सोमवार, 24 दिसंबर 2018

👉 परमात्मा के साथ

एक 6 साल का छोटा सा बच्चा अक्सर परमात्मा से मिलने की जिद किया करता था। उसे परमात्मा के बारे में कुछ भी पता नही था पर मिलने की तमन्ना, भरपूर थी। उसकी चाहत थी की एक समय की रोटी वो परमात्मा के सांथ खाये।

एक दिन उसने 1 थैले में 5,6 रोटियां रखीं और परमात्मा को को ढूंढने निकल पड़ा। चलते चलते वो बहुत दूर निकल आया संध्या का समय हो गया। उसने देखा नदी के तट पर एक बुजुर्ग बूढ़ा बैठा हैं,जिनकी आँखों में बहुत गजब की चमक थी, प्यार था,और ऐसा लग रहा था जैसे उसी के इन्तजार में वहां बैठा उसका रास्ता देख रहा हों।

वो 6 साल का मासूम बालक बुजुर्ग बूढ़े के पास जा कर बैठ गया, अपने थैले में से रोटी निकाली और खाने लग गया।और उसने अपना रोटी वाला हाँथ बूढे की ओर बढ़ाया और मुस्कुरा के देखने लगा, बूढे ने रोटी ले ली, बूढ़े के झुर्रियों वाले चेहरे पे अजीब सी ख़ुशी आ गई आँखों में ख़ुशी के आंसू भी थे,,

बच्चा बुढ़े को देखे जा रहा था , जब बुढ़े ने रोटी खा ली बच्चे ने 1 और रोटी बूढ़े  को दी। बूढ़ा अब बहुत खुश था। बच्चा भी बहुत खुश था। दोनों ने आपस में बहुत प्यार और स्नेह केे पल बिताये।,,,,

जब रात घिरने लगी तो बच्चा इजाजत ले घर की ओर चलने लगा वो बार बार पीछे मुड  कर देखता ! तो पाता बुजुर्ग बूढ़ा उसी की ओर देख रहा था। बच्चा घर पहुंचा तो माँ ने अपने बेटे को आया देख जोर से गले से लगा लिया और चूमने लगी, बच्चा बहूत खुश था। माँ ने अपने बच्चे को इतना खुश पहली बार देखा तो ख़ुशी का कारण पूछा, तो बच्चे ने बताया!

माँ,....आज मैंने परमात्मा के साथ बैठ क्ऱ रोटी खाई, आपको पता है उन्होंने भी मेरी रोटी खाई,,, माँ परमात्मा् बहुत बूढ़े हो गये हैं,,, मैं आज बहुत खुश हूँ माँ उस तरफ बुजुर्ग बूढ़ा भी जब अपने गाँव पहूँचा तो गाव वालों ने देखा बूढ़ा बहुत खुश हैं,तो किसी ने उनके इतने खुश होने का कारण पूछा??

बूढ़ा बोलां,,,, मैं 2 दिन से नदी के तट पर अकेला भूखा बैठा था,, मुझे पता था परमात्मा आएंगे और मुझे खाना खिलाएंगे। आज भगवान् आए थे, उन्होंने मेरे सांथ बैठ के रोटी खाई मुझे भी बहुत प्यार से खिलाई, बहुत प्यार से मेरी और देखते थे, जाते समय मुझे गले भी लगाया, परमात्मा बहुत ही मासूम हैं बच्चे की तरह दिखते हैं।

👉 कैसे मज़बूत बनें (भाग 4)

5  परेशानियों को पहचानें:

यह समझने की कोशिश करें कि जो बात आपको परेशान कर रही है, क्या वह सचमुच परेशान होने वाली बात है? किसी साथी ने कोई सवाल किया, या सड़क पर किसी ड्राईवर ने अपनी गाड़ी को गलत तरीके से चला कर आपको परेशानी दी, तो देखें कि क्या यह सचमुच इतना परेशान होने की बात है? यह देखें कि ऐसी बातें आपके लिए क्या मायने रखती हैं। अपना ध्यान सिर्फ उन बातों पर केंद्रित रखें जो आपके जीवन के लिए सही मायने में महत्वपूर्ण हैं और इसके अलावा किसी और बात की व्यर्थ चिंता न करें। जैसा कि सिल्विया रॉबिंसन ने कहा है- "कुछ लोग सोचते हैं कि बात को दिल में बिठाए रखने से इंसान मजबूत बनता है, पर इसके उलट बहुत बार ऐसा, बातों को भुला देने से होता है।"

6  जो लोग आपके जीवन में अहम् हैं, उनसे संपर्क बनायें:

परिवार और दोस्तों के साथ-साथ, उन लोगों के साथ भी समय व्यतीत करें जो सकारात्मक और सहयोगी स्वभाव के हैं। अगर इस तरह के लोग आपके इर्द-गिर्द न हों, तो नए दोस्त बनाएं। अगर इस तरह के दोस्त न मिलें, तो उनको मदद करिये जिनको आपसे ज्यादा मदद की जरूरत हो। कभी-कभी, जब हम अपनी स्थिति को सुधार पाने की स्थिति में नहीं होते, तो ऐसे में बहुत बार दूसरों के लिए कुछ करने से इंसान न सिर्फ अच्छा महसूस करता है, बल्कि इससे उसको अपने अंदर की ताकत का भी अहसास होता है। ऐसा करने से इंसान को अपने आप को, अपनी ताकतों को पहचानने में मदद मिलती है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है- इसमें शक की गुंजाईश नहीं। विभिन्न अध्यन और विज्ञानं, सभी बताते हैं कि इंसान का सामाजिक स्वास्थ्य उसके भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अगर आपको समाज के साथ घुल-मिल कर रहने में दिक्कत होती है, तो यह एक समस्या है। आपको इसका इलाज ढूंढना चाहिए। कैसे, यह हम आपको नीचे बताते हैं:

◾ किसी के साथ बहुत ही अच्छी, सकारात्मक और विचारोत्तेजक बातचीत करें।
◾ आपसे जो गलतियां हुईं, उनको भूलिए- उनको दिलो-दिमाग में घर मत बनाने दीजिये।
◾ जब कोई रिश्ता टूटे, तो अपने आप को संभालिये और इस ग़म से बाहर आएं।
◾ शर्मीलापन, हिचक, झिझक से पीछा छुड़ाईए।
◾ बहिर्मुखी व्यक्ति बनिए।

.... क्रमशः जारी

👉 आज का सद्चिंतन 25 Dec 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 Dec 2018


👉 आत्मचिंतन के क्षण 25 Dec 2018

◾ भविष्य की कल्पना करते समय शुभ और अशुभ दोनों ही विकल्प सामने हैं। यह अपनी ही इच्छा पर निर्भर है कि शुभ सोचा जाय अथवा अशुभ। शुभ को छोड़कर कोई व्यक्ति अशुभ कल्पनाएँ करता है, तो इसमें किसी और का दोष नहीं है। दोषी है तो वह स्वयं ही, इसलिए कि उसने शुभ चिंतन का विकल्प सामने रहते हुए भी अशुभ चिंतन को ही अपनाया।

◾ निर्बलता कोई स्थिति नहीं है, बल्कि वह आलस्य और अकर्मण्यता की ही परिणति है। यही कारण है कि निर्बलता चाहे किसी भी प्रकार की क्यों न हो, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या आत्मिक मनुष्य किसी भी दृष्टि से निर्बल हो तो उसे संबंधित क्षेत्र में प्रत्येक प्रयत्न का विपरीत परिणाम भुगतना पड़ता है।

◾ बेईमानी और चालाकी से अर्जित किये गये वैभव का रौब और दबदबा बालू की दीवार ही होता है। जो थोड़ी सी हवा बहने पर ढह जाता है तथा यह भी कि वह प्रतिष्ठा, दिखावा, छलावा मात्र होती है, क्योंकि स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से कतिपय लोग उनके मुँह पर उनकी प्रशंसा अवश्य कर देते हैं, परन्तु हृदय में उनके भी आदर भाव नहीं होता।

◾ किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते हैं और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते हैं, तो एक ओर का पुण्य दूसरे ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही यह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Awakening the Inner Strength

Human life is a turning point in the evolution of consciousness. One who loses this opportunity and does not attempt awakening his inner self, knowing his soul, is the biggest loser. He cannot attain peace – neither in this life, nor in the life beyond. Thus, if we are truly desirous of ascent, beatifying bliss and peace, we must begin to look inwards. Joy is not there in the outer world, not in any achievement or possession of power and enormous resources. It is the soul, which is the origin and ultimate goal of this intrinsic quest.

Just think! Happiness is a virtue of consciousness, how could then the inanimate things of this world give us joy? It is after all the “individual self”, which aspires for unalloyed joy and enjoys it. Then how could it be so dependent upon others for this natural spirit of the Consciousness Force? How could the world, which is ever changing and perishable, be the source of fulfilling our eternal quest? On the contrary, the sensual pleasures, the worldly joys, which delude us all the time, mostly consume our strength and weaken the life force of our sense organs and our mind.

This fact should be remembered again and again that the quest, the feeling of blissfulness are there because of the soul and it is only the awakened force of the soul, the inner strength that can lead the evolution of the individual self to the highest realms of eternal beatitudeous bliss.

📖 Akhand Jyoti, Oct. 1940

👉 आत्मशक्ति का विकास

मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य अपनी आत्मिक शक्तियों का विकास करना है। जो प्राणी इस मनुष्य देह को धारण करके भी अपनी आत्मिक शक्तियों का विकास नहीं करता, अपनी आत्मा के समीप नहीं पहुँचता, वह न इस संसार में शांति प्राप्त कर सकता है और न परलोक को ही सुखमय बना सकता है। इसलिए यदि मनुष्य चाहता है कि उसे सच्ची शांति प्राप्त हो, उसका जीवन सुखमय बने, तो उसे अवश्य अपनी आत्मिक शक्तियों का विकास करना चाहिए, क्योंकि आत्मा ही पूर्ण शांति और सुख का भंडार है।

हम भूल करके संसार के विषयों में सुख का अन्वेषण करते हैं, किन्तु संसार के विषयों में सुख कहाँ? वे तो जड़ हैं। भला जड़ पदार्थों में सुख कहाँ? जबकि `सुख’ गुण की चेतन पदार्थ का है, जड़ का नहीं, तो वह बेचारा जड़ पदार्थ हमें कैसे दुख देगा? जो वस्तु स्वयं ही क्षणभंगुर है, वह हमें शाश्वत शांति कैसे देगी?

संसार के विषय-भोग तो बालक नचिकेता के कथनानुसार, ``कल तक रहने वाले हैं।’’ उनसे सुख मिलना तो दूर, वे तो हमारी इंद्रियों के तेज और सामर्थ्य को भी नष्ट करने वाले हैं। सांसारिक विषयों में जो कुछ थोड़ा सुख का भाव भी होता है, वह भी हमारी आत्मा का ही सुख है, उन जड़ पदार्थों का नहीं। हम अपनी आत्मा के ही सुख को संसार का सुख समझकर उनमें भटकते फिरते हैं।

📖 अखण्ड ज्योति-अक्टूबर 1940

👉 आत्मोत्कर्ष के चार अनिवार्य चरण (भाग 8)

धन उपार्जन में जितनी तत्परता बरतनी पड़ती है उससे कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही तत्परता सद्गुणों का, स्वभाव का अंग बनाने में बरतनी पड़ती है। धन तो उत्तराधिकार में- स्वरूप श्रम से- संयोगवश अथवा ऋण अनुदान से भी मिल सकता है, पर सद्गुणों की सम्पदा एकत्रित करने में तो तिल-तिल करके अपने ही प्रयत्न जुटाने पड़ते हैं। यह पूर्णतया अपने ही अध्यवसाय का प्रतिफल है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाये रहने पर यह सम्पदा क्रमिक गति से संचित होती है। चंचल बुद्धि वाले नहीं संकल्प-निष्ठ सतत् प्रयत्नशील और धैर्यवान् व्यक्ति ही इस वैभव का उपार्जन कर सकने में समर्थ होते हैं। चक्की के दोनों पाटों के बीच में गुजरने वाला अन्न ही आटा बनता है। सद्विचार और सत्कर्म के दबाव से व्यक्तित्व का सुसंस्कृत बन सकना सम्भव होता है। अपना लक्ष्य यदि आदर्श मनुष्य बनना हो तो इसके लिए आवश्यक उपकरण अलंकार जुटाये जाते रहेंगे इन्हीं प्रयत्नों का परिणाम समयानुसार आत्म-निर्माण के रूप में परिलक्षित होता दिखाई देगा।

आत्मोत्कर्ष की अन्तिम सीढ़ी आत्म-विकास है। इसका अर्थ होता है आत्मभाव की परिधि का अधिकाधिक विस्तृत क्षेत्र में विकसित होना। जिनका स्वार्थ अपने शरीर और मन की सुविधा तक सीमित है उन्हें नर-कीटक कहा जाता है। जो इससे कुछ आगे बढ़ कर ममता को परिवार के लोगों तक सीमाबद्ध किये हुए हैं, वे नर-पशु की श्रेणी में आते हैं। आमतौर से सामान्य मनुष्य इन्हीं वर्गों में गिने जाने योग्य चिन्तन एवं क्रिया-कलाप अपनाये रहते हैं। उनका स्वार्थ इस परिधि से आगे नहीं बढ़ता। जीवन सम्पदा का इसी कुचक्र में भ्रमण करते हुए कोल्हू के बैल जैसी जिन्दगी पूरी कर लेते हैं। मनुष्य का पद बड़ा है।

अन्य प्राणियों की तुलना में ईश्वर ने उसे अनेकों असाधारण क्षमता दिव्य धरोहर की तरह दी है और अपेक्षा की है कि उन्हें इस संसार को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए प्रयुक्त किया जाय। मानवी कलेवर ईश्वर की इस संसार की सबसे श्रेष्ठ कलाकृति है। इसका सृजन उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुआ है। इस निर्माण के पीछे जो श्रम लगा है उसमें सृष्टा का यह उद्देश्य है कि मनुष्य उसके सहयोगी की तरह सृष्टि की सुव्यवस्था में संलग्न रह कर उसका हाथ बटाये। यदि इस जीवन रहस्य को भुला दिया जाय और पेट प्रजनन के लिए-लोभ-मोह के लिए-वासना-तृष्णा के लिए ही इस दिव्य अनुदान को समाप्त कर दिया जाय तो समझना चाहिए पिछड़ी योनियों के तुल्य ही बने रहा गया और जीवन का उद्देश्य नष्ट हो गया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी पृष्ठ 11
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1977/January/v1.11

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...