मंगलवार, 26 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 26 Sep 2023

यदि आप से कहा जाय कि आप इस संसार के सबसे बड़े सबसे अमीर और शक्तिशाली पिता के पुत्र हैं, तो आप मन ही मन क्या सोचेंगे? आप अपने को असीम शक्तियों का मालिक पाकर हर्ष के उल्लसित हो उठेंगे। आप अपने भाग्य को सराहेंगे? दूसरे आपको अपने सामने क्षुद्र प्रतीत होंगे। आप हमारी बात मानिये, अपने को ईश्वर का पुत्र होना स्वीकार कर लीजिए। बस, आप उन तमाम सम्पदाओं के स्वामी बन जायेंगे, जो आपके पिता में हैं। पुत्र में पिता के सब गुण आने अवश्यम्भावी हैं। ईश्वर के पुत्र होने के नाते आप भी असीम शक्तियों और देवी सम्पदाओं के मालिक बन जायेंगे। ईश्वर के अटूट भण्डार के अधिकारी हो जायेंगे।

दुखों के निवारण के लिए लोग प्रायः विचार किया करते हैं। अनेक लोग इसी के लिए जप-तप, पूजा, प्रार्थना आदि का सहारा लेते हैं। पर इसमें न तो सब लोगों को सफलता मिलती है और न इसका परिणाम स्थायी ही होता है। वास्तव में सुख और दुख ऊपरी चीज नहीं है वरन् उसका संबन्ध हमारे आत्मा और अन्तरात्मा से है। अगर हमारे अन्तःकरण में शाँति है तो हमें संसार की अधिकाँश बातें और परिस्थितियाँ सुख रूप ही जान पड़ेंगी और अगर मन में अशाँति अथवा असंतोष है तो राजमहल का जीवन भी घोर यंत्रणादायक प्रतीत होगा इसलिये जो लोग स्थायी सुख और शाँति के इच्छुक हैं उनको आत्मा के स्वरूप को जानने और उसकी वाणी को सुनने का प्रयत्न करना चाहिये।
                                              
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को एक जीता जागता यज्ञ बनावे। हम कोई भी दूषित, अपवित्र, विकृत और अपूर्ण वस्तु भगवान को अर्पण नहीं कर सकते। हमको यह समझ लेना चाहिये कि भगवान का मंदिर पवित्र है और हम स्वयं ही वह मंदिर हैं। उसमें से हमें एक ऐसे चरित्र का निमार्ण करना है जो बड़ी बड़ी कठिनाइयों में भी उज्ज्वल रहे। अगर ऐसा नहीं किया जायगा तो जीवन ऐसी निरर्थक और ऊटपटाँग घटनाओं का एक संग्रह बन जायगा जिनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं है। ऐसे जीवन से कोई लाभ नहीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्म शुद्धि कीजिये

जब मनुष्य दिन रात यही सोचने लगता है कि मेरी बातों का प्रभाव दूसरों पर पड़े, तो क्या वह ऐसा करने से अपनी मर्यादा के बाहर नहीं जाता है? मनुष्य केवल इतना ही क्यों न सोचें कि मेरा कर्त्तव्य क्या है! और मैं उसका कहाँ तक सच्चाई के साथ पालन कर रहा हूँ। जो सच्चा कर्त्तव्यपरायण है, उसका प्रभाव अपने साथियों पर और दूसरों पर क्यों न पड़ेगा? पर यदि नहीं पड़ता है, क्या यह अपना दोष नहीं हैं? अवश्य, अपने कर्त्तव्यपरायणता में कमी है? अवश्यमेव अपनी तपस्या अधूरी है। और तपस्या क्या है? अप विचार और उच्चार के अनुसार आचार। सोचना चाहिये कि यदि मैं ऐसा क्रियावान् हूँ फिर मेरे बिना कहे ही मेरे साथ कर्त्तव्यपरायण बनने का उद्योग करेंगे।

यदि विनोद पूर्ण व्यंग, स्नेह पूर्ण उपालम्भ और मधुर आलोचना से मेरा साथी सजग नहीं होता है और अपने कर्त्तव्य यथावत पालन नहीं करता है तो फिर कठोर वचन उसके लिये बेकार हैं। कठोर वचन कहने की अपेक्षा मैं अपनी आत्मशुद्धि, और आत्म-ताड़ना का उद्योग क्यों न करूं। संसार में जो दोष और बुराई हैं, मेरी ही बुराई का प्रतिबिम्ब मात्र है। मुझे अपनी इस जिम्मेदारी को खूब समझ लेना चाहिये। मेरी आत्म-शुद्धि बढ़ती हो, और दूसरों की सेवा करने की वृत्ति दृढ़ होती हो, तो यह हद दर्जे की नम्र और सचाई है। यदि दूसरों से सेवा लेने की वृत्ति बढ़ती हो, अपने बड़प्पन का भाव तीव्र होता हो, तो यह अवश्य अहंकार और पाखण्ड है।

📖 अखण्ड ज्योति- मार्च 1944 पृष्ठ 17

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1944/March/v1.17

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