सारे नियंत्रणों पर नियंत्रण है—निर्बीज समाधि
इस सम्बन्ध में युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव एक गुरुभक्त के जीवन की सच्ची घटना सुनाते थे। इन महाभाग का नाम ‘रामलगन’ था। मध्य प्रदेश के छोटे से गाँव में छोटी सी दूकान और जमीन के छोटे से टुकड़े पर गुजर-बसर करने वाला यह रामलगन साधारण सा गरीब गृहस्थ था। किन्हीं शुभ संस्कारों के उदय होने से उसे ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका मिली और वह परम पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आ गया। रामलगन की पढ़ाई-लिखाई बस साधारण अक्षर ज्ञान तक सीमित थी। हाँ, उसमें इतनी योग्यता जरूर थी कि वह अखण्ड ज्योति पढ़ सकता था और अपने गुरुदेव को चिट्ठी लिख सकता था। गुरुदेव बताते थे कि अखण्ड ज्योति संस्थान के दिनों में रामलगन का पत्र रोज आता था। वह रोज रात सोने के पहले गुरुदेव को पत्र लिखता और सुबह जागने पर उसे पास के लेटर बॉक्स में डाल देता। यही उसकी आत्म-बोध और तत्त्वबोध की साधना थी।
जैसा नाम-वैसा गुण। रामलगन की लगन तो केवल अपने श्रीराम में थी। गुरुदेव बताते थे कि उसने अपने पत्रों में कभी भी अपने और अपने परिवार या किसी भी सगे-सम्बन्धी के किसी कष्ट-कठिनाई की चर्चा नहीं की। मथुरा आने पर भी उसने कभी कोई परेशानी नहीं बतायी। बहुत पूछने पर केवल इतना कह देता कि गुरुदेव मैं तो केवल माताजी के हाथ का बना प्रसाद पाने और आपका चरण स्पर्श करने आता हूँ। जैसी उसकी अपूर्व भक्ति थी-वैसी ही उसकी कर्मनिष्ठा थी। छोटी सी सामर्थ्य के बावजूद गुरुकृपा के बलबूते बड़े आयोजन करा लेता था। अंशदान-समयदान उसके जीवन में नियमित अंग थे।
एक दिन गुरुदेव अपने इस अद्भुत भक्त पर प्रसन्न होते हुए बोले-तुम क्या चाहते हो रामलगन? तुम जो भी चाहोगे, मैं वह सब दूँगा-बोलो! रामलगन अपने परम समर्थ गुरु की कृपा पर थोड़ी देर तक मौन रहा। फिर बोला-गुरुदेव! मेरी वैसी कोई सांसारिक चाहत तो नहीं है, बस एक जिज्ञासा है, निर्बीज समाधि को जानने की जिज्ञासा। जैसे समर्थ गुरु वैसा ही दृढ़निष्ठ जिज्ञासु शिष्य। गुरुदेव ने उत्तर में कहा-रामलगन क्या तुम अपने जीवन में भयानक कष्ट सहने के लिए तैयार हो? इस सवाल पर गहराई से सोच लो। यदि तुम्हारा जवाब हाँ में होगा, तो तुम्हारी जिज्ञासा पूरी हो जायेगी।
अपनी बात पूरी करते हुए गुरुदेव ने उसे बताया-निर्बीज समाधि के लिए चित्त के सभी संस्कारों का दहन-शोधन जरूरी है और यह प्रक्रिया कठिन एवं दीर्घ है। काम कई जन्मों का है। यदि इसे एक जन्म में पूरा करें, तो कठिन स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। चित्त से संस्कार तीव्रतापूर्वक निकालने पर जीवन में बड़ी तीव्रता से परिवर्तन आते हैं। शरीर भी इसे तभी सहन कर पाता है, जबकि निरन्तर तपरत रहे। अन्यथा बीच में इसके छूट जाने की स्थिति बन जाती है। गुरुभक्त रामलगन को बात समझ में आयी। उसके हाँ कहते ही गुरुदेव के संकल्प के प्रभाव से उसके जीवन की परिस्थितियों में तीव्र परिवर्तन आने लगे। गायत्री साधना, चन्द्रायण व्रत, अलोना भोजन, गुरुदेव का ध्यान और नियमित काम-काज उसका जीवन बन गया। धैर्य और मौन ही उसके साथी थे। गुरुभक्ति ही उसका सम्बल थी। इस प्रक्रिया में उसे कई दशक गुजरे और अंत में उसे गुरु भक्ति का प्रसाद निर्बीज समाधि के रूप में मिला। उसके जीवन की अंतिम मुस्कान में चेतना के सर्वोच्च शिखर का परम सौन्दर्य झलक रहा था।
॥ ॐ तत्सत् इति प्रथमः समाधिपादः समाप्तः॥
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📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १९९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या