठ! मुझे भी उत्सुकता है देवर्षि नारद के नवीन सूत्र की।’’ सत्यधृति के इस कथन के साथ ही सबकी दृष्टि देवर्षि की ओर घूम गयी जो इस समय शान्त-मौन बैठे हुए किसी चिन्तन में लीन थे। सबके इस अचानक ध्यानाकर्षण से देवर्षि के चिन्तन की कड़ियों में एक अनोखी झंकृति हुई और उन्होंने मधुर मन्द मुस्कान के साथ अपने नए सूत्र का उच्चारण किया-

‘उत्तरस्मादुत्तर-स्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति’॥ ५७॥
(उनमें) उत्तर-उत्तर कम से पूर्व-पूर्व की भक्ति कल्याणकारिणी होती है।

देवर्षि के इस सूत्र को सुनकर देर तक मौन बने रहे महात्मा सत्यधृति अब मुखर हो गए। उन्होंने कहना शुरू किया- ‘‘पिता महाराज की आज्ञा से मैं भक्त विमलतीर्थ से मिला था। उन्होंने अपने जीवनकाल में भक्ति के सभी रूप अनुभव किए थे। जिस समय मेरी भेंट उनसे हुई, उस समय वह गौणी भक्ति की सभी कक्षाओं को पार करके पराभक्ति में प्रतिष्ठित थे। भगवान सदाशिव का नित्य साहचर्य उन्हें प्राप्त था। उनके जीवन की प्रत्येक क्रिया, भक्ति में भीगी थी। उनके द्वारा बोला जाने वाला प्रत्येक शब्द, भक्ति के अमृतरस से सना था। उन्होंने ही आग्रहपूर्वक मुझे वह अपनी अनुभवकथा सुनायी थी, जिसे मैंने आप सभी को सुनाया।

वह स्वयं जब अपने इन बीते अनुभवों को याद करते थे, तो हँस पड़ते थे। एक दिन ऐसे ही उन्होंने मुझे हँसते हुए कहा था- पुत्र! जीव का जीवन और जगत सब का सब, सदाशिव की लीला ही है। लेकिन यह लीला तब तक समझ में नहीं आती जब तक जीवात्मा प्रकृति के गुणों के प्रबली सम्मोहन में रहती है। जैसे-जैसे यह सम्मोहन हटता है, वैसे-वैसे अनुभव होता है कि तामसी भक्ति से राजसी भक्ति श्रेष्ठ है, राजसी भक्ति से सात्त्विकी भक्ति श्रेष्ठ है और इन सभी तीनों से पराभक्ति श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें कोई आकांक्षा नहीं है। पराभक्ति की अवस्था विशुद्ध भगवान व भक्त के परस्पर प्रेम की अवस्था है। यहाँ किसी तरह का कोई लेन-देन नहीं है। भक्त इस अवस्था में सहज अनुभव करता है कि जीवन की सभी घटनाएँ भगवान की लीला के सिवाय और कुछ भी नहीं।

इस स्पष्ट अनुभव के बाद जीवन की सोच, जीवन की दृष्टि एवं जीवन के अनुभव सभी बदल जाते हैं। उस अवस्था में दुःख और सुख दोनों ही अपना अस्तित्त्व खो देते हैं। दुःख में दुःख का अहसास नहीं होता और सुख अपना कोई आकर्षण मन पर जमा नहीं पाता। बस एक सत्य जीवन के प्रत्येक घटनाक्रम में समाया दिखता है कि इन सभी घटनाओं में से प्रत्येक चित्तशुद्धि के लिए आवश्यक है। यदि इनमें से किसी भी घटनाक्रम को रोका गया तो चित्त की सम्पूर्ण शुद्धि न हो सकेगी और ऐसा हुए बगैर भक्ति की समग्रता जीवन में फलित न होगी।’’

महात्मा सत्यधृति ने देवर्षि नारद की ओर मीठे स्नेह से देखते हुए कहा- ‘‘हे देवर्षि! आप तो भगवान नारायण को परमप्रिय हैं। आप तो भक्ति के तत्त्व के परम ज्ञाता और विशद् मर्मज्ञ हैं। जबकि मेरा निजी अनुभव कुछ विशेष नहीं है। बस मैंने तो अपने जीवनकाल में प्रभुभक्तों के अनुभवों को सुना, बटोरा और स्वयं में इन्हें बोया और सींचा है। इन अनुभवों की कथा, विशेष तौर पर भक्त विमलतीर्थ के संग ने मुझे भक्ति का पावन स्पर्श प्रदान किया है। उन्हीं से मैंने यह जाना है कि आकांक्षा कोई भी और कैसी भी क्यों न हो, उससे भक्ति का  स्वरूप कभी निखर नहीं पाता। आकांक्षा का कोई भी रूप, प्यार को व्यापार में बदल देता है और इससे भक्ति की निष्कपट भावनाएँ दूषित एवं विक्षुब्ध हो जाती हैं।

इसीलिए तामसी भक्ति से राजसी भक्ति कहीं ज्यादा उचित है। जबकि राजसी से सात्त्विक भक्ति कहीं अधिक औचित्यपूर्ण है। और पराभक्ति! यहाँ तो आकांक्षा का निशान ही नहीं है। इसलिए यह श्रेष्ठतम है। जो इस अवस्था में जीता है, उसमें ही यथार्थ भक्ति प्रतिष्ठित है। यहाँ तो बस कृतज्ञता है, प्रार्थना है, अस्तित्त्व का अर्पण है, व्यक्तित्व का विसर्जन है, सर्वस्व का समर्पण है। यहाँ बूंद का सागर में स्वाभाविक विलय है। इस अवस्था में भक्त का रोम-रोम अनुभव करता है-

क्या पूजन क्या अर्चन रे!
पदरज को धोने उमड़े आते  
लोचन में जलकण रे!
अक्षत पुलकित रोम,
मधुर मेरी पीड़ा का कम्पन रे!
क्या पूजन क्या अर्चन रे!’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २२८

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👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 7 March 2022


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 7 March 2022


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👉 जानवर भी सिखाते है प्यार की भाषा

हर व्यक्ति के जीवन मे, उसके रिश्तो मे कभी न कभी उतार-चढाव अवश्य आते है। कुछ लोग अपने प्रेम, धैर्य व समझदारी से हर रिश्ते को आसानी से संजो लेते हैँ, वही कुछ लोग रिश्तोँ व प्यार मे खरे उतरने मे नाकाम हो जाते है। अगर आप भी रिश्तो को सम्भालने मे असमर्थ महसूस करते है तो एक बार अपने पालतू जानवर की ओर नजर घुमाकर देखिए। वह भी आपको प्यार का पाठ पढाएंगे। जरूरी नही है कि आप प्यार की भाषा सीखने के लिए किसी डॉक्टर या विशेषज्ञ के कमरे मे घंटो बिताएँ। आप चाहे तो इन पालतू जानवरो से भी बहुत कुछ सीख सकते है !

शर्तो मे रिश्ता नही

प्रेम व रिश्ते कभी भी शर्तो के आधार पर नही बनते। जिन रिश्तो मे शर्ते होती है, उनका लम्बे समय तक टिकना बेहद ही मुश्किल होता है। आपके पालतू जानवर भी जब आपको प्रेम देते है या आपके लिए कोई कार्य करते है तो उसके पीछे उनका कोई मकसद या शर्त नही होती। इतना ही नही, वह अपने फायदे के लिए न तो आपको धोखा देते है और न ही झूठ बोलते है। एक बार सोच कर देखिए कि यदि आपके रिश्ते भी इतने ही पाक हो तो वह आपको कितना सुकून पहुंचाएंगे।

सीखे माफ करना

दुनिया मे ऐसे बहुत कम मनुष्य ही है जो आसानी से दूसरो को माफ कर पाते है। गलतियाँ सभी से होती है, इसलिए उन्हे माफ करना भी सीखेँ। जिस मनुष्य मे क्षमा करने का गुण नही है तो वह दूसरो का नही बल्कि खुद का जीवन ही बेहद कठिन बना लेता है। लेकिन जानवर ऐसे नही होते। अगर आप कभी अपने पालतू जानवर को डांट भी दे तो भी वह आपसे गुस्सा नही होते बल्कि वह लौटकर आपके पास आते है और आपको बेशुमार प्यार करते हैँ।

समय से सीचे प्रेम

आपने कभी नोटिस किया है कि जब भी आप घर पर होते है तो आपके प्यारे पालतू आपको एक पल के लिए भी अकेला नही छोडते। किचन से लेकर ड्राइंग रूम यहाँ तक कि बेडरूम मे भी अक्सर वह आपके साथ खेल रहे होते है। चाहे आप परेशान हो या खुश, वह आपके साथ हर फीलिंग शेयर करते है। इतना ही नही, उनके साथ समय बिताकर आप अपनी परेशानी भूलकर एकदम फ्रेश हो जाते है। लेकिन रिश्तो को समय देने के लिए आपके पास वक्त नही होता। एक बात गांठ बान्ध ले कि जब तक आप अपने रिश्ते रूपी पौधे को समय व प्रेम की खाद से नही सीचेंगे तो वह कभी भी मजबूत पेड नही बनेगा।

रहे रियल

मनुष्य अपना जीवन कई मुखौटो के साथ जीता है, फिर चाहे बात घर की हो या बाहर की। हर जगह के लिए हमारे पास एक मुखौटा है। मुखौटो के साथ जीवन जीते हुए हम अपने वास्तविक चेहरे को ही नही पहचान पाते। लेकिन जानवर हमेशा रियल ही होते हैँ। वह जगह, लोग और अपनी सुविधा के अनुसार अपना व्यक्तित्व व व्यवहार नही बदलते। एक बार आप भी अपने रिलेशनशिप मे रियल होकर देखिए। यकीनन आपको प्यार की एक नई परिभाषा देखने को मिलेगी और आप पहले से काफी खुश रहना सीख जाएंगे।

👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: ७

मार्गदर्शन के लिए अपनी ही ओर देखो

साक्षात्कार संपन्न पुरूष न तो दूसरों को दोष लगाता है और न अपने को अधिक शक्तिमान वस्तुओं से आच्छादित होने के कारण वह स्थितियों की अवहेलना करता है।

अहंकार से उतना ही सावधान रहो जितना एक पागल कुत्ते से। जैसे तुम विष या विषधर सर्प को नहीं छूते ,, उसी प्रकार सिद्धियों से अलग रहो और उन लोगों से भी जो इनका प्रतिवाद करते हैं। अपने मन और हृदय की संपूर्ण क्रियाओं को ईश्वर की ओर संचारित करो।

दूसरों का विश्वास तुम्हें अधिकाधिक असहाय और दु:खी बनाएगा। मार्गदर्शन के लिए अपनी ही ओर देखो, दूसरों की ओर नहीं ।। तुम्हारी सत्यता तुम्हें दृढ़ बनाएगी। तुम्हारी दृढ़ता तुम्हें लक्ष्य तक ले जाएगी।

~ पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 Lose Not Your Heart Day 7
Look to Yourself for Guidance

One who knows himself to be part of God neither blames failure on others nor attributes success to himself. He does not become blinded by his own power and fail to see the real situation. Be as cautious of your own ego as you would of a rabid dog. Avoid attachment to your achievements as you would avoid a poisonous snake, and avoid people who will mock you for this. Direct every effort of your mind and heart towards God.

Depending on others for your happiness ultimately leads to helplessness and misery. Look within yourself for direction and not to others. Your true nature will help you become determined, and this determination will help you each your goal.

~ Pt. Shriram Sharma Acharya

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: ६

आत्म समर्पण करो

तुम्हें यह सीखना होगा कि इस संसार में कुछ कठिनाइयाँ हैं जो तुम्हें सहन करनी हैं। वे पूर्व कर्मों के फलस्वरूप तुम्हें अजेय प्रतीत होती हैं। जहाँ कहीं भी कार्य में घबराहट, थकावट और निराशाऐं हैं, वहाँ अत्यंत प्रबल शक्ति भी है। अपना कार्य कर चुकने पर एक ओर खड़े होओ। कर्म के फल को समय की धारा में प्रवाहित हो जाने दो।

अपनी शक्ति भर कार्य करो और तब अपना आत्मसमर्पण करो। किन्हीं भी घटनाओं में हतोत्साहित न हेाओ। तुम्हारा अपने ही कर्मों पर अधिकार हो सकता है। दूसरों के कर्मों पर नहीं। आलोचना न करो, आशा न करो, भय न करो, सब अच्छा ही होगा ।। अनुभव आता है और जाता है। खिन्न न होओ। तुम दृढ़ भित्ति पर खड़े हुए हो।

 ~ पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 Lose Not Your Heart Day 6
Surrender Yourself

You must be prepared to face hardships in your life. You may be predisposed to feel that you cannot face them, but where you find doubt, tiredness, and despair in yourself, you will also find immense strength. Finish your work wholeheartedly and step aside. Let the results come to you in due course of time.

Work to your full potential. Do not get discouraged by any situation. The only actions you can control are your own, not those of others. Do not criticize others, and do not hold any expectations of them. There is no need to be afraid; everything will turn out for the best. Do & note despair. You are standing on firm ground.

 ~ Pt. Shriram Sharma Acharya

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...