यदि आप से कहा जाय कि आप इस संसार के सबसे बड़े सबसे अमीर और शक्तिशाली पिता के पुत्र हैं, तो आप मन ही मन क्या सोचेंगे? आप अपने को असीम शक्तियों का मालिक पाकर हर्ष के उल्लसित हो उठेंगे। आप अपने भाग्य को सराहेंगे? दूसरे आपको अपने सामने क्षुद्र प्रतीत होंगे। आप हमारी बात मानिये, अपने को ईश्वर का पुत्र होना स्वीकार कर लीजिए। बस, आप उन तमाम सम्पदाओं के स्वामी बन जायेंगे, जो आपके पिता में हैं। पुत्र में पिता के सब गुण आने अवश्यम्भावी हैं। ईश्वर के पुत्र होने के नाते आप भी असीम शक्तियों और देवी सम्पदाओं के मालिक बन जायेंगे। ईश्वर के अटूट भण्डार के अधिकारी हो जायेंगे।
दुखों के निवारण के लिए लोग प्रायः विचार किया करते हैं। अनेक लोग इसी के लिए जप-तप, पूजा, प्रार्थना आदि का सहारा लेते हैं। पर इसमें न तो सब लोगों को सफलता मिलती है और न इसका परिणाम स्थायी ही होता है। वास्तव में सुख और दुख ऊपरी चीज नहीं है वरन् उसका संबन्ध हमारे आत्मा और अन्तरात्मा से है। अगर हमारे अन्तःकरण में शाँति है तो हमें संसार की अधिकाँश बातें और परिस्थितियाँ सुख रूप ही जान पड़ेंगी और अगर मन में अशाँति अथवा असंतोष है तो राजमहल का जीवन भी घोर यंत्रणादायक प्रतीत होगा इसलिये जो लोग स्थायी सुख और शाँति के इच्छुक हैं उनको आत्मा के स्वरूप को जानने और उसकी वाणी को सुनने का प्रयत्न करना चाहिये।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को एक जीता जागता यज्ञ बनावे। हम कोई भी दूषित, अपवित्र, विकृत और अपूर्ण वस्तु भगवान को अर्पण नहीं कर सकते। हमको यह समझ लेना चाहिये कि भगवान का मंदिर पवित्र है और हम स्वयं ही वह मंदिर हैं। उसमें से हमें एक ऐसे चरित्र का निमार्ण करना है जो बड़ी बड़ी कठिनाइयों में भी उज्ज्वल रहे। अगर ऐसा नहीं किया जायगा तो जीवन ऐसी निरर्थक और ऊटपटाँग घटनाओं का एक संग्रह बन जायगा जिनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं है। ऐसे जीवन से कोई लाभ नहीं।
दुखों के निवारण के लिए लोग प्रायः विचार किया करते हैं। अनेक लोग इसी के लिए जप-तप, पूजा, प्रार्थना आदि का सहारा लेते हैं। पर इसमें न तो सब लोगों को सफलता मिलती है और न इसका परिणाम स्थायी ही होता है। वास्तव में सुख और दुख ऊपरी चीज नहीं है वरन् उसका संबन्ध हमारे आत्मा और अन्तरात्मा से है। अगर हमारे अन्तःकरण में शाँति है तो हमें संसार की अधिकाँश बातें और परिस्थितियाँ सुख रूप ही जान पड़ेंगी और अगर मन में अशाँति अथवा असंतोष है तो राजमहल का जीवन भी घोर यंत्रणादायक प्रतीत होगा इसलिये जो लोग स्थायी सुख और शाँति के इच्छुक हैं उनको आत्मा के स्वरूप को जानने और उसकी वाणी को सुनने का प्रयत्न करना चाहिये।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को एक जीता जागता यज्ञ बनावे। हम कोई भी दूषित, अपवित्र, विकृत और अपूर्ण वस्तु भगवान को अर्पण नहीं कर सकते। हमको यह समझ लेना चाहिये कि भगवान का मंदिर पवित्र है और हम स्वयं ही वह मंदिर हैं। उसमें से हमें एक ऐसे चरित्र का निमार्ण करना है जो बड़ी बड़ी कठिनाइयों में भी उज्ज्वल रहे। अगर ऐसा नहीं किया जायगा तो जीवन ऐसी निरर्थक और ऊटपटाँग घटनाओं का एक संग्रह बन जायगा जिनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं है। ऐसे जीवन से कोई लाभ नहीं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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